खामोश हुई शहनाईः 21 अगस्त 2006 को भारत के मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां का इंतकाल हो गया। अपने प्रिय शहर बनारस में जब उन्हें सिपुर्द-ए-खाक किया गया तो उनके साथ उनकी एक शहनाई भी दफनाई गयी। इसके साथ ही बनारस में गंगा के घाटों पर उमड़ने वाला सुरों का सैलाब, बस यादों में बसकर रह गया।

भारत रत्न सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित और प्रशंसकों के बीच बेइंतहा पसंद किये जाने वाले बिस्मिल्ला खां का जन्म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को हुआ था। हालांकि बनारस पूरी जिंदगी उनकी शख्सियत का अहम हिस्सा रहा।

कहते हैं कि एकबार बिस्मिल्ला खां को अमेरिका से बुलावा आया कि वे वहीं आकर बस जाएं लेकिन उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने इस पेशकश को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यहां गंगा, काशी और बालाजी का मंदिर है। यहां से जाने का मतलब इन सबसे बिछुड़ना होगा। एकबार तो उन्होंने यहां तक कहा था कि जब भी उन्हें कहीं शहनाई बजानी होती है, तो वे अपनी शहनाई को बाबा विश्वनाथ के मंदिर की दिशा में रखते हैं।

उन्होंने लाल किले से लेकर ब्रिटेन की महारानी के दरबार में शहनाई बजाई लेकिन इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की उनकी हसरत अधूरी रह गयी। वे अपनी शहनाई के जरिये देश के वीर शहीदों को श्रद्धांजलि देना चाहते थे।

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(प्रशांत सिन्हा) हम अक्सर शिकायत करते हैं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी हमें देश ने कुछ नही दिया। यदि सभी लोग याचना छोड़कर देश के प्रति अपने कर्त्तव्य निभाएं तो देश की उन्नति को कोई नहीं रोक सकता।
अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जे एफ कैनेडी ने कहा था ” यह मत सोचो कि देश आपको क्या दिया है बल्कि यह सोचो कि आपने देश को क्या दिया है “। बात नारों की नही है बल्कि विचारो की है। विचार यह है को क्या मैं देश के सामने याचक बन कर आता हूं या देश के लिए कुछ करने की इच्छा करने की इच्छा से जीता हूं?

आमतौर पर हम देश से अपेक्षाएं रखते है, स्वतंत्रता से अपेक्षाएं रखते है लेकिन खुद से कोई अपेक्षा नहीं रखते। यह जानते हुए भी की हमसे ही बनता है देश। हम भारत के लोग अधिकारों को लेकर बहुत सर्तक सजग और चौकस है । संविधान प्रद्दत मौलिक अधिकारो की बात आते ही हमारा लहजा शिकायती हो जाता है ।सही मूंह और मूड को बुरा सा बनाकर सरकारों और संवैधानिक,संस्थाओं पर तोहमत लगाने लगते है । हमें यह नहीं मिल रहा है हमें वह हासिल नहीं है। हमें उसकी आज़ादी चाहिए हमें इसकी आज़ादी चाहिए।

जिस संविधान ने हमे मौलिक अधिकारों को उपहार के रूप में नवाजा है। उसी ने कर्तव्यों के दायित्व बोध की टोकरी का बोझ भी सर पर लाद दिया है। कर्तव्यों की बात आते ही औसत भारतीय किंकर्तव्य विमुढ हो जाते हैं,बगले झांकने लगते हैं या कोई कुतर्क करने लगते हैं। यदि हम उन लोगों की बात को सही भी मान लें की देश गर्त में जा रहा है, तो क्या उसके जिम्मेदार हम नही हैं ? हम देश के लिए कुछ नही करते, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक समृद्धि में कोई योगदान नहीं करते पर देश से अपेक्षा करते रहते हैं की वह हमारे लिए कुछ करे। सिर्फ टैक्स दे कर हम यह समझने लगते हैं कि हमने अपना कर्त्तव्य कर लिया जो गलत है। हमसे ही देश बनता है। हमारे कार्यों से ही वह प्रगति के रास्ते पर जाएगा।

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमलोगों में देश के प्रति देशभक्ति उजागर होने लगती है। रेडियो, टीवी में देशभक्ति के गाने हमे कुछ समय के लिए अपने कर्तव्यों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कुछ समय बाद हमारा मन भी और चीजों में उलझ जाता है। परिवार, समाज और ईश्वर तक तो ये बात हमे शायद समझ में आ जाय, परंतु जब देश की बात होती है तो हम सब लोगो में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का विचार आ जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं तो एक एक पैसा संभाल के खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया तो अनाप शनाप खर्च करने लगते हैं। आम तौर पर लोग कहते हैं की “सब चोरी करते हैं तो हम क्यों न करें ? ” यह तो वही बात हो गई की सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम क्यों न कूदें ?

देशभक्ति का भाव किसी अवसर को मोहताज नहीं होता, वह हमारे भीतर का स्थाई भाव होना चाहिए। देशभक्ति का मतलब देश से अपेक्षा करना नही, बल्कि देश के लिए कुछ करने की प्रवृति पैदा होना है।

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आर.के. सिन्हा

टोक्यो ओलंपिक खेलों के श्रीगणेश से पहले किसी भारतीय ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि भारत की पुरुष और महिला हॉकी टीमें ओलंपिक में ऐसा चमत्कारी प्रदर्शन करेंगी। इन दोनों टीमों ने अपने शानदार खेले से सारी दुनिया का ध्यान खींचा। इस सबके बीच महिला टीम की स्टार फॉरवर्ड खिलाड़ी वंदना कटारिया के हरिद्वार के पास रोशनबाद स्थित घर में कुछ गटर छाप मानसिकता के लोगों ने उनकी जाति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर सारे माहौल को विषाक्त कर दिया। इस विवाद के कारण हॉकी टीमों की कामयाबी को नेपथ्य में धकेलने की कोशिशें भी हुई।

भारत में इस शर्मनाक घटना से पहले कभी किसी ने खिलाड़ियों की जाति को लेकर कोई छिछोरी टिप्पणी नहीं की थी । खेलों का संसार तो इस तरह का है जहां जाति, लिंग, धर्म आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। दर्शक और खेलप्रेमी उस खिलाड़ी को ही पसंद करते हैं जो लगातार बेहतर खेलता है। उसके प्रदर्शन से देश का नाम बुलंद होता ही है। क्या किसी हिन्दुस्तानी को दादा ध्यानचंद की जाति की जानकारी है ? यदि हो भी तो कोई चर्चा करता है क्या ? क्यों देश टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस को पसंद करता है ? किसने सुनील गावस्कर या सचिन तेंदुलकर की जाति जानने की चेष्टा की ? किसी ने भी तो नहीं। फिर इसबार वंदना और कुछ अन्य खिलाड़ियों की जाति को लेकर क्यों विवाद खड़ा किया जा रहा है ? यह बड़ा सवाल है।

