विक्रम उपाध्याय

भारत के साथ युद्ध के लिए पागलपन की हद तक जाने वाला पाकिस्तान आखिर किस तरह आईएमएफ से 1.3 बिलियन डॉलर का ताजा कर्ज (लोन) पाने में सफल रहा? भारत भी आईएमएफ का एक पार्टनर देश है और उसका अपना वोटिंग शेयर है। भारत ने 09 मई को हुई आईएमएफ बोर्ड की बैठक में पाकिस्तान के वहशी होने का मुद्दा भी उठाया, लेकिन अंत में वोटिंग से अपने को अलग कर लिया। इसका कारण एक ही है कि अमेरिका समेत तमाम बड़े देश यह आभास दे रहे थे कि पाकिस्तान को आईएमएफ लोन नहीं दिया गया तो वहां और स्थिति खराब हो सकती है। पाकिस्तान में और अफरातफरी मच सकती है। भारत के वोट का भार तीन प्रतिशत से कम है, जो कि फैसले को प्रभावित करने के लिए काफी कम है। आईएमएफ लोन प्राप्त करने के लिए किसी भी देश को कुल वोट का 85 प्रतिशत प्राप्त करना जरूरी होता है और इसमें अमेरिका के वोट का सबसे अधिक प्रभाव होता है।

अमेरिका के वोट का भार 17 प्रतिशत है। यानी केवल अमेरिका ही किसी देश के लोन को अकेले रोक सकता है। अब जबकि सभी बड़े देश जानते हैं कि पाकिस्तान पूरी दुनिया में आतंकवाद का एक्सपोर्ट कर रहा है, फिर क्यों उसे आईएमएफ का लोन दिया जा रहा है। पाकिस्तान को लोन मिलने के पीछे जो कुछ आधार बने हैं, उनमें सबसे अधिक वजनी कारण है, पाकिस्तान द्वारा कई प्रमुख देशों को अपनी जमीन के इस्तेमाल की इजाजत देना है। पाकिस्तान ने चीन, अमेरिका, अरब देश और तुर्किये जैसे देशों को अपने यहां से मिलिट्री और व्यापारिक गतिविधियों को संचालित करने की इजाजत दे रखी है। उसमें भी चीन और अमेरिका पाकिस्तान को अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और चाहते भी हैं कि इस्लामाबाद उनका पिट्ठू बना रहे, इसलिए आतंकवाद को पालते देख भी आईएमएफ का लोन जारी होने दे रहे हैं।

यह देश पाकिस्तान को अलग से कर्ज देते हैं। वह अपने कर्ज के पैसे वापस पाने के लिए भी पाकिस्तान को कर्ज दिलाने में मदद कर रहे हैं। चीन ने पाकिस्तान को भारी कर्ज दे रखा है। पाकिस्तान चाइना इकोनोमिक कॉरिडोर में चीन ने इस्लामाबाद को 65 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज दे रखा है। तीन दशक में भी यह इकोनोमिक कॉरिडोर बन कर तैयार नहीं हुआ है। इसका आर्थिक लाभ मिलने के बजाय चीन के लिए यह बोझ बन गया है। चूंकि पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अपनी आय से चीन का कर्ज उतार सके, इसीलिए उस पर कर्ज लाद कर अपना पैसा निकालना चीन और अमेरिका दोनों के लिए सुविधाजनक रास्ता लगता है।

आईएमएफ के कोष में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अमेरिका की है। आईएमएफ जब लोन देता है, तो पुराने लोन की रिपेमेंट की ताकीद भी करता है। यानी आईएमएफ को अपने पैसे की भी चिंता रहती है। अपने पुराने पैसे की उगाही के लिए नए कर्ज के अलावा इस समय कोई रास्ता भी नहीं है। आईएमएफ केवल एक अंतरराष्ट्रीय फंडिंग एजेंसी नहीं है, बल्कि यह बड़े देशों के लिए आर्म ट्विस्टिंग टूल्स भी है। आईएमएफ अपने लोन की शर्तें मनमाने ढंग से तय करता है। यानी लोन लेने वाले देश की पूरी आर्थिक नीति को अपने ढंग से तय करने का अधिकार रखता है। इसलिए जो भी देश आईएमएफ के लोन की सिफारिश करता है, अपनी-अपनी शर्तों को लादने की कोशिश करता है। पाकिस्तान 1950 से ही आईएमएफ का लोन लेने की आदी हो चुका है। 20 बार से अधिक लोन ले चुका है।

अब भी उसके सामने आईएमएफ के सामने नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। पाकिस्तान का निर्यात सालों से ध्वस्त पड़ा है। टेरर एक्सपोर्ट से उसे उसे कुछ मिलने वाला भी नहीं है। उसके सामने हमेशा डॉलर की किल्लत बनी रहती है। अभी भी उसका विदेशी मुद्रा भंडार 13 अरब डॉलर के आसपास है। पाकिस्तान को खुद को जिंदा रखने के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। और आयात बिल का भुगतान उसे डॉलर में ही करना है, इसलिए आईएमएफ का लोन उसके अस्तित्व से ही जुड़ गया है। इसलिए वह अमेरिका और चीन दोनों का पिछलग्गू बनने के लिए तैयार रहताहै, ताकि आईएमएफ से उसे लोन आसानी से मिल जाए।

पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के आर्थिक संकट का समाधान आईएमएफ के इस ऋण से भी नहीं होगा। पाकिस्तान रोज के हिसाब से जी रहा है। 1.3 अरब डॉलर कुछ ही दिन में खर्च हो जाएंगे। अगले साल फिर पाकिस्तान एक नए लोन के लिए जायेगा। हां इस ऋण से पाकिस्तान पुराने ऋणों की कुछ किस्तें चुकाएगा और आवश्यक आयातों का भुगतान भी कर सकेगा। इसका साफ मतलब है कि पाकिस्तान को आईएमएफ लोन के लिए आगे भी अरब, अमेरिका, चीन और यूरोप के सामने मजबूर हो कर खड़ा रहना पड़ेगा। सभी देशों की शर्तें माननी पड़ेगी। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि पाकिस्तान अपनी व्यापक आर्थिक नीतियों में बदलाव करेगा, आतंकवाद की खेती छोड़कर भविष्य के संकट को हल करने पर जोर देगा।

पाकिस्तान के भ्रष्ट शासक पहले ही पाकिस्तान के नाम पर काफी उधार ले चुके हैं और पाकिस्तान को सुधारने के बजाय अपने निजी व्यवसायों को बढ़ाने में लगे रहते हैं। देश-विदेश में निजी संपत्तियां बनाने में लगे हैं। पाकिस्तान के लिए शर्मसार बात यह भी है कि वह अपने मौजूदा ऋणों को चुकाने में बुरी तरह विफल रहने के बाद भी भारी कर्ज के पीछे भाग रहा है। अब आईएमएफ और अन्य वित्तीय संस्थानों को भी सोचना होगा कि वे आगे कैसे कोई ऋण कैसे स्वीकृत कर सकते हैं, जब देश अपनी पॉलिसी में दूसरे देश में आतंकवाद फैलाने को प्रमुखता देता है और जिसका स्वाद अमेरिका और चीन भी चख रहे है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक विषयों के विशेषज्ञ हैं।)

