(डॉ प्रशांत सिन्हा) मेरे पिताजी अक्सर जयप्रकाश आंदोलन की चर्चा अपने मित्रों से करते थे और मैं उनके पास बैठ कर उनकी बातें सुना करता था। मेरा विद्यालय जयप्रकाश बाबू के घर के ठीक सामने था। मैं हमेशा उन्हें धूप में किताबें पढ़ते हुए देखा करता था। शिक्षकगण भी उनके विषय में चर्चा किया करते थे।

जयप्रकाश बाबू के घर पर देश विदेश के गणमान्य लोगों का आना जाना लगा रहता था। इससे अनजाने में ही जयप्रकाश बाबू में लगाव हो गया। उनके विषय में कहीं भी चर्चा होती थी मैं ध्यान से सुना करता था। उनके व्यक्तित्व और उनके द्वारा दिए गए नारा “ सम्पूर्ण क्रांति “ से मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैं राजनीति में नहीं हूँ लेकिन अछूता भी नहीं हूँ क्योंकि पटना या बिहार की राजनीति का तापमान हमेशा ऊँचा रहता है।

बिहार में राजनीतिक जागरूकता देश के दूसरे राज्यों से ज़्यादा है।ये सभी को मालूम है जयप्रकाश बाबू चिंतक भी थे और सामाजिक आंदोलन के ऐसे पुरोधा भी थे कि इन्दिरा गांधी की सत्ता हिली ही नहीं वे ख़ुद भी हार गयीं। यह कोई मामूली घटना नहीं थी। जयप्रकाश बाबू को विश्व के कोने कोने के लोग जानते थे।अपनी अपनी तरह से विचारकों ने उनका मूल्याँकन भी किया था। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर सम्पूर्ण आंदोलन तक का जेपी का योगदान जगज़ाहिर है।

राजनीति एवं सत्ता दोनो अलग अलग है ये मैंने जयप्रकाश बाबू को थोड़ा जानने के बाद जाना। अधिकांश लोग राजनीति और सत्ता को एक मानते हैं। लोग राजनीति में आते हैं और सत्ता दौड़ में शामिल हो जाते हैं। जयप्रकाश नारायण ने इस नियम को तोड़ा। वे अपनी ज़िंदगी के आख़िरी क्षण तक राजनीति में रहें लेकिन सत्ता को ठुकराया। वे चाहते तो सत्ता के शिखर तक आसानी से पहुँच जाते। भारत के राजनीतिक आकाश पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ध्रुवतारे की तरह बने रहेंगे।

लोगों ने पूरे मन से उन्हें “लोकनायक” की उपाधि दी। वह ऐतिहासिक क्षण थी – 5 जून 1975 । जगह – पटना का गांधी मैदान । यह मैदान अनेक घटनाओं का जीता जागता गवाह है। पूरे बिहार से लोग विधान सभा भंग करने की माँग को लेकर पटना में जुटे थे। जेपी उस जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। दस लाख से भी ज़्यादा लोगों की जुलूस थी। उस भीड़ से गांधी मैदान छोटा पड़ गया था। गांधी मैदान की सभा में उनके सिर पर लोगों ने “लोक नायक “ का ताज रख दिया जो हमेशा लगा रहा। यहाँ पर जयप्रकाश नारायण ने भी लोगों से अपील की। उन्होंने कहा था “ दोस्तों , ये संघर्ष सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है। इसके उद्देश्य दूरगामी है। भारतीय लोकतंत्र को वास्तविक और सूधृढ़ बनाना और जनता का सच्चा राज क़ायम करना है। एक नैतिक, सांस्कृतिक, तथा शैक्षणिक क्रांति करना, नया बिहार बनाना और नया भारत बनाना है। यह सम्पूर्ण क्रांति है – टोटल रेवलूशन ( total revolution ) उसके बाद यह नारा निकला
“सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है ।

सम्पूर्ण क्रांति का अर्थ प्रत्येक दिशा में सतत विकाश ही समग्र क्रांति है।आचार परिवर्तन, विचार परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन, एवं शिक्षा में परिवर्तन कर के उन्हें जीवनपयोगि बनाने की आवश्यकता है। ग्राम स्तर से राष्ट्र स्तर तक जनसमिति एवं छात्र समिति बना कर छात्र जन-समस्याओं का निराकरण करते हुए तथा स्वच्छ छवि वाले जनप्रतिनिधियों को भेजना सुनिश्चित करना होगा।जन विरुद्ध कार्य करने पर प्रतिनिधि वापसी का अधिकार का उपयोग करते हुए उन्हें पदच्युत करना ताकि जनजीवन उन्नत एवं सरस बनाया जा सके।जयप्रकाश जी ने सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन में अंतर्जातिय विवाह और जनेउ तोड़ने का कार्यक्रम अपनाया था। इसके साथ ही उन्होंने जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में काम करने के लिए लोगों को युवकों एवं युवतियों को संगठित करना शुरू कर दिया था।साथ ही बिना तिलक दहेज के सादगी के साथ शादी विवाह का कार्यक्रम भी शुरू कर दिया था।
जयप्रकाश नारायण की दृष्टि में सम्पूर्ण क्रांति का अर्थ : सम्पूर्ण क्रांति का मतलब समाज में परिवर्तन हो – सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक,और नैतिक परिवर्तन।सामाजिक परिवर्तन ऐसा हो कि सामाजिक कुरीतियाँ दूर हो। इसमें से नया समाज निकले जिसमें सभी सुखी हों।अमीर ग़रीब का जो आकाश पाताल का भेद है वह नहीं रहे। शोषण न हो इंसाफ़ हो।आर्थिक परिवर्तन ऐसा हो कि जो सबसे नीचे के लोग हैं जो सबसे ग़रीब हैं – चाहे वे किसी जाति या धर्म के हों ऊपर उठे।सांस्कृतिक परिवर्तन है – समाज में त्याग, बलिदान,प्रेम, अहिंसा, भाई चारा आदि सदगुणों का विकास करना।

