{डॉ० कुमार आशीष, एसपी सारण के फेसबुक वॉल से साभार} 
यूँ तो हम सबों के लिए दीवाली का त्यौहार हमेशा से ख़ास होता है, कई मीठी और अच्छी यादें जुडी रहती है इसके साथ..पर कभी-कभी दीवाली किसी त्यौहार का नाम नहीं होता, तब दीवाली केवल -एक मुस्कान का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली होती नहीं केवल छप्पन पकवानों से, तब दीवाली केवल- भरे पेट सोने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली सोना-चाँदी खरीद कर नहीं मनाई जाती, तब दीवाली -तन पर कपड़ों की एक दूसरी जोड़ी महसूस करने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली अपनों को महंगे उपहार बाँट कर नहीं मनती, तब दीवाली -किसी बेसहारा कंधे पर हाथ रख सहारा देने का नाम होता है! कभी-कभी दीवाली के बिना भी दीवाली हो जाती है, तब जब कोई इंसान इंसानियत का जश्न मना रहा होता है !
दीवाली एक दीपखुशियों के नाम
एक तरफ जहां दीपों की लड़ियाँ जला कर, अपने परिवार के साथ -मिठाईयों और पटाखों के संग यह त्योहार मनाया जाता है, पर ऐसे कई सारे घर (बस्तियों) है, जहाँ दीवाली पर्व पर दीपक बनते और बिकते जरूर है, पर जल नही पाते… घरों में साफ़-सफाई और रंग-रोगन जरुर होता है पर खुद के घर अंधेरों में ही रह जाते हैं…मिठाइयाँ बनती तो जरुर है पर बनाने वाले हाथों को नसीब नहीं होती… नए कपडे सिलते जरुर हैं, पर सिलने वाले चीथड़ों में ही रह जाते हैं.. पटाखें बेचे जरुर जाते हैं पर खुद के बच्चे पटाखों की आवाज़ से महरूम रह जाते हैं..
शायद ऐसी ही किसी कोशिश में हम सब मिलकर इस वर्ष एक पहल करें ताकि दीपावली का दीपक वहाँ भी रोशनी लाये जहां के जरूरतमंद लोग अपने घर को रोशन करने के लिये दिन रात जी-तोड़ काम कर रहे है और जो फिर भी शायद पूरा नहीं पड़ता…!
इस वर्ष वास्तविक दीपावली हम मनायें -अपने घर कुछ कम कर के दीपो को… औरो के घर भी हम दीप जलाएं, इस साल कुछ परायों के साथ अपनेपन को सेलिब्रेट करे, प्यार को सेलिब्रेट करे, सौहार्द और भाईचारगी को सेलिब्रेट करे, भेद मिटाये, रिश्ते बनाये और उन्हें पूरी शिद्दत के साथ निभाएं.
कुछ छोटे छोटे प्रयास- प्यार पाने के लिये जैसे बिस्कुट, लड्डू, फ्रूटी, मोमबती, चॉकलेट, खील-बताशे इत्यादि उन बच्चो में बांटे जो हमको आते-जाते टुकर- टुकर देखते रहते है, आस के साथ- भरोसे के साथ, हम उन्हें साथ लाएं और यही सच्ची दिवाली होगी…
बदले समाज को हम, लाये नए विचार को और कुछ वहाँ से भी खरीदें और उन सामानों को खरीदें जहाँ लगे की कुछ खरीदने से उनके स्वाभिमान की रक्षा होगी, उनके घर में भी दीप जलेगें, खुशियाँ बटेंगी, वो भी भर-पेट भोजन कर सकेंगे, दीवाली सहित अन्य त्यौहार मना सकेंगे, अपना और अपने बच्चों के भविष्य का कुछ भला सोच सकेंगे।
शुरुआत करें अगर कुछ अच्छा लगे…..
जो है -जहाँ है, जोड़े आपस में दीपों की कड़ी…
मैं_नहीं, हम मनाये दीपावली 
जिंदगी तस्वीर भी है और तकदीर भी..!
फर्क तो सिर्फ रंगो का है
मनचाहे रंगो से बने तो तस्वीर,
और अनजानो की दुआ से बने तो तकदीर..!
आपात स्थिति से बचाव का पूरा इंतज़ाम रखें, दिए गए निर्देशों का पालन करें, अपनी तथा अपने परिवार की रक्षा-सुरक्षा का ख्याल रखें.. आप सभी को दीवाली 2024 की पुनश्च: कोटि कोटि शुभकामनाएं…

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अक्टूबर, 1824 को 20 हजार ब्रिटिश फौज ने जब अचानक कित्तूर राज का रुख किया तो मानो दहशत फैल गई। ब्रिटिश फौज की ताकत ऐसी कि उसकी जीत मानो तय थी।

अंग्रेजों के सामने कित्तूर की फौज कुछ भी नहीं थी, लेकिन उसके पास था-चट्टानी हौसले वाली वीरांगना रानी चेन्नम्मा का नेतृत्व। रानी चेन्नम्मा ने अपने मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ ऐसा रणकौशल दिखाया कि अंग्रेज चारों खाने चित्त हो गए।

ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा, अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन मारा गया। सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन बंधक बनाए गए। हालात ऐसे बने कि अंग्रेज घुटनों पर आए और युद्धविराम का ऐलान कर दिया।

रानी ने बंधकों को छोड़ दिया मगर कुछ दिनों बाद ही अंग्रेजों ने उनकी पीठ में छुरा भोंका। अंग्रेजों ने दोगुनी ताकत के साथ इसबार हमला बोल दिया। रानी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने मुकाबला तो किया लेकिन इस बार अंग्रेज भारी पड़े और रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल किले में कैद कर दिया गया। कैद में रहते 21 फरवरी 1829 को इस वीरांगना का निधन हो गया।

रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है इसलिए उनको ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया।

उनका जन्म जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटे-से गांव ककाती में हुआ था। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी।

अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत इसे स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।

