बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई। आखिरी बार यह 1986 में तय किया गया था। हालांकि 1992 में थोड़े संशोधन किए गए थे। बदलती ज़रूरतों के अनुसार शिक्षा नीति में बदलाव की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी मगर अब तक 1986 में बनी नीति के अनुसार ही शिक्षा व्यवस्था का संचालित किया जा रहा था। यह शिक्षा नीति बदलते समय की कसौटी पर अनुपयोगी साबित हो रही थी जिसका लक्ष्य कुछ इंजिनियर,डॉक्टर, ऑफिसर, और कर्मचारी तैयार करना भर था। 2014 की चुनावी रैलियों में बीजेपी ने देश की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा नीति में बदलाव की जरूरत का मुद्दा बनाया था। बीजेपी की सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने 2016 से ही नई शिक्षा नीति लाने की तैयारियां शुरू कर दी थी और इसके लिए टी एस आर सुब्रह्मण्यम कमेटी का गठन भी हुए था लेकिन सरकार को वह पसंद नहीं आया था।
इसके बाद सरकार ने वरिष्ठ शिक्षाविद, चांसलर और इसरो के पूर्व अध्यक्ष कस्तूरी रंगण की अध्यक्षता में एक नौ सदस्य वाली कमेटी का गठन किया गया। व्यापक मंथन और हजारों सुझावों को समेट कर बनी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की अपने ढंग से समीक्षा हो रही है। विद्वान और शिक्षाविद इसकी विशेषताओं और कमियों की बात कर रहे हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि इस नीति की संकुचित दृष्टि से नहीं देखा जा रहा है।
सरकार द्वारा यह कहा जा रहा है कि यह नीति 21वीं सदी में नए भारत के निर्माण का आधार स्तम्भ है। नई शिक्षा नीति को भविष्य की नीति के तौर पर सरकार द्वारा प्रसारित किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति ने कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जिसकी प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी। ऐसे प्रावधानों की सूची में सबसे ऊपर आता है ” separation of functions या separation of powers”।
देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से एक व्यक्ति अथवा विभाग केंद्रित व्यवस्था है। इसमें सरकार ( शिक्षा विभाग ) ही विद्यालय को वित्त प्रदान करती है। ऐसा होना किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिए हानिकारक है। इस व्यवस्था में पक्षपात अवश्यंभावी हो जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में इसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ऐसे तमाम नियम और कानून है जो निजी स्कूलों के प्रति कड़ा रुख अपनाते हैं जबकि सरकारी स्कूलों के प्रति उनका रवैया सहयोगात्मक रहता है। नई शिक्षा नीति में नियामक ( regulator ) और सेवा प्रदाता ( service provider ) के इस घाल मेल को दूर करने का प्रयास करते हुए उन्हें अलग अलग करने की बात की गई है। इसके लिए status school standard authority (SSAAS) बनाने का प्रावधान किया गया है।
नई नीति का दूसरा ज़रूरी बात है उसकी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने की बात। छात्रों के विद्यालय में दाखिल होने की दर 98% के वैश्विक स्वीकृत मानकों के आस पास ही है लेकिन National achievement survey और अन्य सर्वेक्षण की पुष्टि करते है कि 8 वीं कक्षा का छात्र तीसरी कक्षा के स्तर के गणित के प्रश्नों के हल करने में सक्षम नहीं है। पांचवी कक्षा का छात्र तीसरी कक्षा की हिंदी को पढ़ने में सक्षम नहीं है। देर से ही सही सरकार ने कक्षाओं के आधार पर सीखने के स्तर को निर्धारित करने का फैसला किया है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि कोई भी देश अपनी शिक्षा व्यवस्था के अनुरूप अपने राष्ट्रीय मूल्यों के साथ अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है और भविष्य का निर्माण करता है। देश की नई शिक्षा नीति में इस तथ्य पर खास तौर पर गंभीरता के साथ ध्यान दिया गया है। इसी को ध्यान में रखकर प्रधान मंत्री ने कहा था कि बदलते समय देश में ऐसे युवा तैयार होंगे जो राष्ट्र निर्माण में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा पाएंगे।