भारत की हॉकी टीम से कुछ साल पहले वाल्मिकी समाज का युवक युवराज वाल्मिकी खेल रहा था। हॉकी के मैदान में सफल होने के लिए जरूरी लय, ताल और गति उसके पास थी। वह कई सालों तक भारत की टीम का स्थायी सदस्य था। परंतु कभी किसी ने उसकी जाति को लेकर सवाल तो नहीं किए। पाकिस्तान के पूर्व टेस्ट क्रिकेटर युसुफ योहन्ना, जो बाद में धर्म परिवर्तन करके मोहम्मद युनुस बन गए थे, उनका संबंध भी मूल रूप से एक वाल्मिकी परिवार से ही है। हिन्दू धर्म बदलकर ईसाई बनने के बाद भी उनका परिवार लाहौर में सफाईकर्मी के रूप में ही काम करता रहा। योहन्ना से युसूफ बने इतने बेहतरीन खिलाड़ी को कभी पाकिस्तान टीम का कप्तान इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि वे वाल्मिकी परिवार से थे। तो यह हाल रहा जात-पात का इस्लाम को मानने वाले पाकिस्तान में।

लेकिन, भारत में कभी किसी को किसी खास जाति से संबंध रखने के कारण कोई पद न मिला हो, यह मुमकिन नहीं है। अगर किसी शख्स में किसी पद को हासिल करने की मेरिट है तो वह पद उसे मिलेगा ही। यहां पर इस बात से कोई इनकार नहीं कर रहा है कि हमारे समाज में जाति का कोढ़ अभी भी जिंदा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि देश और समाज जाति के आधार पर ही चलता है। तो फिर वही सवाल है कि वंदना कटारिया पर नीच टिप्पणियां करने वालों की मंशा क्या थी। सारे मामले की जांच शुरू हो गई है। अब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। यह सच है कि देश के छोटे शहरों में कथित निचली जाति से संबंध रखने वाले लोगों को कुछ दबंग किस्म के लोग प्रताड़ित करते रहते हैं। हालांकि इस तरह के मामले पहले से बहुत कम भी हुए हैं, पर ऐसी घटनाएँ हो तो रही हैं, यह भी सच है।

जाति का असर महानगरों और बड़े शहरों में घट रहा है, यह भी सच है। अगर ऐसा नहीं होता तो युवराज वाल्मिकी या वंदना कटारिया जैसे नौजवानों के लिए भारत हॉकी टीम में जगह बनाना संभव नहीं था।

कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दू समाज के सामाजिक पिरामिड में वाल्मिकी समाज सबसे निचले पायदान पर है। अपने घर के आसपास की किसी भी वाल्मिकी बस्ती में जाएं तो आपको मालूम चल जाएगा कि यह समाज कितनी विषम परिस्थितियों में जीने के लिए मजबूर है। ये अब भी प्राय: मैला उठाने से लेकर कचरे की सफाई के काम से ही जुड़े हैं। यह इतना महत्वपूर्ण काम भी मेहनत और तन्मयता से करते हैं, वह देखकर मन में सम्मान के भाव के अतिरिक्त कुछ नहीं आ सकता। अगर आप राजधानी में रह रहे हैं तो अंबेडकर स्टेडियम के पीछे बसी वाल्मिकी बस्ती में जाकर देख लें कि भले ही देश आगे बढ़ रहा हो पर इधर रहने वालों की जिंदगी पहले की तरह संघर्षों भरी है। ये न्यूनतम नागरिक सुविधाओं के अभाव में ही रह रहे हैं। पर दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में इन्हें जाति के कारण अपमानित तो नहीं होना पड़ता है न ? मूलत: उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से मुम्बई में जाकर बस गए परिवार से संबंध रखने वाले युवराज वाल्मिकी की कहानी उन तमाम वाल्मिकी परिवार के नौजवानों की कहानी से मिलती-जुलती ही है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता दर्ज की।

बहरहाल, कभी-कभी मन बहुत उदास हो जाता है कि हमारे यहां कुछ विक्षिप्त तत्व पूर्वोत्तर के नागरिकों से लेकर अफ्रीकी नागरिकों पर भी बेशर्मी से टिप्पणियां करते हैं। इन्हें अपने घटिया आचरण पर शर्म भी नहीं आती। ये लोग पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों को चीनी या जापानी कह देते हैं। जरा सोचें कि जिन्हें चीनी या जापानी कहा जा रहा है, उनके दिल पर क्या गुजरती होगी। इस तरह के तत्वों पर भी कड़ा एक्शन होना चाहिए। जरा यह भी सोचें कि जिनकी जाति को उछाला जाता है, उन्हें कितना मानसिक कष्ट होता होगा। जिस वंदना कटारिया ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ लगातार तीन गोल करके कीर्तिमान बनाया, उसके साथ कितना भयंकर अन्याय हो रहा है। जिन लोगों ने वंदना कटारिया के घर के बाहर जाकर अराजकता की और जातिसूचक टिप्पणियां कीं उन सबके खिलाफ पुलिस ने मुकदमा तो दर्ज किया है। दो आरोपियों विजयपाल और अंकुरपाल को गिरफ्तार भी कर लिया गया है।

देखिए, अब इस देश में नस्लीय टिप्पणियों को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जाएगा। जो भी शख्स इन हरकतों में लिप्त पाया जाएगा उसे कठोर दंड हर हाल में मिलना चाहिए। यह सुखद स्थिति नहीं है कि जब देश कुछ दिनों बाद अपनी आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारियां कर रहा है तब भी हमारे यहां जाति के कोढ़ का स्याह चेहरा दिखाई दे जाता है। किसी भी सभ्य समाज में जाति के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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उपन्यास और कहानियों की विशिष्ट परंपरा विकसित कर कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनके लेखन ने हिंदी साहित्य को नया अर्थ और आयाम दिया। इन्हीं विशिष्टताओं की वजह से उनका साहित्य ऐसा दस्तावेज है, जिसके बिना हिंदी साहित्य की विकास यात्रा को लेकर किया गया हर अध्ययन अधूरा है। 1918-1936 का कालखंड प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है।

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में हुआ। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। शुरू में एक लंबे समय तक वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लेखन करते थे। 1909 में कहानी संग्रह सोज़े वतन की प्रतियां ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली तो उर्दू अखबार ज़माना के संपादक मुंशी दया नारायण निगम ने ब्रिटिश सरकार के कोप से बचने के लिए उन्हें प्रेमचंद नाम सुझाया। यह उन्हें ऐसा पसंद आया कि वे आजीवन इसी नाम से लेखन करते रहे। मशहूर उपन्यासकार शरदचंद्र चटोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट का नाम दिया था। हिंदी और उर्दू में समान रूप से लोकप्रिय रहे उपन्यासकार, कहानीकार और सम्पादक प्रेमचंद ने साहित्य के जरिये अपने समय पर प्रतिरोध के स्वर और सामाजिक चेतना की छाप छोड़ी।

