प्रभात किरण हिमांशु

जिसने आजादी की खुशबू को अपने खून से तरोताजा कर दिया उस महान क्रांति पुरुष का नाम है ‘आजाद’. जिसने आजादी के लिए जीना और आजादी के साथ मरने की प्रेरणा दी उस वीर सपूत का नाम है ‘आजाद’.

चंद्रशेखर ‘आजाद’ ही थे जिसने स्वाधीनता नाम के अर्धसत्य को पूर्णसत्य में बदलने की दिशा में एक अविस्मरणीय क्रांति लायी थी. आज हमारी आजादी के उस महान प्रणेता के जयंती पर आजाद भारत उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है. लेकिन आजाद देश की परिकल्पना को साकार रूप देने वाले वीर शहीद की महान आत्मा को क्या सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित हो पा रही है!

यह एक ऐसा सवाल है जिसने ना सिर्फ चंद्रशेखर ‘आजाद’ बल्कि तमाम स्वाधीनता के सिपाहियों के बलिदान पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. क्या हमने सही मायनों में आजादी की सार्थकता को जीवंत रखा है. आज हमारी सोंच और विचारधारा जिस दिशा में जा रही है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत की जड़े खोद दी आज हम उसी आजादी की जड़ें खोदने में लगे हैं.

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कोई भी ऐसा दिन नहीं होगा जिस दिन स्वाधीनता और आजादी जैसे शब्दों की गरिमा और उसकी सत्यता का अपमान न हुआ होगा. कभी राजनेता तो कभी अपराधी, कभी चरमपंथी तो कभी निराशावादी शिक्षाविद्, हर वर्ग ने हमें प्राप्त आजादी का उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

आज आजादी के नाम पर देश में जो खेल चल रहा है उसने हमारे महापुरुषों के बलिदान पर जिस प्रकार कुठाराघात किया है. वो भारत की आजादी का माखौल उड़ाने के लिए पर्याप्त है.

आज हमें यह तय करना होगा कि बलिदानी वीरों के रक्त से सींची गई आजादी की गरिमा को बरकरार रखना है या आजादी के नाम पर विध्वंशक राजनीति का स्वांग रचाकर देश को पुनः उन्ही यातनाओं और असमानताओं के जंजाल में ले जाना है. महज एक निर्णय भारत की तस्वीर और तकदीर दोनों बदलने के लिए पर्याप्त होगा.

चंद्रशेखर आजाद को सच्ची श्रद्धांजलि तभी अर्पित हो सकेगी जब हम गुलामी के उस कठिन दौर को फिर से वापस नहीं आने देने का संकल्प लेंगे. सबको मिलकर प्रयास करना होगा वही चंद्रशेखर आजाद और उनके बलिदान को हमारी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

” जिसने भारत की आजादी के संघर्ष को सींचा अपना लहू देकर, भारत की धरती पर ही पैदा होते हैं ‘आजाद चंद्रशेखर”

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छपरा: किसी भी जिले के नाम राष्ट्रीय पटल पर सुर्ख़ियों में आना बड़ी बात होती है पर उसके कारण में दर्द और वेदना का मंजर छुपा हो तो वही सुर्खियां आंसुओं का सैलाब बन कर धरातल पर दिखने लगती हैं. चीख-चित्कार, करुणा, वेदना,कष्ट और पीड़ा जैसे शब्द उस दिन मामूली से दिखने लगे थे, जिस दिन सारण के इतिहास में ‘गंडामन’ हादसा हुआ था. 16 जुलाई 2013 का वो काला दिन कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है.

जहरीला मिड-डे-मिल खाने से प्राथमिक विद्यालय धर्मासती गंडामन, सारण के 23 बच्चे मौत के मुँह में समा गए थे. उस दिन धर्मासती गाँव के साथ-साथ सारण के हजारों घरों में चूल्हा नहीं जला था. कई दिनों तक सरकारी स्कूल के बच्चों ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया. इस घटना ने देश की सबसे बड़ी योजना पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया था.fb

सरकारी तंत्र से लेकर सामजिक संस्थाओं ने मिलकर इस हृदयविदारक घटना से उबरने के लिए पीड़ित परिवार वालों को हर संभव मदद देने का प्रयास किया. हादसे से से सबक लेकर सरकार ने सरकारी विद्यालयों में चल रही मिड-डे-मिल योजना के साथ-साथ तमाम योजनाओं को सफलतपूर्वक संचालित करने के लिए कमर कस ली. समय के साथ-साथ गंडामन की भी की सूरत भी बदली. हादसे के शिकार बच्चों के स्मृति में समाधी स्थल बनाया गया. तमाम योजनाओं को अमली जामा पहनाने का काम शुरू हुआ. कुछ स्थिति जरूर सुधरी पर आज भी सरकारी स्कूल की स्थिति शिक्षा और एमडीएम के बीच में ही उलझ कर रह गई है.