जयप्रकाश शुरू से ही युवा हृदय सम्राट के रूप में विख्यात थे। नौजवानों की उनके ऊपर अटूट आस्था थी। इसी आस्था और प्यार के चलते अपने जीवन के चौथेपन में भी करोड़ों युवक, किशोरों का नेतृतव कर सके।आज के युवकों को लोक नायक जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति “ को समझने की आवश्यकता है

 

 

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Exclusive Interview: छपरा के विधायक डॉ सीएन गुप्ता

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Exclusive Interview: जनसुराज के नेता व युवा व्यवसायी ई० अजित कुमार सिंह

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#SundayMotivation: जयप्रकाश विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष प्रोo (डॉ) विजय कुमार सिन्हा ने अपने घर में बच्चों के लिए बनाया #RAINBOW क्लब, प्रत्येक रविवार निःशुल्क होती है प्रतियोगी परीक्षाओं की पढ़ाई।
देखिए VIDEO

 

#Motivational #Education #SocialService #Chhapra #Saran #ChhapraToday

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अहिल्याबाई होल्कर भारतीय इतिहास की उन महान महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने अद्वितीय नेतृत्व, धर्मनिष्ठा और प्रजावत्सलता से एक समृद्ध और न्यायपूर्ण राज्य की स्थापना की। 2025 में हम उनकी 300वीं जयंती मना रहे हैं, जो न केवल उनके व्यक्तित्व को स्मरण करने का अवसर है, बल्कि उनकी नीतियों और मूल्यों से प्रेरणा लेने का भी समय है।

जीवन परिचय:

अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गाँव में हुआ था। उनके पिता माणकोजी शिंदे एक साधारण किसान थे। सामाजिक रूप से रूढ़िवादी समय में भी अहिल्याबाई को शिक्षित किया गया, जो उनके भविष्य की नींव बना।

उनका विवाह इंदौर राज्य के युवराज खांडेराव होल्कर से हुआ। विवाह के पश्चात उन्होंने राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों में रुचि लेना प्रारंभ किया। खांडेराव की मृत्यु और फिर उनके ससुर मल्हारराव होल्कर की मृत्यु के बाद, अहिल्याबाई ने 1767 में इंदौर की गद्दी संभाली।

शासनकाल:

अहिल्याबाई का शासनकाल भारतीय प्रशासन का एक स्वर्ण युग माना जाता है। उन्होंने नारी नेतृत्व का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया, जो आज भी प्रेरणादायक है। उनके शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं:

न्यायप्रियता:

वे प्रतिदिन दरबार में बैठतीं और आम जनता की समस्याएँ स्वयं सुनतीं।

लोककल्याण:

उन्होंने सड़कों, कुओं, मंदिरों, धर्मशालाओं का निर्माण कराया। उनका ध्यान केवल इंदौर या मालवा तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने देशभर में कई धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण करवाया।

सांस्कृतिक संरक्षण:

वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ, अयोध्या, रामेश्वरम् जैसे तीर्थ स्थलों का जीर्णोद्धार उन्होंने ही कराया।

सशक्त प्रशासन:

उन्होंने कुशल मंत्रियों और अधिकारियों की एक टीम बनाई, जिसमें ईमानदारी और कार्यकुशलता को प्राथमिकता दी जाती थी।

व्यक्तित्व और विरासत:

अहिल्याबाई एक तपस्विनी शासिका थीं। वे अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन जीती थीं और राज्य को एक परिवार की भाँति चलाती थीं। वे धर्म में विश्वास रखती थीं, परंतु कभी भी अंधविश्वास या कट्टरता को बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक मुद्दों को भी समझा और यथासंभव उनका समाधान करने का प्रयास किया।

300वीं जयंती का महत्व:

2025 में अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती एक ऐतिहासिक अवसर है। यह केवल एक महापुरुष को श्रद्धांजलि देने का दिन नहीं, बल्कि उनके विचारों को अपनाने और वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में उनके सिद्धांतों को लागू करने का अवसर है।

अहिल्याबाई होल्कर भारतीय इतिहास की अमिट छवि हैं। उनकी 300वीं जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि देना तभी सार्थक होगा, जब हम उनके पदचिन्हों पर चलकर न्याय, सेवा, सादगी और समर्पण की भावना से समाज और राष्ट्र का निर्माण करें।