प्रेमचंद के साहित्य का केंद्रीय बिंदु आमजन और उससे जुड़ा पक्ष है। फंतासी की दुनिया से निकलकर प्रेमचंद का साहित्य यथार्थवाद की धरातल पर गरीबी, छूआछूत, जातिभेद, दहेज प्रथा, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार जैसे जरूरी सवालों से जूझता है। नेपथ्य में स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सुधार आंदोलनों की अनुगूंज भी है।

उनकी साहित्यिक कृतियों में गोदान, गबन, रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवासदन जैसे लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास हैं। कफन, पंच परमेश्वर, पूस की रात, बड़े घर की बेटी आदि तीन सौ से अधिक कहानियां हैं। उन्होंने नाटक और निबंध भी बड़ी संख्या में लिखे। उन्होंने हिंदी साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन व प्रकाशन किया। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम उपन्यास और मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।

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(प्रशांत सिन्हा)

जब कोविड 19 ने दुनिया भर मे तहलका मचाना शुरू किया तो इटली में फ्रांसेस्का डोमिनिकी को संदेह था कि वायु प्रदूषण से मरने वालो की संख्या बढ़ी है। प्रदूषित स्थानों मे रहने वाले लोगों को पुरानी बीमारियां होने की संभावना अधिक होती है और ऐसी रोगी कोविड_19 के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील रहे।

इसके अलावा वायु प्रदूषण प्रतिरक्षता प्रणाली को कमज़ोर करता है और वायु मार्ग को उत्तेजित करता है जिससे शरीर श्वसन वायरस से लड़ने मे कम सक्षम होता है। हावर्ड विश्वविद्यालय ( published in Med Rxiv )ने भी एक अध्ययन के दौरान पाया कि जिन इलाकों में प्रदूषण ज्यादा था वहां पर करोना से मौतें ज्यादा हुई वहीं जहां प्रदूषण कम मात्रा मे था वहां पर संक्रमण भी कम फैला और मौतों का आंकड़ा भी कम रहा। आईआईसीएमआर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंप्लीमेंटेशन रिसर्च ऐंड नॉन कम्युनिकेबल डिजीज के निर्देशक डॉ अरुण शर्मा का कहना है कि अगर वायु प्रदूषण को कम करने के लिए समय रहते कदम उठा लिया होता तो करोना के भयावह रूप से बचा जा सकता था। वायु प्रदूषण नही होने से बैक्टिरियल, वायरल और फंगल बीमारियों से भी निजात मिल सकती है। जानकारी के मुताबिक शोधकर्ता ने अध्ययन में बताया है कि PM 2.5 कणों मे केवल 1Mg/m3 की बढ़त भी करोना वायरस के मरीजों के साथ जुड़ी हुई है, इसकी वजह से करोना वायरस की मृत्यु दर में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई । कोविड 19 मुख्य रूप से श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारी है। इस रोग से बचने के लिए किसी के भी पूरी तरह स्वस्थ होने की पहली शर्त है, लेकिन अगर आपका फेफड़ा स्वस्थ नही है तो यह महामारी खतरनाक साबित हो सकता था जैसा कि दुसरी लहर में दिखा।

वायु प्रदूषण जहर का काम कर रहा है जो धीरे धीरे मनुष्य के शरीर को क्षति पहुंचाता हुआ उम्र को कम करता जा रहा है। गंदी हवा गैसों और कणों का जटिल मिश्रण है। PM 2.5 कण जिनमे से कुछ इतने छोटे होते हैं कि वे रक्त प्रवाह मे चले जाते है जो बहुत घातक होते हैं। 2019 मे वायु प्रदूषण घर के अंदर और बाहर, दुनिया भर मे लगभग सात करोड़ मौतों मे यौगदान देने अनुमान है जो वैश्विक मृत्यु दर का लगभग 12 प्रतिशत है

इसका असर शरीर के विभिन्न प्रणाली को प्रभावित करता है। मे कण प्रदूषा असर डालता है। सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के लंबे समय तक सम्पर्क में रहने से संज्ञात्मक गिरावट हो सकती है। मस्तिस्क की संरचना मे परिवर्तन से अल्जाइमर रोग का खतरा बढ़ जाता है

तंत्रिका प्रणाली ( Nervous System ) : प्रदूषण न्यूरो डेवलपमेंटल विकारों और पार्किनसन्स से होने वाली मौतों से जुड़ा हुआ है। कण केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की यात्रा कर सकते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को सक्रिय कर सकते हैं।
‌हृदय प्रणाली ( Cardio Vescular System ) संसर्ग हृदय रोगों से मृत्यु के बढ़ते जोखिम से जुड़ा है जिसमें कोरोनरी धमनी रोग, दिल का दौरा, आघात और रक्त के थक्के शामिल हैं।

‌श्वसन प्रणाली ( Respiratory System ) प्रदूषण वायु मार्गों को परेशान कर सकता है और सांसों की तकलीफ, खांसी, अस्थमा और फेफड़ों के कैंसर का कारण बन सकता है। यह Chronic Obstructive Pulmonary Disease ( COPD ) में खतरे को बढ़ा सकता है।
‌अंतः स्त्रावि तंत्र ( Endicrine System ) कण प्रदूषण एक अंत स्त्रावी अवरोधक है जो मोटापा और मधुमेह जैसे रोग होते हैं। दोनों हृदय रोग के लिए जोखिम है। गुर्दे की प्रणाली ( Renal System ) लम्बे समय तक सूक्ष्म कणों में वायु प्रदूषण के संपर्क मे रहने से क्रॉनिक किडनी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। शहरी क्षेत्रों में गुर्दे की बीमारी की दर सबसे अधिक है।

‌प्रजनन प्रणाली ( Reproductive System ) प्रदुषण कम, प्रजनन क्षमता और असफल गर्भधारण से जुड़ा हुआ है। प्रसव पूर्व संसर्ग से समय से पहले जन्म, जन्म के समय वजन और सांस की बीमारियां हो सकती हैं।

‌प्रदूषण के कारण सांस की बीमारियां तेजी से बढ़ रही है। 1919 मेडिकल जर्नल लॉसेंट मे प्रकासित एक अध्ययन के मुताबिक़ तीन दशक में सांस की बीमारी Chronic Obstructive Pulmonary Disease से पीड़ित मरीजों की संख्या देश में करीब 4.2 % व 2.9% लोग अस्थमा से

पीड़ित हैं। इसका सबसे बड़ा कारण प्रदूषण को माना गया है। प्रदूषण के कारण कम उम्र के लोगों में भी फेफड़े का कैंसर देखा जा रहा है। जो लोग धुम्रपान नही करते वे भी फेफड़े के कैंसर का शिकार हो रहे हैं

इस प्रदूषण से जान का नुकसान ही नही हो रहा है। माल का भी नुकसान हो रहा है। देश भर में वायु प्रदूषण से अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ रहा है। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर और ग्रीन पीस द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल भारतीय अर्थव्यवस्था को 15000 करोड़ डॉलर