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{कश्मीरा सिंह}

विश्व के इतिहास में यह पहला अवसर है जब सेना के ऑपरेशन का नाम “ऑपरेशन सिन्दूर” दिया गया है। ऑपरेशन सिन्दूर उन महिलाओं को समर्पित है जिसकी माँग का सिन्दूर पोंछकर राख भर दिया गया है।  बीते 22 अप्रैल को पहलगाम के वैसरन घाटी में खुशियाँ मनाने गए जोड़ों को अथाह दुख के सागर में डूबो कर अकेला और अधूरा कर दिया गया।

याद कीजिए, शुभम् द्विवेदी की पत्नी ऐशान्यी द्विवेदी का वीडियो, पति को गोली लगने के बाद उसने आतंकवादियों से कहा कि – “मुझे भी गोली मार दो।” आतंकियों ने उन्हें कहा था कि- “जाकर मोदी से कह देना।”

मोदी ने वही किया जिसकी दुनिया को उम्मीद नहीं थी।

याद कीजिए – लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल का वैसरन घाटी में पति के शव के पास बैठकर आँसू बहाते हुए। उनका विवाह 16 अप्रैल को हुआ था और 22 अप्रैल को उन्हें गोली मार दी गई। मात्र छह दिन के बाद ही विधवा हो गई हिमांशी। क्रूरता की हद को पार कर दिया था आतंकवादियों ने।
सबसे दुखद था धर्म पूछकर हत्या करना। यह एक खुली चुनौती थी कि भारत में रहना है तो कलमा पढ़ना होगा! इस्लाम स्वीकार करना होगा!
इसका सीधा अर्थ है नरसंहार का सहारा लेकर इस्लाम का प्रसार करना जो वे सदियों से करते आ रहे हैं।

मोदी जी ने आतंकवादियों की इस चुनौती को स्वीकार किया और वह किया जिसके बारे में दुनिया सोच भी नहीं पायी थी। सबसे सुखद और विश्वास दिलाने वाली बात है कि इस ऑपरेशन का कमांड दो महिला नायिकाओं लेफ्टिनेंट कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को मिला, जिन्होंने सफलता पूर्वक ऑपरेशन सिन्दूर का संचालन किया। पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के नौ ठिकानों पर हमला करके उसे ध्वस्त कर दिया गया । नब्बे आतंकियों के मारे जाने की सूचना है।
यह तो बदला लेना हुआ। मोदी जी को इसके बाद की तैयारी भी करनी होगी ताकि आतंकी कभी सिर नहीं उठा सकें।

प्राचीन काल में जैसे असुरों को परास्त कर पाताल लोक भेज दिया गया था उसी तरह इन आतंकियों को भी जमींदोज कर देना चाहिए।

लेखक साहित्यकार हैं।

(यह लेखक के निजी विचार हैं) 

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देश-दुनिया के इतिहास में 22 अप्रैल की तारीख का अहम स्थान है। इसी तारीख को हर साल दुनिया में विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस साल इसकी थीम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ है। पृथ्वी दिवस मनाने का मकसद पर्यावरण संरक्षण की तरफ सभी का ध्यान खींचना और यह कोशिश करना है कि सभी पृथ्वी को खुशहाल बनाए रखने में योगदान दें। यह हर पीढ़ी की जिम्मेदारी बनती है कि वह आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वस्थ और खुशहाल पृथ्वी बनाए रखे। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को बढ़ावा देना, पर्यावरण को सुरक्षित रखना, पर्यावरण संरक्षण में आने वाली चुनौतियों से लड़ना, लोगों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के तरीके बताना, जनसंख्या वृद्धि पर नजर रखना, वनों की कटाई को रोकना, प्रदूषण कम करने की तरफ कदम बढ़ाना और पृथ्वी के हित में कार्य करने के लिए सभी को जागरूक करना ही इस दिन को मनाने का मकसद है।

हर साल पृथ्वी दिवस मनाने के लिए खास थीम चुनी जाती है। इस साल की

थीम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ का खास मकसद लोगों, संगठनों और देशों की सरकार को क्षय होने वाले ऊर्जा स्रोतों को दोबारा इस्तेमाल किए जाने वाले स्रोतों में बदलना और एक टिकाऊ भविष्य की नींव रखने के लिए प्रेरित करना है। इस थीम के माध्यम से यह लक्ष्य निर्धारित करना है कि 2030 तक दुनियाभर में उत्पादित अक्षय ऊर्जा की मात्रा को तीन गुना करना है जिसमें भू-तापीय, जल विद्युत, ज्वारीय, पवन और सौर ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों पर विशेष जोर दिया जाएगा।

पहली बार दुनिया ने 22 अप्रैल, 1970 में पृथ्वी दिवस मनाया था। पृथ्वी दिवस को मनाने की शुरुआत का श्रेय अमेरिकी राजनेता और पर्यावरण एक्टिविस्ट सीनेटर जेलार्ड नेल्सन को जाता है। इसके बाद एक्टिविस्ट डेनिस हायस भी जेलार्ड के साथ इस मुहिम में जुड़ गए। साल 1990 में पृथ्वी दिवस पर 141 राष्ट्रों के 20 करोड़ लोगों ने इस दिवस को मनाया था और साल 1992 में ब्राजील में होने वाली यूनाइटेड नेशंस की एनवायरमेंट और डेवलपमेंट कॉन्फ्रेंस की नींव रखी थी। इसके बाद हर साल करोड़ों लोग पृथ्वी दिवस को मनाते हैं।

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डॉ प्रशांत सिन्हा

बसंत ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है।  

बसंत पंचमी, प्रकृति और ज्ञान के संगम का पर्व है। अधिकांश हिंदू त्यौहार प्रकृति के चक्रों से निकटता से जुड़े होते हैं और आध्यात्मिकता और पर्यावरण के बीच परस्पर क्रिया से समग्र रूप से जुड़े होते हैं। बसंत पंचमी का त्यौहार जो वसंत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है, इससे अलग नहीं है।  बसंत पंचमी समुद्र तट की उदासी के बाद प्रकृति के जगने का प्रतीक है।