आज हादसे के 3 साल पूरे होने पर उन बच्चों को हम अपनी श्रद्धांजलि तो जरूर देंगे पर उनके माँ-बाप के आँखों में सुख चुके आंसू आज भी हमें सोंचने पर मजबूर करते हैं. सबक के साथ आगे बढ़ रहे बिहार में क्या सरकारी योजनाएं सफलता पूर्वक संचालित हो रही है, क्या उन मासूमों के साथ अब तक न्याय हो पाया है, क्या चीख और चित्कार की आवाज और उसकी गूँज आज गंडामन से दूर जा चुकी है. इन सवालों का जवाब हमें ही ढूंढना होगा. व्यवस्थाओं को बदलने के लिए आज एक प्रयास की जरूरत है. अगर हम सब मिलकर संकल्प लें तो ‘गंडामन हादसा’ फिर नहीं दोहराया जा सकेगा.fb

‘सरकार और समाज दोनों के सार्थक प्रयास से ही व्यवस्था में परिवर्तन लाना संभव है’.हम संकल्प लें कि फिर कोई मासूम ऐसे हादसों का शिकार न हो. सारण जिला राष्ट्रीय पटल पर छा जाए पर उसके कारण में गंडामन जैसा हादसा न हो. छपरा टुडे गंडामन हादसे का शिकार हुए सभी बच्चों के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करता है.

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सारण जिला परिषद् के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष चुनाव में ‘यारा’ (यादव-राजपूत) समीकरण का दबदबा दिखा. एक ओर जहाँ अध्यक्ष पद पर राजपूत प्रत्याशी की जीत हुई वही दूसरी ओर उपाध्यक्ष पद पर यादव प्रत्याशी के जीत ने इस समीकरण को मजबूत किया है.

राजपूत जाति से आने वाली मढ़ौरा भाग-2 की पार्षद मीणा अरुण की जीत पहले से ही तय मानी जा रही थी. वे पिछले तीन बार से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती आ रही है. मीणा अरुण अपने क्षेत्र में मिलनसार नेता के रूप में पहचानी जाती है. उनके ससुर गणेश सिंह कई बार अवारी पंचायत के मुखिया रह चुके है. इस बार परंपरा को उनके पति अरुण सिंह ने मुखिया का चुनाव जीत कर कायम रखा है.

वहीं उपाध्यक्ष पद पर जीत हासिल करने वाले सुनील राय सोनपुर के कद्दावर नेताओं में से एक है. वे लगातार चौथी बार सोनपुर से पार्षद चुने गए है. क्षेत्र में उनकी पहचान यादव नेता के रूप में है. विधानसभा चुनाव में उनका नाम सोनपुर से प्रत्याशी के रूप में आगे था पर किन्ही कारणों से उन्हें टिकट नहीं मिल सका. हालाकि क्षेत्र में वह सक्रिय रहे और जिला परिषद् चुनाव में चौथी बार जीत हासिल की..   

जिला परिषद् के इस जीत से एक ओर जहाँ महागठबंधन ने अपनी एकजुटता को प्रदर्शित कर दिया है वही दूसरी ओर विरोधी चारों खाने चित हो गए है. अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में मीणा अरुण के एक-तिहाई मत हासिल किया.. उन्हें 37 मत मिले जबकि उनकी प्रतिद्वंदी गीता सागर को मात्र 7 मत ही मिले जो एकजुटता को प्रदर्शित करने के लिए काफी है. वही उपाध्यक्ष पद की बात करें तो कमो-बेस ऐसा ही समीकरण देखने को मिला जहाँ सुनील राय को 36 और निवर्तमान उपाध्यक्ष विजय प्रताप सिंह चुन्नू को 10 मत मिले. 

इस जीत के साथ ही सारण में महागठबंधन एक बार फिर से सब पर भारी पड़ा है और उसके नेता राजनीति के महारथी साबित हुए है.

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(कबीर अहमद) दिन-प्रतिदिन युवाओं पर चढ़ रहे Selfie के खुमार को दरकिनार नही किया जा सकता है. सेल्फी का शौक और उसका क्रेज़ युवाओं के सर चढ़कर बोल रहा है. सेल्फी के लिए युवा कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जा रहे है. आये दिन बढ़ रही सेल्फी की वजह से दुर्घटनाये कहीं न कहीं मौज-मस्ती की चाह और कुछ नया कर गुजरने की ख्वाहिश रखने वाले युवा के लिए चिंता का सबब है. लेकिन ज्यादातर युवा इसे नज़रअंदाज़ करते है और हम इसका भयावह स्वरूप देखते है.

सेल्फी स्मार्टफ़ोन की देन है. जिसमे फ़ोन के सामने लगे कैमरे इसमें अहम भूमिका निभाते है. अगर आपके पास समार्टफ़ोन है तभी आप सेल्फी ले सकते है. पिछले दिनों आये सेल्फी स्टिक ने इसकी दीवानगी और बढ़ा दी है. खतरनाक तरीके से सेल्फी लेना और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर उसके कितने लाईक मिले और किसने क्या कमेंट किया, ये सब कहीं न कहीं सेल्फी लेते वक्त युवाओं के जेहन में होता है. सोशल मीडिया के इस दौर में सेल्फी के जूनून में युवाओं को सोचने की जरुरत है कि कही सेल्फी ज़िन्दगी पर भारी न पड़ जाये.