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गिरीश्वर मिश्र

शिक्षा की बहुआयामी और बहुक्षेत्रीय भूमिका से शायद ही किसी की असहमति हो । यह मानव निर्मित सबसे प्रभावी और प्राचीनतम हस्तक्षेप है जो जीवन और जगत को बदलता चला आ रहा है । समाज के अस्तित्व, संरक्षण और संवर्धन के लिए शिक्षा जैसा कोई सुनियोजित उपाय नहीं है । इसीलिए हर देश में शिक्षा में निवेश वहां की अर्थव्यवस्था का एक मुख्य मद हुआ करता है । आज ज्ञान -विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से विश्व में अग्रणी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रहे हैं । वे शिक्षा की गुणवत्ता को समृद्ध करने के लिए लगातार सक्रिय रहते हैं और शिक्षा की तकनीकी को उन्नत करते रहते हैं । देश, काल और परिस्थिति की बनती-बिगड़ती मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के कलेवर में बदलाव उनके लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । साथ ही शिक्षा की सुविधा और प्रक्रिया पूरे समाज के लिए लगभग एक जैसी व्यवस्था स्वीकृत है । ठीक इसके विपरीत भारत में शिक्षा अनेक विसंगतियों से जूझती आ रही है । लोकहित के व्यापक लक्ष्यों के लिए समानता और समता आवश्यक है पर भारत में शिक्षा विभेदनकारी हो रही है और परिवर्तन को लेकर शंका और प्रतिरोध है। आज इन सबके चलते क्या प्रवेश क्या परीक्षा हमारी व्यवस्था चरमरा रही है । शिक्षा के क्षेत्र में ढलान के लक्षण लाभकारी नहीं हैं।

परंपरा में शिक्षा, विद्या और ज्ञान की प्राप्ति दुख से निवृत्ति के लिए आवश्यक मानी गई है । साथ ही ज्ञान का विस्तार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान को समेटता है । इस पद्धति से ज्ञान देने के लिए गुरु-शिष्य की एक सशक्त प्रणाली विकसित हुई और गुरुकुल से लेकर विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय तक की अद्भुत संस्थाओं का विकास हुआ । उस प्रणाली से पठन-पाठन करते हुए साहित्य, आयुर्वेद, ज्योतिष, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र, व्याकरण, योग, न्याय, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, वेद आदि अनेक विषयों का अध्ययन-अध्यापन हो रहा था। आज उपलब्ध ग्रंथों से इन विषयों के पीछे हुई लंबी और कठिन साधना का कोई भी सहज ही अनुमान लगा सकता है ।इस व्यवस्था की क्षमता और विलक्षण दृढ़ता का भी पता चलता है कि काल क्रम में सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन होते रहे फिर भी अपनी आंतरिक शक्ति की बदौलत सब कुछ के बावजूद यह ज्ञान परंपरा आज भी साँस ले रही है। विदेशी आक्रांताओं ने भी यहाँ की देशज शिक्षा में षड़यंत्रकारी दखल दिया । इस का सबसे जटिल और दूरगामी असर अंग्रेजों के जमाने में शुरू हुआ । यह बात प्रमाणित है कि भारत का दोहन और शोषण ही साम्राज्यवादी अंग्रेजी राज का एकल उद्देश्य था । इस काम में पाश्चात्य ज्ञान को यहाँ रोप कर यहां की अपनी ज्ञान परंपरा को विस्थापित करने को उन्होंने अपना विशेष सहायक माना । धर्मांतरण की तर्ज़ पर भारतीय मानस को एक नये पश्चिमी सांचे में ढालना और देशज ज्ञान के प्रति भारतीयों के मन में वितृष्णा का भाव पैदा करना ही अंग्रेजों का उद्देश्य बन गया था ।

भारतीय मूल के ज्ञान का हाशियाकरण तेजी से शुरू हुआ तथा ज्ञान और संस्कृति के अप्रतिम प्रतिमान के रूप में अंग्रेजियत छाती चली गई । भारतीयों को अशिक्षित ठहरा कर उनके लिए अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की जगह कुशिक्षा का प्रावधान किया गया। यह कुछ इस तरह हुआ मानों अंग्रेजी शिक्षा विकल्पहीन है और विकसित होने के लिए अनिवार्य है । परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी रह गई । हम उसके अंशों में थोड़ा बहुत हेर फेर ला कर काम चलाते रहे । स्वतंत्र भारत में अपनाई गई शिक्षा की नीतियां , योजनाएं और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही अग्रसर हुआ । स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी मॉडल के जाल से आज भी हम उबर नहीं पाये हैं । शिक्षा के बाजारीकरण और आजीविका से उसका रिश्ता एक नये समीकरण को जन्म देने लगा और देशज शिक्षा को पीछे धकेल रहा था और हम सब अचेत तो नहीं पर दिग्भ्रम में जरूर पड़े रहे । गौरतलब है कि लगभग दो सदी के अंग्रेजी प्रभाव में हमारी सभ्यता में भी वेश-भूषा, खान-पान और मनोरंजन आदि में परिवर्तन आया । इन सब का स्वाद बदलने लगा । साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों में भी परिवर्तन शुरू हुआ । पाश्चात्य दृष्टि को मानक, वैज्ञानिक और सार्वभौमिक मानते हुए कर उसे ऊपर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में आरोपित किया जाता रहा। व्यवस्था की जड़ता इतनी रही कि शिक्षा के प्रसंग में उठने वाले सभी सरोकार जैसे देश का विकास, शिक्षण की गुणवत्ता, विभिन्न सामाजिक वर्गों का समावेशन, शिक्षा जगत में स्वायत्तता की स्थापना, शैक्षिक नवाचार बातचीत के विषय तो बनते रहे किंतु वास्तविकता में अधिकतर यथास्थिति ही बनी रही । संरचनात्मक बदलाव, विषय वस्तु, छात्र पर शैक्षिक भार, और अध्यापक प्रशिक्षण आदि गंभीर विषयों को लेकर भी असमंजस ही बना रहा। आज प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक इतने पैमाने देश में चल रहे हैं और लोकतंत्र के नाम पर इतने तरह की विकृतियाँ पनप गई हैं कि उनसे पार पाना मुश्किल हो रहा है। शिक्षा में तदर्थवाद या एड हाकिज्म का बोलबाला होता गया।