नये जीवन को समरूपता घटित होते देखना, फूलों को खिलते देखना और पक्षियों के चहचहाने की वापसी, प्रकृति के चक्रीय चमत्कारों के प्रति विस्मय और प्रशंसा की भावना पैदा होती है। खिलते हुए सरसों के पौधे और सूरज की चमक का प्रतीक, जीवंत पीले रंग का परिदृश्य और उत्सव पर हावी रहता है। बसंत पंचमी का संदेश केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व और ब्रह्मांड के कल्याण के लिए प्रेरणादायक है। प्रकृति को सहेजने से जीवन खिलता है और संस्कृति को सहेजने के लिए साहित्य और सुसंस्कृत वाणी की आवश्यकता होती है। भारत से ही पूरे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला है। ज्ञान एक ऐसा दान माना जाता है जिसे देने से वह कभी घटता नहीं, बल्कि बढ़ता जाता है।

वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा के साथ ही वसंत ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा आराधना की जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि हम अपने भीतर के ज्ञान, बुद्धि और विवेक का समुचित उपयोग करते हुए अपने जीवन के बारे मे कोई निर्णय लें यानि अपने जीवन का संगीत वाद्य हमारे हांथ में हो।ग्रंथों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघ मास की पंचमी तिथि निर्धारित की गई है। बसन्त पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। ऋग्वेद में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। मां सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है। वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। 

वसंत केवल प्रकृति का श्रृंगाकारक ही नही अपितु मानवीय चेतना को उदभासित करने वाला भी है। वीणा पुस्तक धारिणी मां शारदे को वसंत का आध्यात्मिक देवी मानकर उनकी पूजा अर्चना का विधान इसी संदर्भ में किया जाता है। यह पर्व जीवन को मधुर और सरस बनाने का पर्व है। वसंत पंचमी का पर्व भारत की सनातन संस्कृति का प्रमुख पर्व है जिनके आने पर शरद ऋतु की ठिठुरन गुनगुनी धूप से मद्धिम पड़ जाती है। प्रकृति भी इठलाती हुई नजर आती है। हालाकि जलवायु परिवर्तन के कारण फर्क पड़ रहा है। फिर भी वसंत ऋतु में मन की प्रफुलता कुछ अच्छा नवीन करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे में वसंत जीवन का संगीत बन जाता है। बसंत पंचमी पर पीले रंग का विशेष महत्व होता है।

प्रकृति की चमक और जीवन की जीवंतता को दर्शाने वाले पीले रंग के रूपांकन दिन भर बार-बार दिखाई देते हैं । रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने वसंत का अत्‍यंत मनोहारी चित्रण किया है। भगवान कृष्ण ने गीता में ‘ऋतुनां कुसुमाकरः’ कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है। जैसे मैने उपर जिक्र किया वसंत का उत्सव प्रकृति की पूजा का उत्सव है। सदैव सुंदर दिखने वाली प्रकृति वसंत ऋतु में सोलह कलाओं में दीप्‍त हो उठती है। यौवन हमारे जीवन का मधुमास वसंत है तो वसंत इस सृष्टि का यौवन। मानव को अपने स्‍वास्‍थ्‍य और जीवन के सौंदर्य के लिए प्रकृति के अनुपम सान्निध्य में जाना चाहिए।

प्रकृति में ऐसा जादू है कि मानव की वह समस्‍त वेदनाओं को तत्काल भुला देता है। प्रकृति का सान्निध्य यदि सदैव प्राप्‍त होता रहे तो मानव जीवन पर उसका प्रभाव बहुत ही गहरा होता है। निसर्ग में अहंकार नहीं है। अत: वह प्रभु के अत्‍यधिक निकट है। इसी कारण निसर्ग के सान्निध्य में जाने पर हम भी स्‍वयं को प्रभु के अधिक निकट महसूस करते हैं। प्रकृति की सुंदरता व मानव की रसिकता में यदि प्रभु की भक्ति न हो तो वह विलास का मार्ग बनकर मनुष्‍य को विनाश के गर्त में डाल देती है। इसलिए वसंत के संगीत में भक्ति होना चाहिए।

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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा दिया गया `जय हिन्द’ का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया। `तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का उनका नारा भी उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। आजादी की जंग में प्रमुख भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 23 जनवरी को 127 वीं जयंती मनाई जा रही है। उनकी जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका पूरा जीवन ही साहस व पराक्रम का उदाहरण है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियां और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पांचवें बेटे थे। नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। उसके बाद उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेजिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई। उन्होंने इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय से सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया था।

1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस सिविल सर्विस की सरकारी नौकरी छोड़ कर कांग्रेस से जुड़ गए। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में नेताजी ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषचंद्र बोस उसके सदस्य थे।

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उनको जेल भेज दिया। जब सुभाष चंद्र बोस जेल में थे तब गांधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फांसी माफ कराने के लिये गांधीजी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गांधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें लेकिन गांधीजी अपना वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार द्धारा भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गयी। भगत सिंह को बचा नहीं पाने पर सुभाष बोस, गांधीजी और कांग्रेस से बहुत नाराज हो गये।

1930 में सुभाष के कारावास में रहते हुये ही कोलकाता महापौर का चुनाव जीतने पर सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबीयत फिर से खराब होने पर सुभाष इलाज के लिये यूरोप चले गये। सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष इटली के नेता मुसोलिनी से मिले। जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया।

1938 में गांधीजी ने कांग्रेस के हरिपुरा वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें उनकी कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। परन्तु गांधीजी इससे सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गांधीजी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गांधीजी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।

चुनाव में नेताजी सुभाष को 1580 मत व सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गांधीजी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताया। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। 3 मई 1939 को सुभाष ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की। उन दोनों की अनीता नाम की एक बेटी भी हुई।

जर्मनी जाकर नेताजी हिटलर से मिले। 1943 में उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया। वहां से वह जापान पहुंचे। जापान से वह सिंगापुर पहुंचे। जहां उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस वक्त रास बिहारी बोस आजाद हिंद फौज के नेता थे। उन्होंने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया लक्ष्मी सहगल जिसकी कैप्टन बनीं।

नेताजी के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। आजाद हिन्द फौज के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। खून भी एक-दो बूँद नहीं इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमें मैं ब्रिटिश साम्राज्य को डूबो सकूं। 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आजाद-हिन्द सरकार के नियंत्रण में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को शहीद द्वीप और स्वराज द्वीप का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इम्फाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से नेताजी ने गांधीजी को पहली बार राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी मांगा। आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका। किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 का नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारत में सेना के बल पर शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।

विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। जहां 30-35 हजार युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों को पराजित किया। पूर्व एशिया और जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिन्द फौज का विस्तार करना शुरू किया। रंगून के जुबली हॉल में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया। 18 अगस्त 1945 को नेताजी की मृत्यु के संबध में विवाद अबतक अनसुलझा है।

इनपुट एजेंसी 
(लेखक, रमेश सर्राफ धमोरा हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी से संबद्ध हैं।)

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(प्रशांत सिन्हा)