ज्यादातर देखा तो यह जाता है कि पिकनिक स्पॉट, समंदर की लहरों, ऊंची चट्टानों, नदी की जलधारा युवाओं को सेल्फी लेने के लिए आकर्षित करती है और यही दीवानगी जानलेवा साबित हो जाती है. खतरनाक जगहों पर युवा और भी खतरनाक स्थिति में सेल्फी लेने के लिए उतावले हो जाते हैं,ऐसी स्थिति में सेल्फी की चाहत दुर्घटना को निमंत्रण देती है और कभी-कभी मौत का कारण भी बन जाती है.

सबसे ज्यादा सेल्फी लेने के चक्कर से भारत में मौतें होती है. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए पिछले साल नासिक कुंभ मेले के दौरान कुछ जगहों पर  ‘नो सेल्फी जोन्स’ भी बनाए गए थे.

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पौराणिक काल में एक भगीरथ प्रयास हुआ और भगीरथी की आराधना और दृढ संकल्प के फलस्वरूप धरती पर गंगा का अवतरण हुआ. तब से लेकर आज तक विशाल हृदय लिए गंगा की धारा समाज के लिए समस्त पापों का नाश करने वाली मोक्षदायिनी नदी के रूप में हमारे बीच विद्यमान है.

गंगा पवित्र है, पर सुविधाभोगी समाज के आचरण ने गंगा की पवित्रता और उसकी अविरलता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है. समय के साथ गंगा की निर्मलता प्रदूषित हो चुकी है. आज गंगा अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्षरत है. गंगा का पानी अपनी स्वच्छता के लिए जाना जाता था, पर आज गंगा में जिस प्रकार गन्दगी बढ़ी है उसने इस मोक्षदायिनी नदी के अस्तित्व पर संकट ला दिया है.

शहरों का तेजी से हो रहा आधुनिकीकरण, बढ़ती जनसंख्या और सरकार और समाज की दोहरी मानसिकता का दुष्परिणाम आज गंगा के प्रदूषित होने की प्रमुख वजह है. सदियों से गंगा प्रदूषण की मार झेलती आ रही है. कभी कल-कारखानों की गन्दगी तो कभी शहरों में फ़ैल रही गन्दगी, सबको गंगा ने अपने अंदर समावेशित किया है किन्तु गंगा की सफाई को लेकर समाज में व्याप्त उदासीनता के कारण आज गंगा को बचाना एक चुनौती बनी हुई है.

हमारी रूढ़िवादी सोंच ने भी गंगा को काफी हद तक प्रभावित किया है. पूजा-पाठ एवं महत्वपूर्ण समय पर होने वाले स्नान के समय गंगा को प्रदूषण का जो दंश झेलना पड़ता है वो हमारी लापरवाही का नतीजा है. आज गंगा में प्रतिदिन हजारो टन कचड़ा किसी न किसी माध्यम से प्रवाहित किया जा रहा है पर हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की मोक्षदायिनी गंगा को भी प्रदूषण से मुक्ति की आवश्यकता है.

वर्तमान केंद सरकार ने भी गंगा को पूर्णतः निर्मल बनाने के लिए कई योजनाओं का सृजन किया है पर उन योजनाओं का निराकरण तभी संभव है जब हम सब मिलकर गंगा की अविरलता और निर्मलता स्थापित रखने में सहयोग करें. गंगा से कचड़े को निकालने के लिए कई आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया जा रहा है. पूरे देश में इसके अंतर्गत वृहत जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है. देश और विदेश के एनजीओ की मदद से भी गंगा को स्वच्छ बनाने की दिशा में कई योजनाएं चल रही हैं पर हम सब को जीवन और मुक्ति देने वाली गंगा की धारा तभी निर्मल हो पाएगी जब पूरा देश एक साथ खड़ा होगा और ये निर्णय करेगा की हम गंगा को कभी प्रदूषित नहीं होने देंगे.

हम सब अगर एक दिशा में सार्थक प्रयास करें तो निश्चित ही गंगा प्रदूषण मुक्त हो सकती है. हम सब ने मिलकर फिर से एक भगीरथ प्रयास किया तो हमारे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाली गंगा पुनः निर्मलता के साथ हमारे बीच अविरल रहेगी. बस गंगा को  जरूरत है आज ‘एक और भगीरथ की’.