आज भारतीय शिक्षा की दुनिया में बड़ी सारी विषमताओं आ गई है । शिक्षा संस्थाओं की अनेक जातियां और उपजातियां खड़ी हो गई हैं और उनमें अवसर मिलने की संभावना सबको उपलब्ध नहीं है । पूरी तरह सरकारी, अर्ध सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाओं की अजीबोगरीब खिचड़ी पक रही है । सबके मानक और गुणवत्ता के स्तर भिन्न हैं । फीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर तरीके भी बेमेल हैं । बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों बरस चलने वाला युद्ध और संघर्ष का सबब बन चुका है। देश को वर्ष 2047 में विकसित करने का बहुप्रचारित संकल्प सभी भारतीयों के लिए बड़ा ही लुभावना लगता है । विकसित भारत की कल्पना को साकार करने के लिए किसी जादुई छड़ी से काम न चलेगा। उसके लिए योग्य, प्रशिक्षित और निपुण मानव संसाधन की ज़रूरत सबसे ज्यादा होगी । जनसंख्या वृद्धि को देखते हए शिक्षा में प्रवेश चाहने वाले लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है । इस दृष्टि से योजना बनानी होगी और बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान बढ़ाने की जरूरत है । अनेक वर्षों से शिक्षा पर देश के बजट में छह प्रतिशत खर्च करने की बात कही जा रही है परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी बमुश्किल हो पाता है । कड़वा सच यह भी है कि खानापूर्ति से आगे बढ़कर कुछ करने का अवसर सिकुड़ता ही रहा है ।

हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए वित्त की आवश्यकता को स्वीकार करना होगा। फरवरी-मार्च 2024 में प्रकाशित आंकड़ों को देखे तो पता चलता है कि शिक्षा के लिए आवंटित राशि में लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फिर भी, यह राशि शिक्षा के लिए अपेक्षित निवेश सीमा 6 प्रतिशत से कम है। ऐसा लगता है कि प्राथमिकता के आधार पर अलग-अलग में मदों घट-बढ़ कर सरकार वित्तीय नियोजन का उपाय कर रही है। एक तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट को कम किया गया है तो दूसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अधिक राशि आवंटित की गई है। ऐसे ही उन संस्थाओं को जिन्हें सरकार प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा देती है, उसके बजट में भी वृद्धि की है। पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में विद्यालयी शिक्षा के बजट में लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि की गई। यह राशि समग्र शिक्षा अभियान को गति प्रदान करने का कार्य करेगी। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि विद्यालय स्तर पर प्राथमिकता के आधार पर शिक्षकों का नियोजन बाधित न हो, इसे ध्यान में रखते हुए इस राशि का उपयोग होगा। इसी तरह पीएम श्री योजना को भी प्रभावी बनाना होगा। सरकार को उच्च शिक्षा में बेहतर और समावेशी अवसर पैदा करने के लिए नए क्षेत्रों में संभावनाओं को तलाशना होगा। यदि हम विद्यालय स्तर के लिए बढ़ाया गया बजट अगर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है तो निकट भविष्य में उच्च शिक्षा पर निवेश बढ़ाना अपरिहार्य हो जाएगा। सरकार को यह भी संज्ञान में लेना होगा कि यदि शिक्षा रूपी लोकवस्तु पर राज्य निवेश नहीं बढ़ाएगा तो इसका लाभ बाजार की ताकतें उठाएंगी। इसका दोहरा नुकसान होगा। पहला, शिक्षा के लिए आम आदमी का निवेश बढ़ जायेगा। दूसरा, भारत जैसे देश में समावेशन की गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। यह भी विचारणीय है कि आधुनिक तकनीकी के माध्यम से शिक्षा के प्रसार और विस्तार के लिए भी प्राथमिकता से निवेश करना होगा। सरकार द्वारा संस्थानों से स्व वित्त पोषण की उम्मीद करना शिक्षा के लोक स्वरूप को क्षति पहुंचाएगा। विकसित भारत की परिकल्पना को साकार करने ले लिए समर्थ मानव पूंजी की तैयारी हेतु वित्तीय आवंटन, नियोजन और अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति के आकलन द्वारा भावी भूमिका के निर्धारण उपागम द्वारा शिक्षा को प्रभावी बनाना होगा।

(लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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प्रवीण बागी
देश को क्षेत्रीय टीवी न्यूज चैनल के माध्यम से एक नए तरह की पत्रकारिता से परिचित करानेवाले रामोजी राव नहीं रहे। हैदराबाद में शनिवार की अहले सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। पूरे देश में उनके चाहनेवालों में शोक की लहर है।वे एक अद्भुत शख्स थे। मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनके सानिध्य में टीवी पत्रकारिता की एबीसी सीखी। वे एक निडर पत्रकार, ईमानदार उद्योगपति और राष्ट्रीय सोच रखनेवाले बेहतरीन टीम लीडर थे।
दिल्ली में एक विज्ञापन एजेंसी से अपने कॅरियर की शुरुआत करनेवाले रामोजी ने अपनी दूरदर्शिता और परिश्रम के बल पर रामोजी ग्रुप की स्थापना की। वे अपने पीछे फिल्म, मीडिया, होटल,चिट फंड समेत करीब आधे दर्जन संस्थाओं का एक बड़ा साम्राज्य छोड़ गए हैं। उनके द्वारा हैदराबाद में स्थापित रामोजी फिल्म सिटी दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म सिटी है। रामोजी फिल्म सिटी की स्थापना उन्होंने 1996 में की थी।
फिल्म सिटी 1666 एकड़ में फैला हुआ है। यहां 25 फिल्मों की शूटिंग एक साथ की जा सकती है। कुल 50 शूटिंग फ्लोर हैं। अब तक इस फिल्म सिटी में 25000 फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। इनमें साउथ की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘बाहुबली’ के अलावा बॉलीवुड की ‘चेन्नई एक्सप्रेस’, ‘सूर्यवंशम’, ‘दिलवाले’, ‘नायक’, ‘गोलमाल’ जैसी फिल्मों की भी शूटिंग हुई। इसके अलावा यहां कई सीरियल्स की भी शूटिंग हुई है।
दिल्ली से लौटने के बाद उन्होंने विशाखापट्टनम से 1974 में ईनाडु अखबार शुरू किया। आज यह अखबार तेलंगाना का नंबर वन अखबार है। दक्षिण भारत के विभिन्न शहरों से इसके 3 दर्जन से अधिक संस्करण निकलते हैं। 1995 में उन्होंने तेलगु में ईटीवी चैनल शुरू किया फिर धीरे धीरे अलग -अलग राज्यों के लिए वहां की स्थानीय भाषा में एक दर्जन से अधिक न्यूज चैनल शुरू किया जो आज भी अलग-अलग नामों से चल रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने ईटीवी भारत के नाम से विश्व का सबसे बड़ा डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म शुरू किया था। अंतिम समय तक वे उसके विस्तार में लगे रहे।
रामोजी राव का जन्म 16 नवंबर 1936 को आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के पेडापरुपुडी गांव में चेरुकुरी वेंकट सुबामा और चेरुकुरी वेंकट सुब्बैया के घर हुआ था। उनके पिता किसान थे। उनकेएक पुत्र सुमन प्रभाकर का निधन हो चुका है दूसरे पुत्र किरण प्रभाकर तथा उनके और उनके स्वर्गवासी भाई की पत्नी एवं बच्चे मिलकर उनका पूरा कारोबार सम्हालते हैं।
उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि में सिर्फ कारोबार से नहीं मन से एक निर्भीक पत्रकार थे। वे कभी किसी प्रधानमंत्री, मंत्री या मुख्यमंत्री से मिलने नहीं जाते थे। आंध्र या उसके बाद बना तेलंगाना में जब भी कोई नया मुख्यमंत्री बनता तो वह रामोजी से मिलने फिल्म सिटी आता था। यह उनका रसूख था। वाईएसआर रेड्डी सरकार में हुए भूमि घोटाले का जब ईनाडु अखबार ने भंडाफोड़ किया तो सरकार उनके पीछे पड़ गई। उनके मार्गदर्शी चिट फंड समेत अनेक कंपनियों पर छापे मारे गए। उनपर मुक़दमे ठोक दिए गए लेकिन रामोजी झुके नहीं। घाटा उठाकर भी वे डटे रहे और न सिर्फ सरकार की विदाई सुनिश्चित कराई बल्कि मुकदमों से भी बेदाग़ निकले।
मार्गदर्शी चिटफंड के बारे में रेड्डी सरकार ने विज्ञापन निकलकर जनता से आवेदन मांगा जिनके पैसे नहीं लौटाने का आरोप था, लेकिन एक भी आवेदन नहीं आया। लोगों का उनपर यह भरोसा था। उनकी एक और विशिष्टता यह थी कि वे अपने किसी भी नए वेंचर के उद्घाटन या वार्षिक समारोहों में नेताओं को नहीं बुलाते थे। खुद ही उद्घाटन करते थे। वे न खुद नेताओं के आगे -पीछे करते थे न संवाददाताओं को ऐसा करने देते थे। खबर सही है तो वह जरूर चलेगी, चाहे वह कितना ही प्रभावशाली व्यक्ति क्यों न हो, यह उनका मिशन था।
सफ़ेद रंग से उन्हें विशेष लगाव था। सफ़ेद पैंट -शर्ट और सफ़ेद जूता सालो भर उनका पहनावा रहता था। ईटीवी में हर तीन महीने पर वे हैदराबाद मुख्यालय में संवाददाताओं के साथ मीटिंग करते थे। हर मीटिंग में स्ट्रिंगरों को भी बुलाया जाता था। और उनसे वे सीधे बात करते थे। ऐसा दूसरा कोई उदहारण मीडिया जगत में नहीं मिलेगा। स्ट्रिंगरों के आने -जाने और रहने का सारा खर्च कंपनी वहन करती थी। श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन करने पर उनका जोर रहता था।
रामोजी ग्रुप में बेवजह कोई आपकी नौकरी नहीं ले सकता। कंपनी छोड़ने पर एक एक पैसा जोड़ कर भुगतान किया जाता था। उनके जैसा सहृदय और सरल मालिक मिलना मुश्किल है। ईटीवी टीवी पत्रकारिता का प्रशिक्षण हॉउस बन कर उभरा था। वह पहला ऐसा टीवी संस्थान था जो सीधे कालेज से निकले छात्रों का चयन कर उन्हें प्रशिक्षण देकर टीवी पत्रकार बनाता था। देश का कोई ऐसा चैनल नहीं होगा जहां ईटीवी के सीखे पत्रकार काम न कर रहे हों। वहां नियुक्ति के लिए किसी पैरवी की जरुरत नहीं थी।
आपमें थोड़ी भी योग्यता है तो आपकी नियुक्ति होगी।
मीटिंगों में जब कोई सीनियर अपने जूनियर की शिकायत करता तो रामोजी कहा करते थे कोई टीम खराब नहीं होती बल्कि टीम लीडर अच्छा या बुरा होता है। अच्छा टीम लीडर बुरी टीम से से भी अच्छा रिजल्ट देगा और बुरा टीम लीडर अच्छे टीम से भी अच्छा रिजल्ट नहीं दे पायेगा। पत्रकारों से वे विज्ञापन की बात सुनना पसंद नहीं करते थे। मीटिंग में जब कोई संवाददाता विज्ञापन की बात करता था तो वे उसे डांट देते थे। कहते थे मैंने तुम्हें न्यूज के लिए रखा है,विज्ञापन के लिए नहीं। विज्ञापन की चिंता करना तुम्हारा काम नहीं है। आज तो बड़े -बड़े मीडिया हॉउस के संपादक विज्ञापन के लिए परेशान रहते हैं।
मैंने नामी गिरामी मीडिया मालिकों को मंत्रियों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए बैचैन होते देखा है। रामोजी राव अपनी तरह के अकेले इंसान थे। लगातार घाटे के बाद भी उन्होंने ईटीवी को न बंद किया न कभी छंटनी की। न्यूज 18 ग्रुप को ईटीवी बेचा भी तो इस शर्त के साथ की एक भी कर्मचारी की छंटनी नहीं होगी।
उत्तर भारत से उनका कोई लेना देना नहीं था। फिर भी उन्होंने हर प्रदेश में वहां की भाषा में न्यूज चैनल चलाया। यह उनकी राष्ट्रीय सोच थी। एक समय था जब आंध्र प्रदेश में सरकार के बाद रामोजी ग्रुप सबसे बड़ा इम्प्लायर था। 60 हज़ार से अधिक कर्मचारी वहां शिफ्टों में काम करते थे।
रामोजी राव ने एक आदर्श जीवन जीया। वे एक गौरवशाली परंपरा छोड़ कर गए हैं। उनका जाना न सिर्फ पत्रकारिता जगत के लिए अपितु फिल्म जगत के लिए भी एक बड़ी क्षति है। उनकी जगह भर पाना असंभव सा है। सचमुच आप बहुत याद आएंगे रामोजी राव गारु। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे और परिजनों को हौसला दे। शत -शत नमन.
वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार  
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योगेश कुमार गोयल