भारत भूमि पर समय समय पर ऐसी दिव्य विभूतियां जन्म लेती रही हैं जिन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति को अपनी प्रतिभा से आश्चर्य चकित किया है। जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1984 में अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया तब उस समय भारत सरकार ने उसकी महत्ता को समझते हुए सन 1984 में घोषणा किया स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस 12 जनवरी को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाएगा।

स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित सर्व धर्म सम्मेलन से लौटते समय रामेश्वरम के पंबन तट पर कहा था कि ” मेरी चिर पुरातन भारत माता एक बार फिर जाग रही है । मैं न तो ज्योतिषी हूं और न भविष्यवक्ता लेकिन मैं प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हूं कि आने वाली सदियां भारत की होगी। जिनकी आँखें नहीं है वे नहीं देख सकते। विछिप्त बुद्धि के लोग इसे नहीं समझ सकते। स्वामी विवेकानंद भारत के प्रति अत्याधिक लगाव रखते थे। वे एक देशभक्त संन्यासी थे।

स्वामी विवेकानंद विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और भारतीयता के क्रांतिकारी अग्रदूत भी। उनमें भारत की आध्यात्मिकता और भौतिक विकास की ललक थी। उन्होने एक बार कहा था ” मुझे उस धर्म व राष्ट्र से संबंध रखने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता सिखाई है। हम न केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते है। मुझे भारतीयता होने पर गर्व है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। जब वे चार साल बाद अमेरिका और ब्रिटेन की यात्रा कर भारत लौटे तो वे मातृभूमि को नमन कर पवित्र भूमि पर लेटकर लोट पोट हुए। यह मातृभूमि के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा और मां भारती के प्रति प्रेम था। उन्होने कहा था मातृभूमि का कण कण पवित्र और प्रेरक है इसलिए इस धूलि में रमा हूं।

उन्होने माना कि पश्चिम भोग लालसा में लिप्त है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मूल्य और लोकाचार भारत के कण कण में रचा बसा है। स्वामी विवेकानंद ने युवाओं के लिए कहा था ” उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए। उन्होने कहा था कि युवाओं में लोहे जैसी मांशपेशियां और फौलादी नसे हैं, जिसका हृदय वज्र तुल्य संकल्पित है। उन्होने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था । भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद के उद्बोधन के कारण हुआ। इस उद्बोधन में स्वामी विवेकानंद द्वारा सभी को ” भाइयों एवं बहनों ” कहकर संबोधित किए जाने से सभी के मन पर गहरा प्रभाव डाला। उस भाषण को आज भी याद किया जाता है।

वास्तव में स्वामी विवेकानंद आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद से बढ़कर दूसरा नेता नहीं हो सकता जिसने विश्व पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी हो। उन्होने देशवासियों को जो स्वाभिमान दिया है वह उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त कर हमारे अंदर आत्मसम्मान और अभिमान जगा देता है। स्वामी जी ने जो लिखा और कहा वह हमारे लिए प्रेरणा है। यह आने वाले लंबे समय तक युवाओं को प्रेरित व प्रभावित करता रहेगा।

शिकागो में दुनिया ने जब उन्हें सुना तब जाना कि भारत की धरती पर एक ऐसा व्यक्तित्व पैदा हुआ है जो दिशाहरा मानवता को सही दिशा देने में समर्थ है। शिकागो में विवेकानंद ने कहा था कि ” मुझे गर्भ है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों एवं देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दिया।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय वांग्मय और भारतीय धर्म संस्कृति का ही विश्व को परिचय नहीं कराया बल्कि सार्वभौमिक सहिष्णुता के उस सिद्धांत को संसार के हर कोने तक पहुंचाने की कोशिश भी की।

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27 सितंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में पैदा हुए हिंदी के समर्थ कवि एवं गज़लकार दुष्यंत कुमार ने महज 44 साल की उम्र में 30 दिसंबर 1975 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

इन 44 साल के छोटे से काल में दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जो ऊंचाइयां दीं, वह समय की रेत पर आज भी अंकित है।

दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नया अर्थ देते हुए उसमें अपने दौर की छटपटाहट को आकार दिया। लिहाजा, दुष्यंत कुमार के शेर आज भी मुहावरे की तरह इस्तेमाल होते हैं- मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

दुष्यंत की पंक्तियों को लेकर निदा फ़ाज़ली ने सटीक कहा है कि “दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है।

यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।

तभी तो दुष्यंत ने लिखा- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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{डॉ० कुमार आशीष, एसपी सारण के फेसबुक वॉल से साभार} 
यूँ तो हम सबों के लिए दीवाली का त्यौहार हमेशा से ख़ास होता है, कई मीठी और अच्छी यादें जुडी रहती है इसके साथ..पर कभी-कभी दीवाली किसी त्यौहार का नाम नहीं होता, तब दीवाली केवल -एक मुस्कान का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली होती नहीं केवल छप्पन पकवानों से, तब दीवाली केवल- भरे पेट सोने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली सोना-चाँदी खरीद कर नहीं मनाई जाती, तब दीवाली -तन पर कपड़ों की एक दूसरी जोड़ी महसूस करने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली अपनों को महंगे उपहार बाँट कर नहीं मनती, तब दीवाली -किसी बेसहारा कंधे पर हाथ रख सहारा देने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली के बिना भी दीवाली हो जाती है, तब जब कोई इंसान इंसानियत का जश्न मना रहा होता है !
दीवाली एक दीपखुशियों के नाम
एक तरफ जहां दीपों की लड़ियाँ जला कर, अपने परिवार के साथ -मिठाईयों और पटाखों के संग यह त्योहार मनाया जाता है, पर ऐसे कई सारे घर (बस्तियों) है, जहाँ दीवाली पर्व पर दीपक बनते और बिकते जरूर है, पर जल नही पाते… घरों में साफ़-सफाई और रंग-रोगन जरुर होता है पर खुद के घर अंधेरों में ही रह जाते हैं…मिठाइयाँ बनती तो जरुर है पर बनाने वाले हाथों को नसीब नहीं होती… नए कपडे सिलते जरुर हैं, पर सिलने वाले चीथड़ों में ही रह जाते हैं.. पटाखें बेचे जरुर जाते हैं पर खुद के बच्चे पटाखों की आवाज़ से महरूम रह जाते हैं..
शायद ऐसी ही किसी कोशिश में हम सब मिलकर इस वर्ष एक पहल करें ताकि दीपावली का दीपक वहाँ भी रोशनी लाये जहां के जरूरतमंद लोग अपने घर को रोशन करने के लिये दिन रात जी-तोड़ काम कर रहे है और जो फिर भी शायद पूरा नहीं पड़ता…!
इस वर्ष वास्तविक दीपावली हम मनायें -अपने घर कुछ कम कर के दीपो को… औरो के घर भी हम दीप जलाएं, इस साल कुछ परायों के साथ अपनेपन को सेलिब्रेट करे, प्यार को सेलिब्रेट करे, सौहार्द और भाईचारगी को सेलिब्रेट करे, भेद मिटाये, रिश्ते बनाये और उन्हें पूरी शिद्दत के साथ निभाएं.
कुछ छोटे छोटे प्रयास- प्यार पाने के लिये जैसे बिस्कुट, लड्डू, फ्रूटी, मोमबती, चॉकलेट, खील-बताशे इत्यादि उन बच्चो में बांटे जो हमको आते-जाते टुकर- टुकर देखते रहते है, आस के साथ- भरोसे के साथ, हम उन्हें साथ लाएं और यही सच्ची दिवाली होगी…
बदले समाज को हम, लाये नए विचार को और कुछ वहाँ से भी खरीदें और उन सामानों को खरीदें जहाँ लगे की कुछ खरीदने से उनके स्वाभिमान की रक्षा होगी, उनके घर में भी दीप जलेगें, खुशियाँ बटेंगी, वो भी भर-पेट भोजन कर सकेंगे, दीवाली सहित अन्य त्यौहार मना सकेंगे, अपना और अपने बच्चों के भविष्य का कुछ भला सोच सकेंगे।
शुरुआत करें अगर कुछ अच्छा लगे…..
जो है -जहाँ है, जोड़े आपस में दीपों की कड़ी…
मैं_नहीं, हम मनाये दीपावली 
जिंदगी तस्वीर भी है और तकदीर भी..!
फर्क तो सिर्फ रंगो का है
मनचाहे रंगो से बने तो तस्वीर,
और अनजानो की दुआ से बने तो तकदीर..!
आपात स्थिति से बचाव का पूरा इंतज़ाम रखें, दिए गए निर्देशों का पालन करें, अपनी तथा अपने परिवार की रक्षा-सुरक्षा का ख्याल रखें.. आप सभी को दीवाली 2024 की पुनश्च: कोटि कोटि शुभकामनाएं…