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CT ELECTION DESK से प्रभात किरण हिमांशु की रिपोर्ट

छपरा: गाँव की संसद कहे जाने वाले पंचायत के लिए हुए त्रि-स्तरीय चुनाव के लगभग सभी परिणाम आ चुके हैं. सारण जिले के 20 प्रखंडों में विगत एक महीने से लगातार निर्वाचन की प्रक्रिया चल रही थी. 2 जून से जैसे ही पंचायत चुनाव के परिणाम आने शुरू हुए सभी दिग्गजों के दिलों की धड़कन बढ़ने लगी. युवा प्रत्याशियों में भी बेचैनी का भाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था. चुनाव के दौरान जनता से किये गए वादों और उनके मन में अपने प्रति विश्वास का मतों में रूपांतरित होने की जद्दोजहद सभी प्रत्याशियों में बराबर दिखी.

चुनाव परिणाम आते ही उम्मीदों की एक नई किरण जगी ‘जनता और विजयी प्रत्याशी’ दोनों के बीच. जीतने वाले मन ही मन प्रश्न भी दिखे साथ ही जनता से किये गए वादे और उसे पूरा करने का दबाव भी उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था. इस बार के चुनाव में ज्यादातर विजयी उम्मीदवार ऐसे हैं जिन्हें पहली बार चयनित जन-प्रतिनिधि बनने का मौका मिला है. इनमे युवा प्रत्याशियों की अधिकता है. युवाओं का पंचायत स्तरीय चुनाव में भाग लेना और बड़ी संख्या में चुनकर आना ग्रामीण स्तर पर विकास की नई परिभाषा लिख सकता है.

इस चुनाव के दौरान भी ज्यादातर मतदाताओं का रुझान युवा वर्ग को सशक्त करने की तरफ ही दिख रहा था. शायद यही कारण है कि युवा प्रत्याशी चाहे पुरुष हों या महिला सबमें अपने परिणाम को जानने की उत्सुकता रही. राहुल राज, संगम बाबा, स्नेहा सिंह, विजय कुमार, रेखा मिश्रा, नम्रता राज, अंजली राज, सुनीता राय, श्वेता देवी जैसे कई युवा चेहरे हैं जिन्होंने ना सिर्फ जीत हासिल की है बल्कि इनके जीत का जो अंतर रहा है वो पंचायत चुनावों में युवा शक्ति के बढ़ते प्रभाव को भी दर्शाता है.

इस चुनाव में कई दिग्गजों को हार का सामना भी करना पड़ा तो कुछ पुनः निर्वाचित हो कर अपनी साख बचाने में कामयाब भी हुए. परसा भाग-एक से युवा प्रत्याशी स्नेहा सिंह ने जिला परिषद अध्यक्ष छोटी कुमारी को लगभग 3000 मतों से हराकर बड़ा उलटफेर किया है तो वहीँ पूर्व विधायक स्व.रामप्रवेश राय की पत्नी पतासो देवी ने पंचायत चुनाव में  निर्वाचित होकर अपनी पारिवारिक राजनीति को आगे बढ़ाने की ओर पहला कदम बढ़ाया है. मांझी भाग-3 से  जिला परिषद के उपाध्यक्ष विजय प्रताप चुन्नु ने निकटतम प्रतिद्वंदी को 257 मतों से हराकर अपनी साख को बचाने में कामयाबी हासिल की है.

इस चुनाव में अधिकतर विजयी प्रत्याशियों के बीच जीत का अंतर काफी करीबी रहा है. परसा प्रखंड के चांदपुर पंचायत में एक ऐसा ही परिणाम सामने आया जहां मुखिया प्रत्याशी विजय राय ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी गोरख राय को मात्र 6 मतों के अंतर से पराजित किया. विजय राय को 1005 वोट मिले जबकि गोरख राय को 999 मत मिले.

कुल मिलाकर जो परिणाम सामने आये है उससे ये स्पष्ट है की वोटरों ने विकास की बागडोर नए ऊर्जावान प्रत्याशियों को सौंप दी है. गाँव के निरंतर विकास से ही पूरे देश का विकास संभव है ऐसे में युवा पीढ़ी के जनप्रतिनिधियों को भी इस चुनौती को सहजता से स्वीकार कर गाँव के विकास को रफ़्तार देकर उसे मुख्यधारा से जोड़ने में अहम भूमिका निभानी होगी.

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हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ ना कुछ शौक रखता है. कुछ लोग शौक को मात्र मनोरंजन तक ही सीमित रखते हैं पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शौक को जीवन के प्रमुख कार्यों में सम्मिलित कर समाज को एक सन्देश देने का प्रयास करते हैं.

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डॉ. विजय कुमार सिन्हा

छपरा के प्रमुख शिक्षाविद् और जयप्रकाश विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष प्रो. विजय कुमार सिन्हा ने भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय डाक टिकटों का एक अनोखा संग्रह कर शौक की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत की है. 