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के बैनर तले प्रतिवर्ष 07 अप्रैल को एक खास थीम के साथ ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने का प्रमुख उद्देश्य स्वास्थ्य को लेकर विश्व में प्रत्येक व्यक्ति को बीमारियों के प्रति जागरूक करना, लोगों के स्वास्थ्य स्तर को सुधारना और हर व्यक्ति को इलाज की अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना ही है। पूरी दुनिया इस साल ‘मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार’ विषय के साथ 74वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रही है। यदि पिछले कुछ वर्षों की स्वास्थ्य दिवस की थीम पर नजर डालें तो 2023 का विषय था ‘सभी के लिए स्वास्थ्य’, 2022 में यह दिवस ‘हमारा ग्रह, हमारा स्वास्थ्य’, 2021 में ‘सभी के लिए एक निष्पक्ष, स्वस्थ दुनिया का निर्माण’, 2020 में ‘नर्सों और दाइयों का समर्थन करें’ तथा 2019 में ‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य: हर कोई, हर जगह’ विषय के साथ मनाया गया था।

विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाए जाने की शुरुआत डब्ल्यूएचओ द्वारा 07 अप्रैल 1950 को की गई थी और यह दिवस मनाने के लिए इसी तारीख का निर्धारण डब्ल्यूएचओ की संस्थापना वर्षगांठ को चिह्नित करने के उद्देश्य से ही किया गया था। डब्ल्यूएचओ की स्थापना के साथ ही 1948 में विश्व स्वास्थ्य दिवस की नींव भी रख दी गई थी। दरअसल उस समय लोगों की सेहत को बढ़ावा देने और उन्हें गंभीर बीमारियों से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से दुनिया के कई देशों ने मिलकर दुनियाभर में ठोस कार्य करने की जरूरत पर बल दिया और आखिरकार विश्व स्वास्थ्य दिवस की नींव रखने के दो वर्ष बाद सन् 1950 में पहली बार 07 अप्रैल को यह दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र का अहम हिस्सा ‘डब्ल्यूएचओ’ दुनिया के तमाम देशों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग और मानक विकसित करने वाली संस्था है, जिसका प्रमुख कार्य विश्वभर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में सहयोग करना है। इस संस्था के माध्यम से प्रयास किया जाता है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहे।

हालांकि चिंता की स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों में एक ओर जहां स्वास्थ्य क्षेत्र ने काफी प्रगति की है, वहीं कुछ वर्षों के भीतर एड्स, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के प्रकोप के साथ हृदय रोग, मधुमेह, क्षय रोग, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरन्तर बढ़ रही हैं। वैसे तो दुनिया के तमाम देश बीते कुछ दशकों से स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन कोरोना काल के दौरान जब अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस अवस्था में देखा गया और वहां भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अभी भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वयं मानता है कि दुनिया की कम से कम आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। विश्वभर में अरबों लोगों को स्वास्थ्य देखभाल हासिल नहीं होती। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल में से किसी एक को चुनने पर विवश होना पड़ता है।

भारतीय समाज में तो सदियों से धारणा रही है ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’ लेकिन चिंता का विषय यही है कि हमारे यहां भी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बहुत खराब है। बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य दिवस के माध्यम से जहां समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता है, वहीं इसका सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यही होता है कि लोगों को स्वस्थ वातावरण बनाकर स्वस्थ रहना सिखाया जा सके। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना ही मानव-स्वास्थ्य की परिभाषा है। यह बेहद चिंता का विषय है कि दुनिया की करीब 30 प्रतिशत आबादी के पास बुनियादी स्वास्थ्य उपचार तक पहुंच नहीं है और करीब 200 करोड़ लोग विनाशकारी अथवा खराब स्वास्थ्य देखभाल लागत का सामना कर रहे हैं, जिसमें काफी असमानताएं हैं, जो सबसे वंचित परिस्थितियों में लोगों को प्रभावित कर रही हैं। हालांकि स्वास्थ्य का अधिकार एक ऐसा मौलिक मानवाधिकार है, जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को बगैर किसी वित्तीय बोझ के, जब भी जरूरत हो, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच मिलनी चाहिए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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मानव और पशु – पक्षी प्रेम की अनेकों छवियों भारत के कला, धर्म और संस्कृति में समाई हुई है। पशु – पक्षी प्रेम और उनके प्रति किए जाने वाला व्यवहार के अनेक सामाजिक पहलु हैं। यह भी सच्चाई है कि जहां पशु – पक्षी स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते थे ऐसे स्थान धीरे – धीरे घटकर बहुत कम रह गए हैं। आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण और बढ़ते हुए जनसंख्या के दवाब के कारण बहुत से पशु – पक्षी विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं। उनमें से एक है फुदक फुदक कर चीं- चीं , चूं – चूं करती गौरैया। व

क्त के साथ कब गौरैया की चहचहाट कानों में पड़नी बंद हो गई, पता ही नही चला। पहले लगता था कि समय के साथ उस चहचहाट पर ध्यान देना बंद कर दिया है, लेकिन जब गौर किया तो गौरैया तो वाकई में गायब हो गई है। वर्तमान में भूले बिसरे मई के महीने में एक – दो गौरैया के दर्शन हो जाते हैं, वरना ये चिड़िया तो ईद की चांद हो गई है। जंगलों एवं खत्म होते हरियाली पेड़ों के कारण इनका निवास खत्म होते गए। बढ़ते प्रदुषण व जलवायु परिर्वतन के कारण भी गौरैया के संख्या में कमी आई है। मोबाइल फोन एवं मोबाइल टावरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है।

गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नही है, बल्कि हमारे परिवेश, कला, संस्कृति से भी उसका संबंध रहा है। लेकिन हम मानव ने उनकी दुनिया उजाड़ दी। उनके घोंसले, पेड़ – पौधे, उनके जलाशय, हरियाली सब खत्म कर दी। सारे आसमान में धुआं और जहर भर दिया। पर्यावरण को ज्वालामुखी बना डाला। नदियां,नहरों, कुओं और बावड़ियों में जहर बहा दिया। बादलों से चली निर्दोष बूंदें हमारी हवाओं से गुजरकर जहर बरसाती है जिससे वे हमसे रूठकर हमारी नजरों से दूर हो गईं।