‌( 1.05 लाख करोड़ रुपए ) का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ रहा है। यदि सकल घरेलू उत्पाद के रूप मे देखे तो यह नुकसान कुल जीडीपी के 5.4 फ़ीसदी के बराबर है। इसके अलावा इस प्रदुषण से हुए बीमारी के कारण देश में हर साल 49 करोड़ काम के दिनों का नुकसान हो रहा है।
‌वायु प्रदूषण एवं पर्यावरण सम्बन्धित समास्याओं को समझने , विश्लेषण करने और समाधान के लिए सरकारों और जनता दोनों में जागरूकता की आवश्यकता है अन्यथा भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।

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(प्रशांत सिन्हा) 

भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्म, विष्णु एवं महेश के तुल्य कहा गया है। बल्कि कई लोगों ने इनसे भी अधिक महत्व दिया है। कबीर कहते हैं कि भगवान और गुरु दोनो साथ मिले तो पहले गुरु के चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए।परंतु गुरु ऐसा नहीं मानते। प्रथम स्तर पर गुरु बालक को शिक्षा देकर इस योग्य बनाता है कि वह अपने कर्म क्षेत्र में सफल हो सके। द्वितीय स्तर पर गुरु अपने शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार और विकारों को नष्ट कर प्रकाश की अनुभूति कराता है। यहाँ अंधकार से मेरा तात्पर्य अज्ञान और अविद्या से है तथा प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है।

 गुरु केवल व्यक्ति नहीं है बल्कि एक तत्व है और वह तत्व किसी भी अवस्था में या रूप में हो सकता है। व्यावहारिक भाषा में हम कह सकते हैं कि गुरु तब तक हैं जब तक कोई स्वार्थ या प्रलोभन न जुड़ा हो।

गुरु का वास्तविक अर्थ जीवन में गुरुता यानि उसे गहराई प्रदान करने वाले व्यक्ति से होता है। सच्चा गुरु वही है जो अपने शिष्य को जीवन में सच्ची राह पर चलने की प्रेरित करे। सभी शास्त्र  हमें शिक्षा देते हैं कि हमें एक गुरु की खोज करनी चाहिए। गुरु शब्द का अर्थ है भारी या जिसमें गुरुता हो।जिसको अधिक ज्ञान हो, वह ज्ञान से भारी हो। इसी विशेषता के आधार पर किसी को योग्य गुरु मानना चाहिए और किसी व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं सबकुछ जानता हूँ। मुझे कौन शिक्षा दे सकता है ?

प्राचीन काल में बालक को प्रारम्भ से ही गुरुकुल में भेजने की व्यवस्था थी। वहाँ उसे पढ़ाई के साथ तुच्छ सेवक के समान कार्य करना होता था। वह बालक महान राजा या ब्राह्मण का पुत्र क्यों न हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। जब तक वह गुरुकुल में रहता था वह तत्काल गुरु का नगण्य सेवक ही रहता था। यदि गुरु अपने शिष्य से छोटे से छोटे काम करने को कहते उसे करने लिए  शिष्य हमेशा तैयार रहते थे। महाभारत, रामायण में गुरुकुल एवं गुरु का विशेष उल्लेख किया गया है। भारतीय संस्कृति में गुरु – शिष्य के सम्बंध को अत्यंत पावन माना गया है। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु साक्षात परब्रह्म का स्वरूप है। इसलिए हमें ईश्वर से पहले गुरु की वंदना करनी चाहिए।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वर
          गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।

जीवन में प्रथम गुरु हमारे माता-पिता होते हैं। गुरु वही है जिसे देखकर मन प्रणाम करे जिसके समीप बैठने से हमारे दुर्गुण दूर होते हैं। गुरु के सान्निध्य से जीवन की दिशा और दशा दोनो बदल जाती है। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वाणी के द्वारा भारत की संस्कृति का परचम सम्पूर्ण विश्व में लहराने वाले स्वामी विवेकानंद को जब गुरु रामकृष्ण परमहंस का वरदहस्त मिला तब वह नरेंद्र नाथ से स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा, प्रेरणा और आशीर्वाद ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में प्रतिष्ठित किया। गोस्वामी तुलसीदास “ हनुमान चालीसा “ में हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि गुरुदेव की तरह मुझ पर कृपा करें “ जय जय हनुमान गोसाई, कृपा करो गुरुदेव की नाई “

गुरु शिष्य को अंगुली पकड़ कर नहीं चलाता बल्कि उसके मार्ग को प्रकाशित करता है। शिष्य को स्वयं ही उस मार्ग पर चलना होता है। सारे संसार में यह गुरुत्व प्राप्त है। वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन तथा प्रत्येक देश में प्राप्त होता है। केवल शिष्य को खोजी होना चाहिए। उसके अंतःकरन में वह ललक विद्यमान होनी चाहिए कि उसे गुरु मिले। बिना गुरु के संसार रूपी सागर से सम्भव नहीं चाहे वह ब्रह्मा हो अथवा शंकर ही क्यों न हो। श्री राम और श्री कृष्ण साक्षात ईश्वर ईश्वर माने गए हैं किंतु जब वे अवतार लेकर इस धरती पर आए तब वह भी गुरु का ही वरण करते हैं।

वास्तव में जिसके समक्ष जा कर हमारे हृदय में आस्था, विश्वास,तथा प्रेम का उदय हो जाए वस्तुतः वही हमारा गुरु है। वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट आती जा रही है। गुरु- शिष्य के पवित्र सम्बन्धों पर पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। समाज में आवश्यकता है ऐसे गुरुओं की जो दया, क्षमा, सदाचार इत्यादि मानवीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हुए धैर्य, विवेक और त्याग जैसे गुणों से शिष्य को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले चले।
सदगुरु की तलाश शिष्य को ही नहीं होती बल्कि गुरु भी अपने ज्ञान की धरोहर को सुरक्षित हाँथों में सौंपकर संतुष्ट होकर परमानंद की अनुभूति करता है। गुरु ऐसे शिष्य को मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनाकर उस बीज को अंकुरित करता है। इस प्रकार सच्चा गुरु शिष्य को सही मार्ग निर्देशित करके उसके जीवन मार्ग को प्रशस्त करता है।

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 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव में हुआ। पिता पंडित सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी के पुत्र चंद्रशेखर ने 1920-21 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार होकर जज के समक्ष प्रस्तुत किये जाने पर अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और जेल को निवास बताया।

चंद्रशेखर आजाद ने वचन दिया था कि ब्रिटिश पुलिस उन्हें कभी गिरफ्तार नहीं कर सकेगी, वे एक मुक्त व्यक्ति के रूप में मौत को गले लगाएंगे। उन्होंने 1925 में महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी कांड में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। काकोरी कांड के बाद चंद्रशेखर आजाद ने 1928 में क्रांतिकारियों के साथ मिलकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का दोबारा गठन किया। 1928 में ही चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक कार्यालय को घेर लिया और अंगरक्षकों के साथ निकले जेपी साण्डर्स को राजगुरु ने पहली गोली मारी और उसके बाद भगत सिंह ने कई गोलियां दागकर साण्डर्स को खत्म कर दिया। अंगरक्षकों ने जब इनका पीछा किया तो आजाद ने उन्हें भी गोली मार दी।