छपरा टुडे से हुई बातचीत में प्रो. सिन्हा ने बताया कि जब वह 10वीं कक्षा के छात्र थे तभी से टिकट संग्रह करने का शौक उनके मन में जगा. उस समय 4 आना से लेकर 8 आना (तत्कालीन पैसा) तक के डाक टिकट मिलते थे. प्रो. सिन्हा ने छात्र-जीवन में पत्र के माध्यम से देश-विदेश में कई मित्र (पेन-फ्रेंड) बनाए थे. जब भी उनके मित्रों के पत्र का जवाब आता तो लिफाफे पर काफी आकर्षक और नए-नए प्रकार के डाक-टिकट भी लगे रहते थे.

प्रो. सिन्हा ने यादगार के तौर पर उन टिकटों को संजोकर रखना शुरू किया और यहीं से उनका ये शौक जूनन में बदल गया. तब से लेकर आज तक प्रो. सिन्हा ने भारत समेत अन्य कई देशों के दुर्लभ डाक टिकटों का संग्रह किया है.

प्रो. सिन्हा ने बताया कि उनके पास ब्रिटिशकाल से लेकर भारतीय राजनीति, विज्ञान, पशु-पक्षियों, साहित्यकार, हरित क्रांति, प्रमुख इवेंट्स, इंडियन आर्मी, प्रमुख समाजसेवी, वैज्ञानिक, भारतीय धरोहर, भारतीय संस्कृति, प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, अंतरराष्ट्रीय समाज सुधारक, कलाकार, खेल और खिलाड़ी एवं ऋषि-मुनियों के 1500 से भी ज्यादा टिकटों का संग्रह है. 

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डॉ. सिन्हा द्वारा संग्रहित डाक टिकटें 

प्रो. विजय कुमार सिन्हा ने डाक टिकटों एक एल्बम बनाया है जिसमें विषयवार सभी टिकटों को सजाया गया है. भारत के राष्ट्रपति पर जारी लगभग सभी डाक टिकटों का संग्रह उनके पास मौजूद है. चित्तौड़गढ़ के विजय-स्तम्भ को दर्शाती एक आने की दुर्लभ डाक टिकट, छपरा के स्वतंत्रत सेनानी मजहरूल हक़, महाराजा रणजीत सिंह, पं. दीनदयाल उपाध्याय, अब्राहम लिंकन, मैडम क्यूरी, मुंशी प्रेमचंद और माखनलाल चतुर्वेदी पर जारी डाक टिकट उनके कुछ खास संग्रह हैं. इसके अलावा प्रो. सिन्हा के पास फर्स्ट डे कैंसिलेशन एवं स्पेशल ब्रोशर मोहर की डाक टिकटें भी मौजूद हैं.

प्रो. सिन्हा कुछ स्तरीय डाक टिकट प्रदर्शनियों में भी सम्मिलित हो चुके है. जहां उन्हें इस टिकट संग्रह के लिए सम्मानित भी किया जा चूका है. 

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प्रो. सिन्हा के अनुसार “डाक टिकट भारत के अलावा अन्य देशों की सभ्यता और संस्कृति को जानने और समझने का एक महत्वपूर्ण जरिया है. युवा पीढ़ी को आज के इंटरनेट की रफ़्तार के बीच डाक टिकटों के महत्व को भी समझना चाहिए”. 

छपरा टुडे के हिमांशु से बातचीत करते डॉ. सिन्हा
छपरा टुडे के हिमांशु से बातचीत करते डॉ. सिन्हा

 

आज के दौर में डाक टिकटों का प्रचलन जरूर कम हो गया है पर पुराने समय में एक दूसरे के सन्देश को पत्र के माध्यम से पहुँचाने का एक मात्र जरिया डाक सेवा और डाक टिकटों की याद आज भी कई लोगों के दिलों में ताजा है.

 

 

 

प्रभात किरण हिमांशु के साथ छपरा टुडे ब्यूरो, Photo: कबीर अहमद   

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‘अगर दिल से मेहनत की जाए तो एक ना दिन आपकी मेहनत का रंग निखर कर ज़रूर आता है’, ये कहना है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘मसान’ जैसी मशहूर फिल्म में अपनी अदाकारी का जलवा दिखा चुके बॉलीवुड अभिनेता सत्यकाम आनंद का.

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फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का एक दृश्य’

सत्यकाम ने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में विधायक जेपी सिंह के किरदार में अपनी अभिनय का लोहा मनवाया है. इसके अलावा इन्होंने नीरज घेवन की फिल्म ‘मसान’ और अनुराग कश्यप की ‘शॉर्ट्स’ कई टीवी सीरियलों में भी सशक्त भूमिका निभाई है. 

भोजपुर (आरा) के रहने वाले सत्यकाम आनंद ने काफी मेहनत से बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाई है. छपरा टुडे ने सत्यकाम आनंद से खास बातचीत की और उनके संघर्ष की कहानी और भविष्य की योजनाओं के बारे में जानने की कोशिश की.

छपरा टुडे: आपने अपने हुनर के दम पर बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. आरा जैसे छोटे से शहर से मुंबई तक का सफर कैसा रहा है?