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अक्टूबर, 1824 को 20 हजार ब्रिटिश फौज ने जब अचानक कित्तूर राज का रुख किया तो मानो दहशत फैल गई। ब्रिटिश फौज की ताकत ऐसी कि उसकी जीत मानो तय थी।

अंग्रेजों के सामने कित्तूर की फौज कुछ भी नहीं थी, लेकिन उसके पास था-चट्टानी हौसले वाली वीरांगना रानी चेन्नम्मा का नेतृत्व। रानी चेन्नम्मा ने अपने मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ ऐसा रणकौशल दिखाया कि अंग्रेज चारों खाने चित्त हो गए।

ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा, अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन मारा गया। सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन बंधक बनाए गए। हालात ऐसे बने कि अंग्रेज घुटनों पर आए और युद्धविराम का ऐलान कर दिया।

रानी ने बंधकों को छोड़ दिया मगर कुछ दिनों बाद ही अंग्रेजों ने उनकी पीठ में छुरा भोंका। अंग्रेजों ने दोगुनी ताकत के साथ इसबार हमला बोल दिया। रानी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने मुकाबला तो किया लेकिन इस बार अंग्रेज भारी पड़े और रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल किले में कैद कर दिया गया। कैद में रहते 21 फरवरी 1829 को इस वीरांगना का निधन हो गया।

रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है इसलिए उनको ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया।

उनका जन्म जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटे-से गांव ककाती में हुआ था। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी।

अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत इसे स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।

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गिरीश्वर मिश्र

शिक्षा की बहुआयामी और बहुक्षेत्रीय भूमिका से शायद ही किसी की असहमति हो । यह मानव निर्मित सबसे प्रभावी और प्राचीनतम हस्तक्षेप है जो जीवन और जगत को बदलता चला आ रहा है । समाज के अस्तित्व, संरक्षण और संवर्धन के लिए शिक्षा जैसा कोई सुनियोजित उपाय नहीं है । इसीलिए हर देश में शिक्षा में निवेश वहां की अर्थव्यवस्था का एक मुख्य मद हुआ करता है । आज ज्ञान -विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से विश्व में अग्रणी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रहे हैं । वे शिक्षा की गुणवत्ता को समृद्ध करने के लिए लगातार सक्रिय रहते हैं और शिक्षा की तकनीकी को उन्नत करते रहते हैं । देश, काल और परिस्थिति की बनती-बिगड़ती मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के कलेवर में बदलाव उनके लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । साथ ही शिक्षा की सुविधा और प्रक्रिया पूरे समाज के लिए लगभग एक जैसी व्यवस्था स्वीकृत है । ठीक इसके विपरीत भारत में शिक्षा अनेक विसंगतियों से जूझती आ रही है । लोकहित के व्यापक लक्ष्यों के लिए समानता और समता आवश्यक है पर भारत में शिक्षा विभेदनकारी हो रही है और परिवर्तन को लेकर शंका और प्रतिरोध है। आज इन सबके चलते क्या प्रवेश क्या परीक्षा हमारी व्यवस्था चरमरा रही है । शिक्षा के क्षेत्र में ढलान के लक्षण लाभकारी नहीं हैं।

परंपरा में शिक्षा, विद्या और ज्ञान की प्राप्ति दुख से निवृत्ति के लिए आवश्यक मानी गई है । साथ ही ज्ञान का विस्तार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान को समेटता है । इस पद्धति से ज्ञान देने के लिए गुरु-शिष्य की एक सशक्त प्रणाली विकसित हुई और गुरुकुल से लेकर विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय तक की अद्भुत संस्थाओं का विकास हुआ । उस प्रणाली से पठन-पाठन करते हुए साहित्य, आयुर्वेद, ज्योतिष, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र, व्याकरण, योग, न्याय, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, वेद आदि अनेक विषयों का अध्ययन-अध्यापन हो रहा था। आज उपलब्ध ग्रंथों से इन विषयों के पीछे हुई लंबी और कठिन साधना का कोई भी सहज ही अनुमान लगा सकता है ।इस व्यवस्था की क्षमता और विलक्षण दृढ़ता का भी पता चलता है कि काल क्रम में सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन होते रहे फिर भी अपनी आंतरिक शक्ति की बदौलत सब कुछ के बावजूद यह ज्ञान परंपरा आज भी साँस ले रही है। विदेशी आक्रांताओं ने भी यहाँ की देशज शिक्षा में षड़यंत्रकारी दखल दिया । इस का सबसे जटिल और दूरगामी असर अंग्रेजों के जमाने में शुरू हुआ । यह बात प्रमाणित है कि भारत का दोहन और शोषण ही साम्राज्यवादी अंग्रेजी राज का एकल उद्देश्य था । इस काम में पाश्चात्य ज्ञान को यहाँ रोप कर यहां की अपनी ज्ञान परंपरा को विस्थापित करने को उन्होंने अपना विशेष सहायक माना । धर्मांतरण की तर्ज़ पर भारतीय मानस को एक नये पश्चिमी सांचे में ढालना और देशज ज्ञान के प्रति भारतीयों के मन में वितृष्णा का भाव पैदा करना ही अंग्रेजों का उद्देश्य बन गया था ।