आजाद ब्रिटिश पुलिस के लिए भय का नाम बन चुके थे और पुलिस उन्हें हर हाल में पकड़ना चाहती थी- जिंदा या मुर्दा। 27 फरवरी 1931 को अपने साथियों के धोखे के कारण चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में पुलिस द्वारा घेर लिये गए। चंद्रशेखर आजाद ने अकेले ही इन पुलिसकर्मियों का बहादुरी से मुकाबला किया और तीन ब्रिटिश पुलिसकर्मियों को मार गिराया। पुलिस के घेरे से बच निकलने का जब कोई रास्ता नहीं बचा तो चंद्रशेखर आजाद ने स्वयं को गोली मार ली। उन्होंने ब्रिटिश पुलिस के हाथों कभी नहीं पकड़े जाने का अपना संकल्प पूरा किया।

 

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भूजल के दोहन के चलते उसका गिरता स्तर सरकार के लिए चिंता का विषय है । इसलिए गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिए जनता को जागरूक करना आवश्यक है। भूगर्भ जल श्रोतों के अत्याधिक दोहन, शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर चिंताजनक भुजल मे गिरावट, भुजल श्रोतों मे फ्लोराइड, आर्सेनिक, खारा पानी भारी धातुओं आदि का विषक्ता सीधे जन सामान्य को प्रभावित करती है।

भारत मे प्रति वर्ष औसतन 1130 mm वर्षा होती है। फिर भी पानी की कमी का खतरा मंडरा रहा है। कहीं पानी का व्यवसाय उसका कारण तो नही है। जलीय संसाधनों का जीवन के क्षेत्र जैसे आर्थिक विकास घरेलू जरुरत पीने का पानी , औद्योगिक जरूरतों के लिए , में अहम योगदान है। अतः जल का उपयोग, प्रयोग, प्रबंधन के साथ व्यवसाय को रोकना व ध्यान देना अति आवश्यक कदम हैं।

आज शहरी आबादी का आधिकांश वर्ग यहां तक की कस्बे व गांव तक के संपन्न लोग भी शुद्ध जल के नाम पर या तो बोतल बंद पानी का इस्तेमाल करने लगे हैं या शहरों से लेकर गांव तक मे जल शुद्धिकरण के व्यवसाय खुल गए हैं या फिर अनेक कंपनियों की तरह तरह की जल शुद्धिकरण की मशीनें घर घर लग चुकी है। यह बात और रहा है कि अनेक विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि जल शुद्धिकरण के नाम पर किए जाने वाले जल शोधन प्रसंस्करण में पानी मे प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले खनिज समाप्त हो जाते हैं। पूरे विश्व में जल व्यवसाय शायद सबसे बड़े व्यवसाय का रूप ले चुका है। हमे विभिन्न प्रचार माध्यमों के द्वारा यह समझाने की कोशिश की गई कि आमतौर पर प्रचलित कुएं , हैंड पम्प, व पाइप लाइन से मिलने वाला पेयजल प्रदूषित, जहरीला, एवं हड्डियों को कमज़ोर करता है।

इस तरह बड़े पैमाने पर इस प्रकार का दुष्प्रचार का धीरे धीरे जल विक्रेता कंपनियों ने अपने पैर पसारने शूरू कर दिए। देश की एक बड़ी आबादी आज भी उसी सामान्य व पूर्व प्रचलित जल का सेवन कर रही है जो सदियों व दशकों से करती आ रही है। न कही से जल पीने के कारण मौत की खबर आती है और न किसी बीमारी के फैलने की। सामान्य व पूर्व प्रचलित जल के विरुद्ध दुष्प्रचार ने शुद्ध जल के नाम पर जल व्यवयसाय का बड़ा साम्राज्य जरूर स्थापित कर लिया।

‌गोया शोधित जल को बाजार में उतारने से पूर्व नियमित उपयोग में आने वाले जल की विश्वनीयता के विरुद्ध एक योजनाबद्ध प्रचार का अभियान चला कर उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में यह बिठाने का सफल प्रयास किया गया कि सामान्य जल जहरीला व प्रदूषित है, इसे पीने से तरह तरह की बीमारियां लग सकती है और जान भी जा सकती है। इसके बाद विशाल शोधित, बंद बोतल व्यवसाय ने अपने पांव पसारे।

‌मेरे विचार से पृथ्वी पर सजीव तो सजीव बल्कि निर्जीवों का भी अस्तित्व जल के बिना अकल्पनीय होगा। बड़े बड़े शहरों में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों को पानी जैसे मूलभूत जरूरत को खरीदकर पूरा करना होता है तो ऐसी जगहों पर गरीबों का क्या ? भारत में जल की समस्या जटिल रूप लेती जा रही है। देश में जनसंख्या वृद्धि के कारण जल का उपयोग बढ़ रहा है परन्तु जल में संचय और रख रखाव की सुविधा का अभाव है।

पानी मानव का एक बुनियादी जरुरत है। पानी का अधिकार हर किसी को बराबर रूप से होना चाहिए। उसके लिए जहां पानी बहुतायत में है उसको संरक्षित करके दूसरी जगहों पर भेजा जा सकता है। अगर हर मानव यह मान ले कि सुरक्षित पानी की पहुंच हर प्राणी का अधिकार है तो वास्तव मे जल को बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा और पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है और ये केवल उन लोगों के लिए नहीं किया जा सकता जो इनके लिए भुगतान कर रहे हैं।

यह लेखक के निजी विचार है. 

 

 

 

लेखक

प्रशांत सिन्हा

पर्यावरणविद  व स्वतंत्र टिप्पणीकार है. 

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भारतीय जनसंघ के संस्थापक और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के मुखर विरोधी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी थी। कश्मीर से अनुच्छेद 370 और राज्य को विशेष दर्जा देने के प्रबल विरोधी रहे डॉ. मुखर्जी की इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयासों के दौरान मौत हुई। भाजपा इसे ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाती रही है।

06 जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। उससे पहले महज 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने और चार वर्षों बाद कलकत्ता विधानसभा पहुंचे। प्रखर राष्ट्रवादी डॉ. मुखर्जी ने नेहरू-लियाकत पैक्ट के विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था लेकिन अन्य कई मामलों को लेकर भी पंडित नेहरू से उनके गहरे मतभेद थे। इनमें भारत में कश्मीर की स्थिति का सवाल सबसे प्रमुख था। वे साफ मानते थे कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे। उनका मानना था कि कश्मीर में प्रवेश के लिए किसी भारतीय को अनुमति नहीं लेनी पड़े।

डॉ.मुखर्जी ने लगातार बढ़ते मतभेदों के बाद 1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। 21 अक्टूबर 1951 को उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। 1951-52 के पहले आम चुनाव में भारतीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए, जिनमें एक डॉ. मुखर्जी थे।