देर से ही सही कुछ लोगों के साथ सरकारें अब जगी हैं। पर्यावरणविद मुहम्मद ई दिलावर जैसे लोगों के कारण पूरे विश्व में 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाने लगा। दिल्ली एवं बिहार में गौरैया को राज्य पक्षी का दर्जा देते हुए उसके सरंक्षण पर जोर दिया है। भारतीय डाक विभाग ने भी गौरैया पर डाक टिकट जारी किया।

ज्ञात रहे गौरैया पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण है। ये छोटे पक्षी जैव विविधता को और विकसित करने और पारिस्थितिकी तंत्र में पौधों के विकास में सहायता करते हैं जिसके परिणाम स्वरूप स्वस्थ और हरा भरा वातावरण बनता है। गौरैया बीज खाती हैं और छोड़ती हैं जिससे पौधों के बीजों के बेहतर प्रसार में मदद मिलती है और हमारे आस – पास की जलवायु समृद्ध होती हैं। गौरैया हमारी फसलों को कीड़ों से बचाती हैं।

गौरैया की संख्या बढ़ाने के लिए लोगों को जागरुक करने की आवश्यकता है। घर की छत पर दाना रखना चाहिए और घरों के आस पास ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाना चाहिए क्योंकि गौरैया का यही प्रकृतिक परिवेश है। गौरैया अगर किसी के घर में घोसला बनाए तो उसे नही हटाना चाहिये। रोजाना आंगन, बालकनी, छतों पर दाना पानी रखना चाहिये। जूते के डिब्बे, प्लास्टिक की बड़ी बोतलें या मटकी को टांगना चाहिये जिससे उसमें घोस्ला बन सके।छतों पर बाजारों में मिलने वाले कृत्रिम घोसलों की व्यवस्था करना चाहिए।

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योगेश कुमार गोयल

प्रतिवर्ष 22 मार्च को दुनियाभर में लोगों में जल संरक्षण और रखरखाव को लेकर जागरुकता फैलाने के लिए ‘विश्व जल दिवस’ मनाया जाता है। यह दिवस मनाए जाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1992 में रियो द जेनेरियो में आयोजित ‘पर्यावरण तथा विकास का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन’ में की गई थी। संयुक्त राष्ट्र की उसी घोषणा के बाद पहला विश्व जल दिवस 22 मार्च 1993 को मनाया गया था। यह दिन जल के महत्व को जानने, समय रहते जल संरक्षण को लेकर सचेत होने तथा पानी बचाने का संकल्प लेने का दिन है। दरअसल जल धरती पर मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है और वर्तमान में पृथ्वी पर पेयजल की उपलब्धता से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि पानी की एक-एक बूंद बचाना हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। पानी की समस्या भारत में भी लगातार गंभीर होती जा रही है, जिसका अंदाजा हाल के बेंगलुरु जल संकट से आसानी से लगाया जा सकता है। ऐसे में विश्व जल दिवस की महत्ता हमारे लिए भी कई गुना बढ़ जाती है। देश में हर साल जाने-अनजाने करोड़ों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। इसी वजह से कुछ वर्ष पूर्व विश्व जल दिवस के अवसर पर 22 मार्च के ही दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन’ की शुरुआत की थी और उस अभियान के तहत देश के सभी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन के लिए नारा दिया गया था ‘जहां भी गिरे, जब भी गिरे, वर्षा का पानी इकट्ठा करें।’

एक ओर जहां करोड़ों लोग विशेषकर गर्मी के मौसम में बूंद-बूंद पानी के लिए तरसते रहते हैं, वहीं बारिश के मौसम में वर्षा जल का संरक्षण-संचयन नहीं होने के अभाव में प्रतिवर्ष लाखों गैलन पानी व्यर्थ बह जाता है। यदि इस पानी का संरक्षण कर लिया जाए तो देश की बड़ी आबादी की प्यास इसी पानी से बुझाई जा सकती है लेकिन चिंता की बात है कि देश में अभी तक वर्षा जल संरक्षण को लेकर कहीं जागरुकता नहीं दिखती। पर्यावरण संरक्षण पर हिन्दी अकादमी के सहयोग से प्रकाशित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के अनुसार भारत में जल संकट बढ़ने का एक बड़ा कारण यही है कि हम वर्षा जल का बहुत ही कम मात्रा में संरक्षण कर पाते हैं। देश में प्रतिवर्ष करीब तीन हजार अरब घन मीटर पानी की जरूरत होती है जबकि भारत में होने वाली वर्षा की मात्रा करीब चार हजार अरब घन मीटर होती है लेकिन वर्षा जल संग्रहण के पर्याप्त प्रबंध नहीं होने के कारण मामूली से वर्षा जल का ही संग्रहण संभव हो पाता है। एक ओर जहां इजराइल जैसे देश में औसतन दस सेंटीमीटर वर्षा होने के बावजूद भी वह इतने अन्न का उत्पादन कर लेता है कि उसका निर्यात करने में भी सक्षम हो जाता है, वहीं दूसरी ओर भारत में औसतन पचास सेंटीमीटर से भी ज्यादा वर्षा होने के बावजूद अन्न की कमी बनी रहती है। दरअसल नदियों-तालाबों जैसे पवित्र माने जाते रहे जलस्रोतों को सहेजने में लापरवाही और भूमिगत जल में प्रदूषण की बढ़ती मात्रा तथा वर्षा जल संचयन का उचित प्रबंध न होना भारत में जल संकट गहराते जाने की मुख्य वजह बन रहे हैं।