भारतीय मूल के ज्ञान का हाशियाकरण तेजी से शुरू हुआ तथा ज्ञान और संस्कृति के अप्रतिम प्रतिमान के रूप में अंग्रेजियत छाती चली गई । भारतीयों को अशिक्षित ठहरा कर उनके लिए अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की जगह कुशिक्षा का प्रावधान किया गया। यह कुछ इस तरह हुआ मानों अंग्रेजी शिक्षा विकल्पहीन है और विकसित होने के लिए अनिवार्य है । परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी रह गई । हम उसके अंशों में थोड़ा बहुत हेर फेर ला कर काम चलाते रहे । स्वतंत्र भारत में अपनाई गई शिक्षा की नीतियां , योजनाएं और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही अग्रसर हुआ । स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी मॉडल के जाल से आज भी हम उबर नहीं पाये हैं । शिक्षा के बाजारीकरण और आजीविका से उसका रिश्ता एक नये समीकरण को जन्म देने लगा और देशज शिक्षा को पीछे धकेल रहा था और हम सब अचेत तो नहीं पर दिग्भ्रम में जरूर पड़े रहे । गौरतलब है कि लगभग दो सदी के अंग्रेजी प्रभाव में हमारी सभ्यता में भी वेश-भूषा, खान-पान और मनोरंजन आदि में परिवर्तन आया । इन सब का स्वाद बदलने लगा । साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों में भी परिवर्तन शुरू हुआ । पाश्चात्य दृष्टि को मानक, वैज्ञानिक और सार्वभौमिक मानते हुए कर उसे ऊपर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में आरोपित किया जाता रहा। व्यवस्था की जड़ता इतनी रही कि शिक्षा के प्रसंग में उठने वाले सभी सरोकार जैसे देश का विकास, शिक्षण की गुणवत्ता, विभिन्न सामाजिक वर्गों का समावेशन, शिक्षा जगत में स्वायत्तता की स्थापना, शैक्षिक नवाचार बातचीत के विषय तो बनते रहे किंतु वास्तविकता में अधिकतर यथास्थिति ही बनी रही । संरचनात्मक बदलाव, विषय वस्तु, छात्र पर शैक्षिक भार, और अध्यापक प्रशिक्षण आदि गंभीर विषयों को लेकर भी असमंजस ही बना रहा। आज प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक इतने पैमाने देश में चल रहे हैं और लोकतंत्र के नाम पर इतने तरह की विकृतियाँ पनप गई हैं कि उनसे पार पाना मुश्किल हो रहा है। शिक्षा में तदर्थवाद या एड हाकिज्म का बोलबाला होता गया।

आज भारतीय शिक्षा की दुनिया में बड़ी सारी विषमताओं आ गई है । शिक्षा संस्थाओं की अनेक जातियां और उपजातियां खड़ी हो गई हैं और उनमें अवसर मिलने की संभावना सबको उपलब्ध नहीं है । पूरी तरह सरकारी, अर्ध सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाओं की अजीबोगरीब खिचड़ी पक रही है । सबके मानक और गुणवत्ता के स्तर भिन्न हैं । फीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर तरीके भी बेमेल हैं । बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों बरस चलने वाला युद्ध और संघर्ष का सबब बन चुका है। देश को वर्ष 2047 में विकसित करने का बहुप्रचारित संकल्प सभी भारतीयों के लिए बड़ा ही लुभावना लगता है । विकसित भारत की कल्पना को साकार करने के लिए किसी जादुई छड़ी से काम न चलेगा। उसके लिए योग्य, प्रशिक्षित और निपुण मानव संसाधन की ज़रूरत सबसे ज्यादा होगी । जनसंख्या वृद्धि को देखते हए शिक्षा में प्रवेश चाहने वाले लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है । इस दृष्टि से योजना बनानी होगी और बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान बढ़ाने की जरूरत है । अनेक वर्षों से शिक्षा पर देश के बजट में छह प्रतिशत खर्च करने की बात कही जा रही है परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी बमुश्किल हो पाता है । कड़वा सच यह भी है कि खानापूर्ति से आगे बढ़कर कुछ करने का अवसर सिकुड़ता ही रहा है ।

हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए वित्त की आवश्यकता को स्वीकार करना होगा। फरवरी-मार्च 2024 में प्रकाशित आंकड़ों को देखे तो पता चलता है कि शिक्षा के लिए आवंटित राशि में लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फिर भी, यह राशि शिक्षा के लिए अपेक्षित निवेश सीमा 6 प्रतिशत से कम है। ऐसा लगता है कि प्राथमिकता के आधार पर अलग-अलग में मदों घट-बढ़ कर सरकार वित्तीय नियोजन का उपाय कर रही है। एक तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट को कम किया गया है तो दूसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अधिक राशि आवंटित की गई है। ऐसे ही उन संस्थाओं को जिन्हें सरकार प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा देती है, उसके बजट में भी वृद्धि की है। पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में विद्यालयी शिक्षा के बजट में लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि की गई। यह राशि समग्र शिक्षा अभियान को गति प्रदान करने का कार्य करेगी। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि विद्यालय स्तर पर प्राथमिकता के आधार पर शिक्षकों का नियोजन बाधित न हो, इसे ध्यान में रखते हुए इस राशि का उपयोग होगा। इसी तरह पीएम श्री योजना को भी प्रभावी बनाना होगा। सरकार को उच्च शिक्षा में बेहतर और समावेशी अवसर पैदा करने के लिए नए क्षेत्रों में संभावनाओं को तलाशना होगा। यदि हम विद्यालय स्तर के लिए बढ़ाया गया बजट अगर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है तो निकट भविष्य में उच्च शिक्षा पर निवेश बढ़ाना अपरिहार्य हो जाएगा। सरकार को यह भी संज्ञान में लेना होगा कि यदि शिक्षा रूपी लोकवस्तु पर राज्य निवेश नहीं बढ़ाएगा तो इसका लाभ बाजार की ताकतें उठाएंगी। इसका दोहरा नुकसान होगा। पहला, शिक्षा के लिए आम आदमी का निवेश बढ़ जायेगा। दूसरा, भारत जैसे देश में समावेशन की गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। यह भी विचारणीय है कि आधुनिक तकनीकी के माध्यम से शिक्षा के प्रसार और विस्तार के लिए भी प्राथमिकता से निवेश करना होगा। सरकार द्वारा संस्थानों से स्व वित्त पोषण की उम्मीद करना शिक्षा के लोक स्वरूप को क्षति पहुंचाएगा। विकसित भारत की परिकल्पना को साकार करने ले लिए समर्थ मानव पूंजी की तैयारी हेतु वित्तीय आवंटन, नियोजन और अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति के आकलन द्वारा भावी भूमिका के निर्धारण उपागम द्वारा शिक्षा को प्रभावी बनाना होगा।

(लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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प्रवीण बागी
देश को क्षेत्रीय टीवी न्यूज चैनल के माध्यम से एक नए तरह की पत्रकारिता से परिचित करानेवाले रामोजी राव नहीं रहे। हैदराबाद में शनिवार की अहले सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। पूरे देश में उनके चाहनेवालों में शोक की लहर है।वे एक अद्भुत शख्स थे। मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनके सानिध्य में टीवी पत्रकारिता की एबीसी सीखी। वे एक निडर पत्रकार, ईमानदार उद्योगपति और राष्ट्रीय सोच रखनेवाले बेहतरीन टीम लीडर थे।
दिल्ली में एक विज्ञापन एजेंसी से अपने कॅरियर की शुरुआत करनेवाले रामोजी ने अपनी दूरदर्शिता और परिश्रम के बल पर रामोजी ग्रुप की स्थापना की। वे अपने पीछे फिल्म, मीडिया, होटल,चिट फंड समेत करीब आधे दर्जन संस्थाओं का एक बड़ा साम्राज्य छोड़ गए हैं। उनके द्वारा हैदराबाद में स्थापित रामोजी फिल्म सिटी दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म सिटी है। रामोजी फिल्म सिटी की स्थापना उन्होंने 1996 में की थी।
फिल्म सिटी 1666 एकड़ में फैला हुआ है। यहां 25 फिल्मों की शूटिंग एक साथ की जा सकती है। कुल 50 शूटिंग फ्लोर हैं। अब तक इस फिल्म सिटी में 25000 फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। इनमें साउथ की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘बाहुबली’ के अलावा बॉलीवुड की ‘चेन्नई एक्सप्रेस’, ‘सूर्यवंशम’, ‘दिलवाले’, ‘नायक’, ‘गोलमाल’ जैसी फिल्मों की भी शूटिंग हुई। इसके अलावा यहां कई सीरियल्स की भी शूटिंग हुई है।
दिल्ली से लौटने के बाद उन्होंने विशाखापट्टनम से 1974 में ईनाडु अखबार शुरू किया। आज यह अखबार तेलंगाना का नंबर वन अखबार है। दक्षिण भारत के विभिन्न शहरों से इसके 3 दर्जन से अधिक संस्करण निकलते हैं। 1995 में उन्होंने तेलगु में ईटीवी चैनल शुरू किया फिर धीरे धीरे अलग -अलग राज्यों के लिए वहां की स्थानीय भाषा में एक दर्जन से अधिक न्यूज चैनल शुरू किया जो आज भी अलग-अलग नामों से चल रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने ईटीवी भारत के नाम से विश्व का सबसे बड़ा डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म शुरू किया था। अंतिम समय तक वे उसके विस्तार में लगे रहे।
रामोजी राव का जन्म 16 नवंबर 1936 को आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के पेडापरुपुडी गांव में चेरुकुरी वेंकट सुबामा और चेरुकुरी वेंकट सुब्बैया के घर हुआ था। उनके पिता किसान थे। उनकेएक पुत्र सुमन प्रभाकर का निधन हो चुका है दूसरे पुत्र किरण प्रभाकर तथा उनके और उनके स्वर्गवासी भाई की पत्नी एवं बच्चे मिलकर उनका पूरा कारोबार सम्हालते हैं।
उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि में सिर्फ कारोबार से नहीं मन से एक निर्भीक पत्रकार थे। वे कभी किसी प्रधानमंत्री, मंत्री या मुख्यमंत्री से मिलने नहीं जाते थे। आंध्र या उसके बाद बना तेलंगाना में जब भी कोई नया मुख्यमंत्री बनता तो वह रामोजी से मिलने फिल्म सिटी आता था। यह उनका रसूख था। वाईएसआर रेड्डी सरकार में हुए भूमि घोटाले का जब ईनाडु अखबार ने भंडाफोड़ किया तो सरकार उनके पीछे पड़ गई। उनके मार्गदर्शी चिट फंड समेत अनेक कंपनियों पर छापे मारे गए। उनपर मुक़दमे ठोक दिए गए लेकिन रामोजी झुके नहीं। घाटा उठाकर भी वे डटे रहे और न सिर्फ सरकार की विदाई सुनिश्चित कराई बल्कि मुकदमों से भी बेदाग़ निकले।
मार्गदर्शी चिटफंड के बारे में रेड्डी सरकार ने विज्ञापन निकलकर जनता से आवेदन मांगा जिनके पैसे नहीं लौटाने का आरोप था, लेकिन एक भी आवेदन नहीं आया। लोगों का उनपर यह भरोसा था। उनकी एक और विशिष्टता यह थी कि वे अपने किसी भी नए वेंचर के उद्घाटन या वार्षिक समारोहों में नेताओं को नहीं बुलाते थे। खुद ही उद्घाटन करते थे। वे न खुद नेताओं के आगे -पीछे करते थे न संवाददाताओं को ऐसा करने देते थे। खबर सही है तो वह जरूर चलेगी, चाहे वह कितना ही प्रभावशाली व्यक्ति क्यों न हो, यह उनका मिशन था।
सफ़ेद रंग से उन्हें विशेष लगाव था। सफ़ेद पैंट -शर्ट और सफ़ेद जूता सालो भर उनका पहनावा रहता था। ईटीवी में हर तीन महीने पर वे हैदराबाद मुख्यालय में संवाददाताओं के साथ मीटिंग करते थे। हर मीटिंग में स्ट्रिंगरों को भी बुलाया जाता था। और उनसे वे सीधे बात करते थे। ऐसा दूसरा कोई उदहारण मीडिया जगत में नहीं मिलेगा। स्ट्रिंगरों के आने -जाने और रहने का सारा खर्च कंपनी वहन करती थी। श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन करने पर उनका जोर रहता था।
रामोजी ग्रुप में बेवजह कोई आपकी नौकरी नहीं ले सकता। कंपनी छोड़ने पर एक एक पैसा जोड़ कर भुगतान किया जाता था। उनके जैसा सहृदय और सरल मालिक मिलना मुश्किल है। ईटीवी टीवी पत्रकारिता का प्रशिक्षण हॉउस बन कर उभरा था। वह पहला ऐसा टीवी संस्थान था जो सीधे कालेज से निकले छात्रों का चयन कर उन्हें प्रशिक्षण देकर टीवी पत्रकार बनाता था। देश का कोई ऐसा चैनल नहीं होगा जहां ईटीवी के सीखे पत्रकार काम न कर रहे हों। वहां नियुक्ति के लिए किसी पैरवी की जरुरत नहीं थी।
आपमें थोड़ी भी योग्यता है तो आपकी नियुक्ति होगी।
मीटिंगों में जब कोई सीनियर अपने जूनियर की शिकायत करता तो रामोजी कहा करते थे कोई टीम खराब नहीं होती बल्कि टीम लीडर अच्छा या बुरा होता है। अच्छा टीम लीडर बुरी टीम से से भी अच्छा रिजल्ट देगा और बुरा टीम लीडर अच्छे टीम से भी अच्छा रिजल्ट नहीं दे पायेगा। पत्रकारों से वे विज्ञापन की बात सुनना पसंद नहीं करते थे। मीटिंग में जब कोई संवाददाता विज्ञापन की बात करता था तो वे उसे डांट देते थे। कहते थे मैंने तुम्हें न्यूज के लिए रखा है,विज्ञापन के लिए नहीं। विज्ञापन की चिंता करना तुम्हारा काम नहीं है। आज तो बड़े -बड़े मीडिया हॉउस के संपादक विज्ञापन के लिए परेशान रहते हैं।
मैंने नामी गिरामी मीडिया मालिकों को मंत्रियों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए बैचैन होते देखा है। रामोजी राव अपनी तरह के अकेले इंसान थे। लगातार घाटे के बाद भी उन्होंने ईटीवी को न बंद किया न कभी छंटनी की। न्यूज 18 ग्रुप को ईटीवी बेचा भी तो इस शर्त के साथ की एक भी कर्मचारी की छंटनी नहीं होगी।
उत्तर भारत से उनका कोई लेना देना नहीं था। फिर भी उन्होंने हर प्रदेश में वहां की भाषा में न्यूज चैनल चलाया। यह उनकी राष्ट्रीय सोच थी। एक समय था जब आंध्र प्रदेश में सरकार के बाद रामोजी ग्रुप सबसे बड़ा इम्प्लायर था। 60 हज़ार से अधिक कर्मचारी वहां शिफ्टों में काम करते थे।
रामोजी राव ने एक आदर्श जीवन जीया। वे एक गौरवशाली परंपरा छोड़ कर गए हैं। उनका जाना न सिर्फ पत्रकारिता जगत के लिए अपितु फिल्म जगत के लिए भी एक बड़ी क्षति है। उनकी जगह भर पाना असंभव सा है। सचमुच आप बहुत याद आएंगे रामोजी राव गारु। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे और परिजनों को हौसला दे। शत -शत नमन.
वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार  
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योगेश कुमार गोयल