नई शिक्षा नीति में भाषा, सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों को समुचित महत्व मिला है। सरकार का दावा है कि नई शिक्षा नीति बहुमुखी व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली है। नई नीति का स्वरूप भारतीय है। इसमें भारतीय ज्ञान के साथ साथ भारतीय आवश्यकताओं और विद्यार्थियों की कौशल ( skill ) विकसित करेगी। देश के अंदर आत्मनिर्भर और शसक्त भारत बनाने की बात हो रही है। ऐसे समय में यह नई शिक्षा नीति कारगर सिद्ध होगी। भारतीयों भाषाओं को महत्व देना महत्वपूर्ण निर्णय है। स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों को कम करके सामान्य ज्ञान पर अधिक जोर दिया गया है।
नई शिक्षा नीति learning output के साथ सम्पूर्ण विकास की बात करती है। childhood care education को लेकर भारत सरकार की प्राथमिकता शिक्षा की बुनियादी बदलाव को शसक्त बनाने की है। छठी कक्षा से ही vocational skill को पकड़ने का प्रावधान असल में उस बड़े लक्ष्य को पकड़ने के लिए है जिसके जरिए चीन और दक्षिण कोरिया जैसे मुल्कों ने दुनिया में अपनी आर्थिक हैसियत को कम समय में हासिल किया है। भारत की नई नीति चीन और कोरियाई मॉडल की तरह ही कौशल उन्नयन को सुनिश्चित करती है। नई नीति शिक्षा को मातृ भाषा और प्रादेशिक भाषाओं में देने की वकालत करती है। मौजूदा नीति केवल रटने वाली है और परीक्षा पास करने की अनुसरण करती है जबकि नई नीति जिज्ञासा केंद्रित होगी।
लेकिन ऐसा नहीं है सभी इससे खुश है। कई बिंदुओं को लेकर इसका विरोध हो रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि भारत का शिक्षा जगत निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा जबकि भारत सरकार सम्मिलित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में जी डी पी का 6% खर्च करने की बात कर रही है। लोगों का आरोप है 12वीं के बाद हुनरमंद बच्चों के स्थानीय स्तर पर नियोजन को लेकर है।दावा किया जा रहा है कि गरीब और वंचित तबके के बच्चे दिहाड़ी मजदूर में झोंक दिए जाएंगे। नई नीति में आरक्षण को लेकर भी सवाल किए जा रहे हैं।
मातृ भाषा के संबंध में कई लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या जब बच्चा प्राथमिक कक्षाओं को पास करके आगे बढ़ेगा और उन्हें आगे की कक्षाओं में हिंदी और अंग्रेज़ी माध्यम में विषयों को पढ़ाया जाने लगेगा वे उसे सही ढंग से समझ पाएंगे या उच्च कक्षाओं में वे अंग्रेज़ी माध्यम के क्षात्रों से प्रतियोगिता कर पाएंगे ? इसके अलावा एक सवाल यह भी उठता है कि क्या स्थानीय या मातृ भाषा माध्यम में पर्याप्त और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षण सामग्री उपलब्ध होंगे। कुछ छात्रों का मानना है कि सरकार मौजूदा नीति को खत्म कर अमेरिकी शिक्षा पद्धति की तरफ बढ़ रही है जहां पर शिक्षा एक और व्यवसाय है।
शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने का फॉर्मूला क्या होगा ? अध्यापकों की अनुपस्थिति कैसे सुनिश्चित कराई जा सकेगी। छात्रों की पसंद के स्कूलों में पढ़ने की इच्छा का सम्मान कब होगा ? महंगे निजी विद्यालयों की समस्या का समाधान कैसे और कब होगा। ऐसे कई प्रश्न अभी अनुत्तरित है जिसका जवाब सरकार को तलाशना होगा।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लोगों के अपेक्षा के अनुरूप है या जुमला है, ये आने वाला समय बताएगा।
लेखक प्रशांत सिन्हा | यह लेखक के निजी विचार हैं.
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