देश में आज के आधुनिक युग में भी बहुत से इलाकों में लोगों को दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है या लंबी-लंबी कतारों में लगकर कामचलाऊ पानी मिल जाता है। चौंकाने वाला यह तथ्य भी सामने आ चुका है कि कुछ इलाकों में महिलाओं को पीने का पानी लाने के लिए प्रतिदिन औसतन छह किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर पैदल तय करना पड़ता है। हालांकि सरकार द्वारा जलशक्ति अभियान के तहत हर घर को पानी मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया है लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देश में 2030 तक पानी की जरूरत दोगुनी हो जाएगी और 2050 तक यह चार गुना बढ़ जाएगी तथा जल संकट का देश के सकल घरेलू उत्पाद पर छह फीसदी तक असर पड़ सकता है। भारत में पानी की कमी का संकट लगातार किस कदर गहरा रहा है, इसका अनुमान सरकार द्वारा संसद में दी गई उस जानकारी से भी लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया था कि वर्ष 2001 और 2011 में भारत में जल उपलब्धता प्रति व्यक्ति क्रमशः 1816 और 1545 घन मीटर थी, जो अब 1480 घन मीटर से भी कम रह जाने का अनुमान है। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के मुताबिक भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किए जाने का ही नतीजा है कि कई शहरों में भू-जलस्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। नीति आयोग यह चेतावनी दे चुका है कि देश के 21 बड़े शहरों में भू-जल का स्तर आने वाले समय में शून्य तक पहुंच सकता है।

जल संकट गहराने के पीछे नदियों तथा जलाशयों के सही रखरखाव का अभाव और उनका अतिक्रमण भी कुछ अहम कारणों में शामिल हैं। देश की अधिकांश आबादी दूषित पेयजल का सेवन करने पर विवश है। भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 के बाद से भू-जल स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है और यदि भू-जल स्तर इसी रफ्तार से घटता गया तो बहुत अधिक गहराई से जो पानी निकाला जाएगा, वह पीने लायक नहीं होगा क्योंकि उसमें आर्सेनिक तथा फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने के कारण बीमारियां बढ़ेंगी। देशभर में कृषि, उद्योग तथा दैनिक क्रियाकलापों की करीबन अस्सी फीसदी जरूरतें जमीन पर तथा उसके भीतर उपलब्ध पानी से ही पूरी की जाती हैं। बहरहाल, जल संकट से निजात पाने के लिए बेहद जरूरी है कि पानी के सीमित एवं समुचित उपयोग के लिए जागरुकता बढ़ाने पर जोर देते हुए लोगों में पानी बचाने की आदतें विकसित करने के प्रयास किए जाएं, साथ ही वर्षा जल का संचय किए जाने के भी हरसंभव प्रयास हों। वर्षा जल संचय के लिए नदियों और जलाशयों की हालत सुधारकर इनकी जल संग्रह क्षमता को बढ़ाना और भू-जल स्तर को बढ़ाने वाली जगहों को ठीक करना बेहद जरूरी है। भारत में पेयजल संकट के समाधान के लिए ‘जल शक्ति मंत्रालय’ का गठन किया गया, जिसके तहत सभी घरों में नलों से पानी उपलब्ध कराने के लिए व्यापक इंफ्रॉस्ट्रक्चर बनाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन सवाल यही है कि अगर भू-जल का स्तर इसी तरह नीचे जाता रहा और पेजयल संकट ऐसे ही गहराता रहा तो इन नलों में पानी कहां से आएगा और कैसे घर-घर तक पहुंचेगा? इसलिए बेहद जरूरी है कि प्रत्येक नागरिक को पानी के महत्व का अहसास कराया जाए और बताया जाए कि पानी के बिना जीवन की कल्पना ही संभव नहीं है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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महान लोक कलाकार ‘भोजपुरी के शेक्सपीयर’ कहे जाने वाले लोक जागरण के सन्देश वाहक भिखारी ठाकुर की आज 136 वीं जयंती है. उनका जन्म 18 दिसम्बर 1887 को सारण जिले के कुतुबपुर दियारा गाँव में हुआ था.

बहु आयामी प्रतिभा के धनी भिखारी ठाकुर भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं.

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भिखारी ठाकुर का जन्म एक नाई परिवार में हुआ था. उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था. रोज़ी कमाने के लिये उन्हें अपने गाँव को छोड़कर बंगाल जाना पड़ा वहाँ उन्होने काफी पैसा कमाया किन्तु वे अपने काम से संतुष्ट नहीं थेऔर लौट के गाँव वापस आ गए. उनका मन रामलीला में बस गया था. अपने गाँव आकर उन्होने एक नृत्य मण्डली बनायी और रामलीला खेलने लगे.

इसके साथ ही वे गाना गाते एवं सामाजिक कार्यों से भी जुड़े. उनकी मुख्य कृतियाँ लोकनाटक बिदेशिया, बेटी-बेचवा, गबर घिचोर, बिधवा-बिलाप, कलियुग-प्रेम आदि आज भी लोगों को समाज की कुरीतियों से लड़ने का साहस देती है.

सारण के इस महान विभूति ने 10 जुलाई 1981 को चौरासी वर्ष की आयु में अंतिम साँस ली.

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‘शील-स्वभाव, दिल-दिमाग, भीतर-बाहर, रहन-सहन और वेशभूषा ही नहीं बौद्धिक प्रखरता, सरलता, नैतिकता, सह्रदयता और सहज गम्भीरता-सब बेमिसाल. भारतीयता की सजीव मूर्ति डॉ. राजेन्द्र बाबू’

देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद के बारे में उपर्युक्त पंक्ति उनकी जीवन का सारांश है. वे एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जो सदा सत्य और अहिंसा के लिए लड़े और प्रतिष्ठा को अर्जित किया.

साधारण दिखने वाले व्यक्ति में कितना असाधारण व्यक्तित्व छिपा है इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता. राजेंद्र बाबू की बातों का लोग आज भी अनुशरण करते है.

राजेंद्र बाबू का छपरा से नाता रहा. जीवन के उज्जवल क्षण उन्होंने यही बिताये थे. ज़िला स्कूल में आज भी उनकी फोटो टँगी है. आज भी जिला स्कूल के छात्रावास में उनकी यादे बसी है. यही कारण है कि गाहे बगाहे उनकी चर्चा तो हर तरफ होती है. आज भी लोग बच्चों की पढाई को लेकर राजेंद्र बाबू के पढाई के तौर तरीके की उपमा देते है.

डॉ० राजेंद्र प्रसाद का जन्म तत्कालीन छपरा (अब सीवान जिला) के जीरादेई में 3 दिसम्बर 1884 को हुआ था. राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं.