सत्यकाम: ये संघर्ष काफी लंबा रहा. आरा से निकलकर बॉलीवुड में पहचान मिलने में करीब 16 17 साल लग गए. इस बीच मैंने कई उतार चढ़ाव भी देखे. शुरुआती दिनों में दिल्ली में रहा. वहां कई थिएटर का हिस्सा बना. फिर धीरे धीरे मुंबई की ओर चला आया.

छपरा टुडे: आपको ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से एक सशक्त अभिनेता के तौर पर पहचान मिली है. विधायक जेपी सिंह के रोल को निभाना कितना मुश्किल रहा?

सत्यकाम: विधायक जेपी सिंह जैसे दमदार रोल को निभाने का सारा श्रेय मैं  अपने डायरेक्टर अनुराग कश्यप सर को दूंगा. अनुराग सर ऐसे डायरेक्टर हैं जो हर कैरेक्टर में एक अलग जान फूंक सकते हैं. अनुराग सर ने इस रोल को निभाने में मेरी काफी मदद की. अनुराग सर अपने फिल्म के हर एक कैरेक्टर पर इतनी मेहनत करते हैं कि उसका नतीजा हमेशा ही अच्छा ही होता है. 

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छपरा टुडे: ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का मशहूर डायलग ‘बेटा तुमसे ना हो पाएगा’ काफी मशहूर हो गया है. ये डायलग आप पर ही फिल्माया गया है जब आपके पिता का रोल निभा रहे तिग्मांशु धूलिया आपसे ये बात कहते हैं. तब आपने कभी सोचा था कि ये डायलग इतना मशहूर हो जाएगा?

सत्यकाम: सच मानिए तो बिल्कुल नहीं. ये सबकुछ अचानक हुआ था. हम शूटिंग कर रहे थे और स्क्रिप्ट के मुताबिक डायलग बोले जा रहे थे. इस सीन को तिग्मांशु सर ने अपने अभिनय के दम पर मज़बूत बनाया था. इस डायलग के खत्म होते ही जैसे अनुराग सर ने कट बोला सब लोग हंस हंस लोटपोट हो रहे थे.

छपरा टुडे: अपनी शुरुआती दिनों में जब आप आरा में थे तब आप अपने अभिनय के शौक को कैसे पूरा करते थे?

सत्यकाम: मेरा झुकाव फिल्मों के प्रति शुरू से रहा है. आरा में घर से 20 मिनट की दूरी पर ही एक सिनेमा हॉल हुआ करता था. जब मन करता था हम वहां पहुंच जाते थे. साथ ही साथ मैं वहां भी थिएटर से जुड़ा रहा और छोटे-मोटे रोल करते रहा.

छपरा टुडे: आप के छोटे शहर के मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं. आपके पिता एक स्कूल टीचर हैं. ऐसे में अपने आपको अपने परिवार को ये समझाना कितना मुश्किल रहा कि आप एक एक्टर बनना चाहते हैं?

सत्मकाम: मेरे लिए ये काफी मुश्किलों से भरा वक्त था. एक छोटे शहर से होने के नाते वहां कला और एक्टिंग को लेकर उतनी जागरुकता नहीं थी. लेकिन, मैं हमेशा शहर के रंगमंच से जुड़ा रहा और स्थानीय थिएटर के साथ मिलकर कई काम किए. धीरे धीरे एक्टिंग की ओर मेरा रुझान बढ़ता गया और फिर मैं दिल्ली के लिए निकल पड़ा.

छपरा टुडे: दिल्ली में आने के बाद जिंदगी कितनी बदली? 

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फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का एक दृश्य’

 

सत्यकाम: दिल्ली में आने के बाद भी संघर्ष जारी रहा. हां, इस दौरान कई अच्छे थिएटर आर्टिस्ट और रंगमंच से जुड़े लोगों से मिलना हुआ. इस दौरान नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से जुड़े कई लोगों के संपर्क में आया. दिल्ली में इस दौरान मैंने कई थिएटर किए और अपनी अभिनय की कला को तराशने का मौका मिला. 

छपरा टुडे: अनुराग कश्यप और नीरज घेवन जैसे निर्देशक और मनोज वाजपेयी, तिग्मांशु धूलिया, नवाज़ुद्दीन सिद्दकी और संजय मिश्र जैसे बेहतरीन कलाकारों के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

सत्यकाम: ये सारे नाम अपने अपने क्षेत्र के बड़े नाम हैं. अनुराग सर एक बेहद ही क्रिएटिव डायरेक्टर हैं जो अपने कलाकारों पर काफी विश्वास करते हैं और उन्हें अपने काम में निखार लाने की पूरी आज़ादी देते हैं. मनोज सर, तिग्मांशु सर, नवाजुद्दीन जी के साथ काम कर के काफी कुछ सीखने को मिलता है. निश्चित तौर पर इनके साथ काम करके मेरी एक्टिंग में काफी सुधार हुआ है.

छपरा टुडे: फिलहाल किन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं?