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के बैनर तले प्रतिवर्ष 07 अप्रैल को एक खास थीम के साथ ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने का प्रमुख उद्देश्य स्वास्थ्य को लेकर विश्व में प्रत्येक व्यक्ति को बीमारियों के प्रति जागरूक करना, लोगों के स्वास्थ्य स्तर को सुधारना और हर व्यक्ति को इलाज की अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना ही है। पूरी दुनिया इस साल ‘मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार’ विषय के साथ 74वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रही है। यदि पिछले कुछ वर्षों की स्वास्थ्य दिवस की थीम पर नजर डालें तो 2023 का विषय था ‘सभी के लिए स्वास्थ्य’, 2022 में यह दिवस ‘हमारा ग्रह, हमारा स्वास्थ्य’, 2021 में ‘सभी के लिए एक निष्पक्ष, स्वस्थ दुनिया का निर्माण’, 2020 में ‘नर्सों और दाइयों का समर्थन करें’ तथा 2019 में ‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य: हर कोई, हर जगह’ विषय के साथ मनाया गया था।

विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाए जाने की शुरुआत डब्ल्यूएचओ द्वारा 07 अप्रैल 1950 को की गई थी और यह दिवस मनाने के लिए इसी तारीख का निर्धारण डब्ल्यूएचओ की संस्थापना वर्षगांठ को चिह्नित करने के उद्देश्य से ही किया गया था। डब्ल्यूएचओ की स्थापना के साथ ही 1948 में विश्व स्वास्थ्य दिवस की नींव भी रख दी गई थी। दरअसल उस समय लोगों की सेहत को बढ़ावा देने और उन्हें गंभीर बीमारियों से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से दुनिया के कई देशों ने मिलकर दुनियाभर में ठोस कार्य करने की जरूरत पर बल दिया और आखिरकार विश्व स्वास्थ्य दिवस की नींव रखने के दो वर्ष बाद सन् 1950 में पहली बार 07 अप्रैल को यह दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र का अहम हिस्सा ‘डब्ल्यूएचओ’ दुनिया के तमाम देशों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग और मानक विकसित करने वाली संस्था है, जिसका प्रमुख कार्य विश्वभर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में सहयोग करना है। इस संस्था के माध्यम से प्रयास किया जाता है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहे।

हालांकि चिंता की स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों में एक ओर जहां स्वास्थ्य क्षेत्र ने काफी प्रगति की है, वहीं कुछ वर्षों के भीतर एड्स, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के प्रकोप के साथ हृदय रोग, मधुमेह, क्षय रोग, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरन्तर बढ़ रही हैं। वैसे तो दुनिया के तमाम देश बीते कुछ दशकों से स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन कोरोना काल के दौरान जब अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस अवस्था में देखा गया और वहां भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अभी भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वयं मानता है कि दुनिया की कम से कम आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। विश्वभर में अरबों लोगों को स्वास्थ्य देखभाल हासिल नहीं होती। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल में से किसी एक को चुनने पर विवश होना पड़ता है।

भारतीय समाज में तो सदियों से धारणा रही है ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’ लेकिन चिंता का विषय यही है कि हमारे यहां भी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बहुत खराब है। बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य दिवस के माध्यम से जहां समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता है, वहीं इसका सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यही होता है कि लोगों को स्वस्थ वातावरण बनाकर स्वस्थ रहना सिखाया जा सके। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना ही मानव-स्वास्थ्य की परिभाषा है। यह बेहद चिंता का विषय है कि दुनिया की करीब 30 प्रतिशत आबादी के पास बुनियादी स्वास्थ्य उपचार तक पहुंच नहीं है और करीब 200 करोड़ लोग विनाशकारी अथवा खराब स्वास्थ्य देखभाल लागत का सामना कर रहे हैं, जिसमें काफी असमानताएं हैं, जो सबसे वंचित परिस्थितियों में लोगों को प्रभावित कर रही हैं। हालांकि स्वास्थ्य का अधिकार एक ऐसा मौलिक मानवाधिकार है, जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को बगैर किसी वित्तीय बोझ के, जब भी जरूरत हो, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच मिलनी चाहिए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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