राजेंद्र बाबू को देखकर किसने सोचा था कि वे देश के प्रथम व्यक्ति बनेंगे और शीर्ष कुर्सी पर बैठेंगे. कभी किसी ने यह नही सोचा होगा कि यह ऐसा परीक्षार्थी बनेगा जिसकी उत्तर पुस्तिका पर परीक्षक द्वारा यह लिखा जायेगा कि “परीक्षक से बेहतर परीक्षार्थी है”. राजेंद्र बाबू की इस उपलब्धि के पीछे था उनका प्रारंभिक परिवेश, उनके माता तथा पिता, चाचा और फिर मित्र के रूप में उनकी पत्नी का सहयोग.

हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, फारसी और गुजराती भाषाओं का ज्ञान उनकी प्रतिष्ठा को और भी चमकदार बना देता हैं. देश प्रेम की ललक और अपने विचारों से उन्होंने महात्मा गांधी को अपनी ओर आकर्षित कर स्वत्रंत भारत की कल्पना को मूर्त रूप दिया.

सारण प्रमंडल के इस महान अनमोल रत्न की 132वीं जयंती पर शत शत नमन. राजेंद्र बाबू सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे.

 

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Chhapra: विपक्षी दलों की बैठक बैंगलुरु में मंगलवार को होगी। इस बैठक को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव समेत विपक्षी पार्टियों के नेता बैंगलुरु पहुँच गए हैं। इस बैठक पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता कुंतल कृष्ण ने इसे ठगबंधन की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा है कि नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से खोखले हो गए हैं। अब उनकी राजनीति में कुछ बचा ही नहीं। 

 

देखिए पूरी बातचीत      

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Chhapra: देश में इन दिनों बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने, उसकी तुलना प्रतिबंधित संगठन पीएफआई से करने से राजनीति गरमाई हुई है। इन मुद्दों पर विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे से छपरा टुडे डॉट कॉम के संपादक सुरभित दत्त ने बातचीत की।

विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने कहा कि कुछ राजनैतिक दल हिन्दू हित में कार्य करने वाले संगठनों का अपमान कर वोट बटोरना चाह रहें हैं जो विशुद्ध रूप से मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति है। इस देश में 80 प्रतिशत हिन्दू हैं। हिंदुओं का इतिहास ही इस देश का इतिहास है, हिंदुओं की संस्कृति ही इस देश की संस्कृति है।

बजरंग दल की तुलना पीएफआई से करना बिल्कुल गलत है। बजरंग दल अनुशासन के साथ कानून के दायरे में रह कर कार्य करने वाला संगठन है।

उन्होंने कहा कि यदि मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए हिंदुओं का अपमान होगा तो हिन्दू समाज को यह सोचना ही चाहिए की सत्ता में कैसे लोग बैठेंगे। हिन्दू हित के विपरीत सोचने वाले लोग यदि सत्ता में बैठेंगे तो इस देश की दुर्दशा हो जाएगी।

उन्होंने कहा कि विश्व हिन्दू परिषद Day To Day की राजनीति नहीं करता। राजनीति से विश्व हिन्दू परिषद का कोई लेना देना नहीं है। किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा व्यक्ति विश्व हिन्दू परिषद का सदस्य नहीं बन सकता।

उन्होंने हिन्दू राष्ट्र बनाने की चर्चाओं पर कहा कि विश्व हिन्दू परिषद की सोंच है कि भारत हिन्दू राष्ट्र था, है, और रहेगा। इसे हिन्दू राष्ट्र बनाना कोई विषय नहीं है। यह हिन्दू राष्ट्र है ही। कुछ लोगों के पास हिन्दू राष्ट्र के विषय में ठीक से समझ नहीं है। जैसे कोई इस्लामिक और ईसाई देश होता है, वैसे वो हिन्दू राष्ट्र को समझना चाहते हैं। उन्हे मन में वह एक राजनैतिक संकल्पना है। मगर हिन्दू राष्ट्र राजनीतिक संकल्पना नहीं है,यह समझना होगा। वह भू राजनैतिक संकल्पना नहीं है। वह भू सांस्कृतिक संरचना है। विश्व हिन्दू परिषद इस राष्ट्र को संगठित, प्रबल और शक्तिशाली बनाने का कार्य कर रहा है।

किसी भी जिम्मेदार संगठन और नागरिक का यह कर्तव्य है कि राष्ट्र में क्या हो रहा है, योग्य नीतियाँ बन रहीं हैं की नहीं, इसके बारे में सोचना ही चाहिए। विश्व हिन्दू परिषद का आह्वान है कि सभी नागरिकों को मतदान करना चाहिए। हिन्दू हित ही देश हित है, यह किसी के भी विरुद्ध नहीं है। हिन्दू हित राजनीति का नहीं बल्कि विश्वास का विषय बनाना चाहिए।

 

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महान संत, विचारक और समाज सुधारक स्वामी रामकृष्ण का जन्म 18 फरवरी, 1836 को पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम खुदीराम और मां का नाम चंद्रमणि देवी था।

कहते हैं कि रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं का अनुभव हुआ था। खुदीराम ने सपने में देखा कि भगवान गदाधर ने उन्हें कहा की वे स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बचपन का नाम गदाधर था। अल्पायु में पिता का साया उनके सिर से उठ गया। इस कारण परिवार की जिम्मेदारी ऊनके ऊपर आ गई। बारह साल की उम्र में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। परंतु कुशाग्र बुद्धि के होने के कारण उन्हें पुराण, रामायण, महाभारत और भगवद् गीता कंठस्थ हो गई थी।

स्वामी रामकृष्ण की बचपन से ही ईश्वर पर अटूट श्रद्धा थी। उन्हें विश्वास था कि ईश्वर उन्हें एक दिन जरूर दर्शन देंगे। ईश्वर के दर्शन पाने के लिए उन्होंने कठोर तप और साधना की। ईश्वर के प्रति भक्ति और साधना के कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सारे धर्म समान हैं। सभी धर्म ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। उन्होंने मानव सेवा को सबसे बड़ा धर्म समझा। इसी कारण उन्होंने लोगों से हमेशा एकजुट रहने और सभी धर्मों का सम्मान करने की अपील की। उनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानंद थे। स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और अपने गुरु के विचारों को देश और दुनिया में फैलाया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे थे। उनके गले में कैंसर था। डॉक्टरों ने उन्हें समाधि लेने मना किया था। उपचार के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। 16 अगस्त, 1886 को स्वामी रामकृष्ण बृह्मलीन हो गए।

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