सत्यकाम: मेरी फिल्म ‘मिसेज स्कूटर’ बन कर तैयार है जिसका निर्देशन शिलादित्य मौलिक ने किया है. लेकिन, किसी कारण से ये फिल्म अब तक रिलीज नहीं हो पाई है. इसके अलावा भी कई अनाम प्रोजेक्ट्स हैं जिनपर काम चल रहा है और बहुत जल्द वो पर्दे पर नज़र आ जाएंगे.

छपरा टुडे: आपने ‘AMBA’ नाम से एक संस्था बनाई है. इसके बारे में कुछ बताइए.

सत्यकाम: ‘AMBA’ का पूरा नाम दरअसल ‘अश्लीलता मुक्त भोजपुरी एसोसिएशन’ है. ऐसा देखा गया है कि भोजपुरी में बनने वाली  फिल्म को ज्यादातर लोग अच्छा नहीं मानते. इन दिनों अश्लीलता और फूहड़पन भोजपूरी फिल्मों की पहचान बन गई है. भोजपुरी फिल्मों के गिरते स्तर की वजह से भोजपुरी के सम्मान को ठेस पहुंच रही है.

मैं कुछ लोगों के साथ मिलकर इसके खिलाफ एक मुहिम चला रहा हूं और भोजपूरी के सम्मान को वापस दिलाने की कोशिश कर रहा हूं. इस संस्था की कोशिश ये है कि भोजपूरी फिल्मों और गानों को जल्द से जल्द अश्लीलता से मुक्त कराया जाए ताकि भोजपुरी और भोजपुरी फिल्मों को बराबर का सम्मान मिल सके. 

फिल्म शॉर्ट्स में अभिनेत्री हम कुरैशी के साथ सत्र्काम आनंद
फिल्म शॉर्ट्स में अभिनेत्री हम कुरैशी के साथ सत्यकाम आनंद

 

छपरा टुडे: आपके इस मुहिम और अब तक के संघर्ष की कहानी सुनकर निश्चित ही आज की युवा पीढ़ी को एक सीख मिलेगी और उन्हें काफी कुछ सीखने को मिलेगा. छपरा टुडे से बात करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. छपरा टुडे आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता है.

सत्यकाम: छपरा भी भोजपुर और भोजपुरी से उतना ही जुड़ा हुआ है. मैं छपरा के लोगों से भी अपील करता हूं कि भोजपुरी के सम्मान की इस लड़ाई में वो भी मेरा पूरा सहयोग करें. इसके लिए वो ‘AMBA’ के फेसबुक पेज से जुड़कर हमारी इस लड़ाई में भाग ले सकते हैं. छपरा टुडे को भी बहुत बहुत धन्यवाद.

 

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{संतोष कुमार ‘बंटी’}

केन्द्र की सत्ता में भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार ने दो वर्ष पूरे कर लिए हैं. इन दो वर्षों के अंतराल में कई उतार चढ़ाव के बाद भी अपने को स्थिर रखने में मोदी सरकार सफल रही है. आरोप प्रत्यारोप के बीच संसद से लेकर सड़क तक मोदी सरकार ने अपने सिपाहियों की बदौलत विपक्ष के वार का जबाव दिया. हालांकि इस बीच अपने कई बड़बोले सिपाहियों की हाजिर जबाबी के कारण सरकार को कटघरे में खड़ा होना पड़ा है. लेकिन विकासात्मक और देश हित के कार्यों की बदौलत लोगों को दिलों पर सरकार राज कर रही हैं.

मोदी सरकार अर्थव्यवस्था, उत्पाद, निर्यात और रोजगार जैसे जनसरोकार के मुद्दों के साथ आगे बढ़ रही है. अपनी विभिन्न योजनाओं के जरिए सरकार ने आम से लेकर खास लोगों के बीच अपनी जगह बना ली है. आम आदमी के लिये बनी जनधन योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, मुद्रा योजना, जीवन ज्योति बीमा योजना, सुरक्षा बीमा योजना और अटल पेशन योजना के जरिए समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति आज सीधे तौर पर बैकों से जुड़ा है. जिससे भ्रष्टाचार में कमी आने के साथ साथ उनके भविष्य की सुरक्षा भी हो रही है.

मेक इन इंडिया योजना सरकार की एक अनूठी पहल है. जिससे देश में ना सिर्फ रोजगार के नये अवसर प्राप्त हुए हैं बल्कि अर्थव्यवस्था की स्थिति में भी भारत काफी सुदृढ़ हुआ है. छोटे छोटे करोबारी को व्यापार के अवसर मिले हैं वहीं बड़ी कंपनियों के निवेश के अवसर सृजन हुए हैं. विदेशों के साथ बेहतर संबंध बनने से देश की सीमा, सुरक्षा, आयात और निर्यात जैसे कई मुद्दों पर हुई संधि से देश आगे बढ़ा है.