कश्मीर से सम्बंधित अनुच्छेद 370 हटाने के लिए डॉ. मुखर्जी ने जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन शुरू करने की योजना बनायी। 08 मई 1953 को बगैर जरूरी अनुमति लिए वे दिल्ली से कश्मीर के लिए चल पड़े। उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी, वैद्य गुरुदत्त, डॉ. बर्मन आदि सहयोगी भी थे। दो दिनों बाद 10 मई को जालंधर पहुंचकर उन्होंने साफ कर दिया कि बिना किसी अनुमति के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश हमारा अधिकार होना चाहिए। राज्य की सीमा में प्रवेश के साथ ही जम्मू-कश्मीर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 40 दिनों तक डॉ.मुखर्जी जेल में रहे। 22 जून को अचानक उनकी तबियत बिगड़ गयी और अस्पताल में 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

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नई दिल्ली: पतंजलि के योग सूत्र में क्रिया-योग का कई बार उल्लेख है। यह साधना की एक प्रक्रिया है। इसका एक आयाम जीवन जीने की कला से सीधे संबंधित है। किसी मनुष्य का मन निष्काम भाव में आ जाए तो क्रिया-योग के एक आयाम से वह अपने आप जुड़ जाता है।

इसे समझने के लिए गीता के दूसरे अध्याय का 40वां श्लोक बहुत सहायक है। उसे इस तरह पढ़ सकते हैं- ‘निष्काम कर्म योग में बीज का नाश नहीं होता है। इसलिए इस निष्काम कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा अभ्यास जन्म-मृत्यु रूप महान भय से उद्धार कर देता है।’ यह तो थोड़ी ऊंची बात है। साधारण शब्दों में कह सकते हैं कि बिना अपेक्षा के जो व्यक्ति अपना काम करते हैं वे निष्काम भाव वाले होते हैं।

इसके उलट सकाम बुद्धि होती है, जो हमेशा लाभ का विचार करती है। जहां निष्काम के विफल होने का सवाल नहीं है। वहीं सकाम में सफलता की मंजिल कभी नहीं मिलती। क्योंकि सकाम व्यक्ति में हमेशा तृष्णा होती है, तो निष्काम भाव में तृप्ति का सुख होता है। क्रिया-योग तृप्ति की साधना है। इसे ही मनुष्य अपने में उतार सके, इसके लिए श्वास की कुछ क्रियाएं इस पद्धति में निर्धारित की गई हैं।

अपने अस्तित्व से जुड़ने का एक मार्ग क्रिया-योग है। जिस तरह एक वृक्ष पृथ्वी से अपनी बहुत सी जड़ों से जुड़ा होता है, उसी तरह मनुष्य के लिए भी अस्तित्व से जुड़ने के लिए उसके शरीर में ही कई माध्यम हैं। क्रिया-योग में ‘कूटस्थ’ शब्द मूल है। उसी में यह योग का सूत्र समाया हुआ है। इसे लाहिड़ी महाशय के वंशज सत्यचरण लाहिड़ी ने उनके जीवन के जरिए समझाया है।

जब उन्होंने देखा कि क्रिया-योग के बारे में बहुत भ्रम फैल रहा है तो 1984 में जीवनी लिखवाई। क्रिया-योग को समझाने के लिए लाहिड़ी महाशय की डायरियों को आधार बनाया। अपनी एक डायरी में लाहिड़ी महाशय ने ‘कूटस्थ’ के संबंध में इस तरह लिखा है- ‘भूलो ना, भूलो ना तारे, से घन सृष्टि संहारे, सर्वदा आछे सम्मुखे देखोना-देखोना तारे। सदा स्मरण कर ओंकारेर तारे।’

अर्थात ‘कूटस्थ वही है जो सृष्टि से संहार तक सभी अवस्थाओं में ही घन कृष्णवर्ण के रूप में वर्तमान है, उसे कभी मत भुलाओ। वह हमेशा सबके सामने है उसे भर आंख देखो और ओंकार जप-क्रिया के माध्यम से नित्य स्मरण करो।’

इसके लिए व्यक्ति को अपनी देह में प्रवेश करने की विधि चाहिए। जो किसी गुरु से उपलब्ध हो जाए तो सबसे अच्छा। नहीं तो स्वयं की आती-जाती श्वास को देखने का अभ्यास कर यह जाना जा सकता है कि अपने शरीर में ऊर्जा का केंद्र कहां है।

क्रिया-योग में कर्म की प्रधानता है। हर व्यक्ति के शरीर में कर्म का ऊर्जा केंद्र आज्ञाचक्र में होता है। वह माथे के बीच में है। वह संकल्प का भी केंद्र है। उस पर ध्यान केंद्रित करें तो संकल्प की गति शुरू हो जाती है। यह पुरुष के लिए है, लेकिन स्त्री के लिए यह केंद्र है हृदय। क्रिया-योग के अभ्यास से किसी भी व्यक्ति को अपनी भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में संतुलन बनाना सरल होता है। ब्लड प्रेशर की भांति उसका ‘ब्रेथ-प्रेशर’ भी संतुलित रहता है।

क्रिया-योग की परंपरा में उनके वंशज शिवेंदु लाहिड़ी इस समय हैं। जो ज्यादातर विदेश में रहते हैं। कुछ अवसरों पर भारत में रहते हैं। इनकी उम्र 77 साल है। इस परंपरा में संस्था का निर्माण नहीं हुआ है। यह संतान परंपरा है। शिवेंदु लाहिड़ी क्रम में चौथे हैं। बनारस के चैशट्टी घाट स्थित ‘सत्यलोक’ को इस परंपरा के क्रिया साधक तीर्थ मानते हैं। वही लाहिड़ी महाशय की कर्म स्थली रही। उन्होंने 1895 में शरीर छोड़ा। उससे पहले 15 साल वहीं रहे।

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यह बात वर्ष 1964 में नौ जून की है, जब देश अपने दूसरे प्रधानमंत्री ”लाल बहादुर शास्त्री ” से रुबरू हो रहा था। शास्‍त्री जी का कार्यकाल ऐसा नहीं है कि एक प्रधानमंत्री के रूप में बहुत लम्‍बा रहा हो, किंतु अपने अल्‍प से कार्यकाल में वे जो कुछ भी कर गए हैं, इतिहास में हर बार नए पन्‍ने भी लिख दिए जाएंगे तब भी नया इतिहास बनने के बाद भी लिखे पन्‍नों में उन्‍हें श्रद्धा से याद किया जाता रहेगा।

18 महीने तक रहे प्रधानमंत्री शास्‍त्रीजी 09 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। उन्होंने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की और उसके बाद वे पूरे देश में प्‍यार से शास्‍त्रीजी के नाम से ही पुकारे जाने लगे। वैसे देखा जाए तो उनके जीवन और अपने राष्‍ट्र को सर्वस्‍व समर्पि‍त कर देने के अनेक पहलु हैं, किंतु हम यहां कुछ विशेष बिन्‍दुओं को लेकर बात करेंगे।