स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, के जरिए सरकार ने युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है. तकनीकी शिक्षा के साथ औद्योगिक शिक्षा में देश के युवा अपने भविष्य निर्माण के लिए स्टार्टअप इंडिया को एक बेहतर विकल्प के रूप में देख रहे है. डिजिटल इंडिया के साथ तेजी से बढ़ रहे ई-व्यापार इसका उदाहरण बन रहा है.

मोदी सरकार देश के विकास के लिए भले ही अपने योजनाओं के जरिए अग्रसर हो लेकिन पठानकोट हमला, रोहित बेमुला, जेएनयू विवाद, तथा असहिष्णुता और बीफ जैसे मुद्दे पर सरकार सीधे विपक्ष के निशाने पर रही है. सड़क से लेकर सदन तक सरकार को विरोध झेलना पड़ा. कालाधन, भ्रष्टाचार तथा महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार अब भी निशाने पर हैं. कालाधन वापसी को विपक्ष जहाँ चुनावी जुमला बता रहा है वही वित्त मंत्री नयी आयकर नीति का हवाला देकर कालाधन वापसी में एक कदम और बढाने की बात कहते हैं.

योजनाओं के आधार पर सरकार ने लोगों को अपनी तरफ आकर्षित जरूर किया है लेकिन मँहगाई इस कार्य में रोड़ा साबित हो रही है. बहरहाल सरकार के प्रति लोगों की एकाग्रता और कार्यों का प्रतिफल कुछ प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में जरूर दिख रहा. मगर असल तो 2019 में ही देखने को मिलेगा.

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(संतोष कुमार) आधुनिकता के इस दौर में जितनी तेजी से हम आगे बढ़ रहे हैं उतनी तेजी के साथ ही सोशल साईट्स के जरिए भ्रामक खबरें, भ्रातिया अफवाह एक से दो, दो से चार, चार से चार लाख यहां तक की चार करोड़ लोगों तक कुछ ही मिनटों में पहुंच जा रही हैं.

भले ही इन सोशल साईट्स के जरिए ज्ञानवर्धक बातों की जानकारी मिलती हैं लेकिन दिनो दिन इनका कुप्रभाव बढता ही जा रहा है. आज के दौर में जितनी तेजी से फेसबुक और व्हाट्सअप जैसी कई सोशल साईट्स ने लोगों के बीच अपनी जगह बनाई है. उतनी तेजी से यह खबरों को प्रसारित भी कर रही हैं. जिसका कुछ लोग गलत फायदा भी उठा रहे हैं.

जाति, धर्म, सम्प्रदाय, समुदाय, मंदिर, मस्जिद, नेता, अभिनेता के बीच चित्रण कला के माध्यम से लोगों के बीच द्वेष फैलाया जा रहा है कुछ अन्य तथ्यों, सूचनाओं और आकड़ो के आधार पर अच्छी बातों को गलत तथा गलत बातों को अच्छा साबित किया जा रहा है.

पाठक इस उधेड़बुन में पर कर अपने अंदर निहित जानकारी को लेकर असमंजस में पड़ जाते हैं. हालांकि इन साईट्सो पर प्रसारित होने वाली ज्ञानवर्धक बातें, आकड़े इसके ॠणात्मक पक्षों को दरकिनार कर देती हैं. जिससे इसकी उपयोगिता को पुनः बल मिलता हैं.

इसके बावजूद भी हमें जाँच परखकर ही इन्हें प्रयोग में लाने की आवश्यकता है.

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{कबीर अहमद} ‘माँ’ जिसने मुझे जन्म दिया. ‘माँ’ जिसने मुझे बोलना सिखाया. ‘माँ’ जिसने मुझे चलना सिखाया. ‘माँ’ ने हमें बचपन से ही बड़ों को आदर करना सिखाया है. 

एक माँ ही है जिसका दिया हुआ उपकार कोई उसे वापस ना कर पाया है और ना कर पायेगा. ‘माँ’ शब्द भले ही छोटा है लेकिन बिना इस शब्द के संसार सम्पूर्ण नही हो सकता. सम्पूर्ण संसार जिसमें सिमट जाता है, वो है माँ का आँचल. यह सच है. दुनिया में ये एकमात्र ऐसा रिश्ता है जिसमें स्वार्थ नहीं, धोखे की कोई संभावना नहीं बस प्यार और दुलार होता है. हर बच्चा माँ की गोद में ही ख़ुद को महफूज़ समझता है.

हर दिल की एक ही सदा होती है ‘इस दुनिया में सब मैले हैं, किस दुनिया से आई माँ’. इंसान सबसे ज्यादा हालातों से सीखता है पर माँ हमें उन हालातों से निपटना सिखाती है. हर दुःख को अपना दुःख समझती है हर दर्द को अपना समझती है. तभी तो हर हालातों में पर्वत जैसी खड़ी रहती है.

हर कदम पर माँ का आशीर्वाद जिनके साथ है वो बहुत खुशनसीब हैं.

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