देश के नौनिहालों को ऐसे मिलती है उनसे प्रेरणा नेशनल बुक ट्रस्‍ट की ओर से प्रकाशित वरिष्‍ठ बाल साहित्‍यकार डॉ. राष्ट्रबंधु की पुस्‍तक ‘लाल बहादुर शास्‍त्री’ वैसे तो बाजार में आए आठ साल हो गए हैं लेकिन उसमें लिखा हर संस्‍करण आज भी न सिर्फ शास्‍त्रीजी के जीवन से परिचित कराने के लिए पर्याप्‍त हैं बल्‍कि हर किसी को, खासकर बच्‍चों के जीवन में अनन्‍त प्रेरणा और सतत आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा भी देते हैं।

एक घटना से बदला बालक ‘लाल बहादुर’ का जीवन सिर से पिता की छांव उठने के बाद मां बच्‍चों को लेकर अपने पिता के यहां चली आईं। जहां पांच-छह साल की अवस्‍था में लाल बहादुर का पढ़ाई के लिए दूसरे गांव के स्‍कूल में प्रवेश दिलाया गया। वह अपने कुछ दोस्‍तों के साथ विद्यालय जाते और साथ ही वापिस आते थे। रास्‍ते में एक बाग था। एक दिन बगीचे की रखवाली करने वाला नहीं दिख रहा था तो बच्‍चों को शैतानी करने का अवसर मिल गया, लाल बहादुर के साथ के लड़कों ने इसे अच्‍छा मौका समझ पेड़ों पर चढ़ना शुरू कर दिया और फल तोड़ने के साथ ही खूब उधम भी मचाया। बच्‍चों की हो रही तेज आवाज सुन माली वहां दौड़ा चला आया। बाकी सब तो भाग गए मगर अबोध ‘लाल बहादुर’ वहीं खड़े रहे। हालांकि उनके हाथ में कोई फल नहीं था लेकिन इस बाग से तोड़ा हुआ एक गुलाब का फूल अवश्‍य था।

एक फूल तोड़ने की मिली इतनी बड़ी सजा माली अपने बाग की हुई बुरी हालत देख बौखला उठा और फिर नन्‍हे शास्‍त्री को खड़ा देखा तो उसका पूरा गुस्‍सा जैसे उन्‍हीं पर उतर गया। तेज आवाज आई और एक झन्‍नाटेदार गाल पर तमाचा, बच्‍चा रोने लगा। मासूमियत के साथ बालक लाल बहादुर बोला, “तुम नहीं जानते, मेरा बाप मर गया है फिर भी तुम मुझे मारते हो। दया नहीं करते।” उन्‍हें लगा था कि पिता के न होने से लोगों की सहानुभूति मिलेगी और एक फूल तोड़ने की गलती को माफ कर दिया जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। तमाचे के बाद वह वहीं खड़ा सुबकता रहा। माली ने देखा कि बच्‍चा इसके बाद भी अपने स्‍थान पर ही खड़ा है, उसे डर नहीं लगा क्‍या, ऐसा विचार करते हुए उसने एक तमाचा और जड़ दिया…फिर उसके बाद जो इस माली ने नन्‍हें लाल बहादुर से कहा वह इसके लिए जिंदगी भर की सीख बन गई।
नजरिया बदला तो नाम भी बदल गया माली ने कहा-“जब तुम्‍हारा बाप नहीं है, तब तो तुम्‍हें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए। और सावधान रहना चाहिए। तुम्‍हें तो नेकचलन और ईमानदार बनना चाहिए।” लाल बहादुर शास्‍त्री के मन में उस दिन यह बात बैठ गई कि जिनके पिता नहीं होते, उन्‍हें सावधान रहना चाहिए। उन्‍हें सदैव सत्‍य के मार्ग पर चलना चाहिए क्‍यों‍कि उनकी छोटी सी ग‍लती को भी कोई माफ नहीं करता है । जीवन में कुछ पाना हो तो उसके लायक बनना होगा और उसके लिए मेहनत ही एक उम्‍मीद है। इसके बाद से जैसे इस बालक का पूरा नजरिया ही जीवन को देखने का बदल गया। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही लाल बहादुरजी ने अपने नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया।

भारतीय स्‍वाधीनता आन्‍दोलन के कर्मठ सिपाही महात्‍मा गांधी के सच्‍चे अनुयायी शास्‍त्री जी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते रहे और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।

“मरो नहीं, मारो” का नारा भी दिया था शास्‍त्री जी ने बाद के दिनों में “मरो नहीं, मारो” का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने एक क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। उनका दिया हुआ एक और नारा ‘जय जवान-जय किसान’ तो आज भी लोगों की जुबान पर है। यह नारा देकर उन्होंने न सिर्फ देश की रक्षा के लिए सीमा पर तैनात जवानों का मनोबल बढ़ाया बल्कि खेतों में अनाज पैदा कर देशवासियों का पेट भरने वाले किसानों का आत्मबल भी तात्‍कालीन समय में बढ़ाया था।

पाकिस्तान को दिखा दिया था थोड़े से दिनों में ही आईना लाल बहादुर शास्त्री जी को देश इसलिए भी सदैव नमन करता रहेगा क्‍योंकि 1965 में पाकिस्तान हमले के समय बेहतरीन नेतृत्व उन्‍होंने देश को प्रदान किया था। न सिर्फ सेना का मनोबल बढ़ाया, उसे अपनी कार्रवाई करने की खुली छूट दी बल्‍कि भारतीय जनता का उत्‍साह एवं आत्‍मबल को भी बनाए रखा। शास्त्री जी ने तीनों सेना प्रमुखों से तुरंत कहा आप देश की रक्षा कीजिए और मुझे बताइए कि हमें क्या करना है?शास्त्री के सचिव सीपी श्रीवास्तव ने अपनी किताब ‘ए लाइफ़ ऑफ़ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स’ में लिखा है, 10 जनपथ, प्रधानमंत्री का कार्यालय… समय रात के 11 बजकर 45 मिनट, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अचानक अपनी कुर्सी से उठे और अपने दफ़्तर के कमरे के एक छोर से दूसरे छोर तक तेज़ी से चहलक़दमी करने लगे।

युद्ध में मारे गए थे पाकिस्‍तान के 3,800 सैनिक, भारतीय सेना ने किया था 1840 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्‍जा “शास्त्री ऐसा तभी करते थे जब उन्हें कोई बड़ा फ़ैसला लेना होता था. मैंने उनको बुदबुदाते हुए सुना… अब तो कुछ करना ही होगा। “श्रीवास्तव लिखते हैं कि उनके चेहरे को देख कर ऐसा लग रहा था कि उन्होंने कोई बड़ा फ़ैसला कर लिया है। कुछ दिनों बाद हमें पता चला कि उन्होंने तय किया था कि कश्मीर पर हमले के जवाब में भारतीय सेना लाहौर की तरफ मार्च करेगी। इशारा पाते ही उसी दिन रात्रि में करीब 350 हवाई जहाजों ने पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की ओर उड़ान भरी। कराची से पेशावर तक जैसे रीढ़ की हड्डी को तोड़ा जाता है ऐसा करके सही सलामत वे लौट आए। इतिहास गवाह है, उसके बाद क्‍या हुआ। शास्त्री जी ने इस युद्ध में राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और ”जय जवान-जय किसान” का नारा देकर इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ाया। पाकिस्‍तान के 3,800 सैनिक मारे जा चुके थे इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के 1840 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्ज़े भी कर लिया था। ऐसे में पाकिस्‍तान के सामने हथियार डालने के अलावा अन्‍य कोई मार्ग शेष नहीं बचा था।

शास्‍त्री जी के विचारों की है आज भी प्रासंगिकता देश को मिले उनके नेतृत्‍व वाले आज के दिन उनके विचारों को फिर हम अपने जीवन में अपनाएं, यह वर्तमान की बहुत बड़ी जरूरत है । उन्‍होंने कहा है कि यदि कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रह गया जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए तो भारत को अपना सिर शर्म से झुकाना पड़ेगा। इसलिए जितना जल्‍दी हो सके अपने मन से यह विचार तुरंत त्‍याग दो।

वे कई बार कहा करते थे कि देश की तरक्की के लिए हमें आपस में लड़ने के बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा। साथ ही उनका कहना रहता था कि देश के प्रति निष्ठा, सभी निष्ठाओं से पहले आती है और यह पूर्ण निष्ठा ऐसी होनी चाहिए जिसमें कोई यह प्रतीक्षा नहीं कर सकता कि बदले में उसे क्या मिलता है। उनका कहना रहता था, हर कार्य की अपनी एक गरिमा है और हर कार्य को अपनी पूरी क्षमता से करने में ही संतोष प्राप्त होता है। इसलिए प्रत्‍येक कार्य को पूरे समर्पण के साथ करना है। वास्‍तव में देश के पूर्व प्रधानमंत्री ”लाल बहादुर शास्‍त्री” जी के यह विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने कि अपने समय में रहे हैं। देश के ऐसे महान सपूत को आज के दिन शत शत नमन है…..।

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{प्रशांत सिन्हा}
संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित पर्यावरण दिवस पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर जागरूकता लाने के लिए मनाया जाता है। पांच जून 1973 को पहला विश्व पर्यावरण मनाया गया था।

धरती पर जीवन के लालन पालन के लिए पर्यावरण प्रकृति का उपहार है। वह प्रत्येक तत्व जिसका उपयोग हम जीवित रहने के लिए करते हैं वह सभी पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं जैसे हवा, पानी, प्रकाश, भूमि, पेड़, जंगल और अन्य प्राकृतिक तत्व। आज हमारे चारों ओर के वातावरण में जो क्रियाकलाप हो रहे हैं, उनसे वातावरण का विनाश होता जा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ऊर्जा प्रदूषण, मिट्टी प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि लाखों असमय मौतों के लिए जिम्मेवार हैं।

वाहनों से निकलने वाले धुएं से वातावरण खराब हो रहा है। नदियों और तालाबों का जल प्रमोद के बजाय जीवन लीलने वाला बन गया है। यह बात सर्वविदीत है कि प्राकृतिक साधन सीमित है। एक न एक दिन ये सभी समाप्त हो जाएंगे अतः आवश्यक हो गया है कि बाल्यकाल से ही पर्यावरण संतुलन का ज्ञान देना आवश्यक हो गया है। जिससे उसके दिलों दिमाग मे यह बात धर कर ले कि संतुलित पर्यावरण ही उसके सुखी और सुरक्षित जीवन का एक मात्र विकल्प है। आस पास के वृक्षों, फूलों, पक्षियों, पहाड़ों, नदियों, समुद्र तटों और उसके जीव जंतुओं तथा वन्य पशुओं के महत्व को समझाना आवश्यक है तभी लोग उनका सरंक्षण कर सकेंगे।

प्राकृतिक संतुलन लिए जागरूक पैदा करना, व्यक्तियों में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने की रुचि जगाना, वातावरण बिगाड़ने वाले कारणों की पहचान कराना आदि आज बहुत आवश्यक हो गया है। पर्यावरण के प्रति जनचेतना का उद्देश्य वायु प्रदूषण की समास्याओं से लोगों का अवगत कराना है जिससे वे वायु प्रदूषण को रोकने में अपना सक्रिय योगदान कर सके और आने वाले खतरों से सचेत रहें। जल प्रदूषण का निराकरण करने के लिए छात्रों के साथ चर्चा करना चाहिए। इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए जनता को समुचित रूप से शिक्षित करना होगा ताकि ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम हो सके। भू प्रदूषण की समस्या भी गंभीर समास्याओं में से एक है जिसका निराकरण भी होना आवश्यक है। इसके लिए हमें चाहिए कि जनजागृति पैदा की जाए ताकि लोग इधर उधर जगह जगह पर थूके नहीं और गन्दगी नही फैलाएं। अपने घरों के पास पेड़ पौधों के लिए जगह छोड़ें। घास के खुले मैदान नहीं छोड़ेंगे तो भू प्रदूषण भी फैलेगा।

पर्यावरण सरंक्षण हेतु जनसाधारण को खासकर छात्रों को इसके लिए प्रेरित और प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। लोगों को आभास कराना है कि वह उस व्यवस्था का अभिन्न अंग हैं जिसमे पर्यावरण शामिल है। पर्यावरण संबंधित समास्याओं के समाधान में जिम्मेदारी का भी अवबोधन कराना चाहिए।

प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आदि समास्याओं सरंक्षण तभी संभव होगा जब पर्यावरण सम्बंधी जनचेतना होगी। यह बात नही भूलना चाहिए कि इस पर्यावरण ने सारी सृष्टि को सदियों से बचाए रखा है। यदि हम स्वयं को या श्रृष्टि को बचाए रखना चाहते हैं तो पर्यावरण को सरकार के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। जलवायु बदल रही है, हमने थोडे न तापमान बढ़ाया है ये सब तो सरकारों का काम है। मेरे सिर्फ अकेले से क्या होगा। ऐसे सोच से बचना चाहिए। स्वार्थपूर्ण प्रवृति वालों के ये बोल अक्सर सुनने को मिलता है लेकिन ये नुकसानदेह है। एक एक व्यक्ति को पर्यावरण बचाने के लिए आगे आना चाहिए। हमें यह समझना ज़रूरी है कि सबकुछ सरकारें नहीं कर सकतीं। हमारी भी जिम्मेदारी है। जो काम सरकारों का है वह करती रहें लेकिन ये धरती हमारी है इसे बचाना हमारी जिम्मेदारी है।

पर्यावरण की समझ पैदा करना और वर्तमान समाज में उसकी भूमिका को समझना सभी के लिए आवश्यक है।

{लेखक पर्यावरणविदद व स्वतंत्र टिप्पणीकार है.} 

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