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विक्रम उपाध्याय

भारत के साथ युद्ध के लिए पागलपन की हद तक जाने वाला पाकिस्तान आखिर किस तरह आईएमएफ से 1.3 बिलियन डॉलर का ताजा कर्ज (लोन) पाने में सफल रहा? भारत भी आईएमएफ का एक पार्टनर देश है और उसका अपना वोटिंग शेयर है। भारत ने 09 मई को हुई आईएमएफ बोर्ड की बैठक में पाकिस्तान के वहशी होने का मुद्दा भी उठाया, लेकिन अंत में वोटिंग से अपने को अलग कर लिया। इसका कारण एक ही है कि अमेरिका समेत तमाम बड़े देश यह आभास दे रहे थे कि पाकिस्तान को आईएमएफ लोन नहीं दिया गया तो वहां और स्थिति खराब हो सकती है। पाकिस्तान में और अफरातफरी मच सकती है। भारत के वोट का भार तीन प्रतिशत से कम है, जो कि फैसले को प्रभावित करने के लिए काफी कम है। आईएमएफ लोन प्राप्त करने के लिए किसी भी देश को कुल वोट का 85 प्रतिशत प्राप्त करना जरूरी होता है और इसमें अमेरिका के वोट का सबसे अधिक प्रभाव होता है।

अमेरिका के वोट का भार 17 प्रतिशत है। यानी केवल अमेरिका ही किसी देश के लोन को अकेले रोक सकता है। अब जबकि सभी बड़े देश जानते हैं कि पाकिस्तान पूरी दुनिया में आतंकवाद का एक्सपोर्ट कर रहा है, फिर क्यों उसे आईएमएफ का लोन दिया जा रहा है। पाकिस्तान को लोन मिलने के पीछे जो कुछ आधार बने हैं, उनमें सबसे अधिक वजनी कारण है, पाकिस्तान द्वारा कई प्रमुख देशों को अपनी जमीन के इस्तेमाल की इजाजत देना है। पाकिस्तान ने चीन, अमेरिका, अरब देश और तुर्किये जैसे देशों को अपने यहां से मिलिट्री और व्यापारिक गतिविधियों को संचालित करने की इजाजत दे रखी है। उसमें भी चीन और अमेरिका पाकिस्तान को अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और चाहते भी हैं कि इस्लामाबाद उनका पिट्ठू बना रहे, इसलिए आतंकवाद को पालते देख भी आईएमएफ का लोन जारी होने दे रहे हैं।

यह देश पाकिस्तान को अलग से कर्ज देते हैं। वह अपने कर्ज के पैसे वापस पाने के लिए भी पाकिस्तान को कर्ज दिलाने में मदद कर रहे हैं। चीन ने पाकिस्तान को भारी कर्ज दे रखा है। पाकिस्तान चाइना इकोनोमिक कॉरिडोर में चीन ने इस्लामाबाद को 65 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज दे रखा है। तीन दशक में भी यह इकोनोमिक कॉरिडोर बन कर तैयार नहीं हुआ है। इसका आर्थिक लाभ मिलने के बजाय चीन के लिए यह बोझ बन गया है। चूंकि पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अपनी आय से चीन का कर्ज उतार सके, इसीलिए उस पर कर्ज लाद कर अपना पैसा निकालना चीन और अमेरिका दोनों के लिए सुविधाजनक रास्ता लगता है।

आईएमएफ के कोष में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अमेरिका की है। आईएमएफ जब लोन देता है, तो पुराने लोन की रिपेमेंट की ताकीद भी करता है। यानी आईएमएफ को अपने पैसे की भी चिंता रहती है। अपने पुराने पैसे की उगाही के लिए नए कर्ज के अलावा इस समय कोई रास्ता भी नहीं है। आईएमएफ केवल एक अंतरराष्ट्रीय फंडिंग एजेंसी नहीं है, बल्कि यह बड़े देशों के लिए आर्म ट्विस्टिंग टूल्स भी है। आईएमएफ अपने लोन की शर्तें मनमाने ढंग से तय करता है। यानी लोन लेने वाले देश की पूरी आर्थिक नीति को अपने ढंग से तय करने का अधिकार रखता है। इसलिए जो भी देश आईएमएफ के लोन की सिफारिश करता है, अपनी-अपनी शर्तों को लादने की कोशिश करता है। पाकिस्तान 1950 से ही आईएमएफ का लोन लेने की आदी हो चुका है। 20 बार से अधिक लोन ले चुका है।

अब भी उसके सामने आईएमएफ के सामने नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। पाकिस्तान का निर्यात सालों से ध्वस्त पड़ा है। टेरर एक्सपोर्ट से उसे उसे कुछ मिलने वाला भी नहीं है। उसके सामने हमेशा डॉलर की किल्लत बनी रहती है। अभी भी उसका विदेशी मुद्रा भंडार 13 अरब डॉलर के आसपास है। पाकिस्तान को खुद को जिंदा रखने के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। और आयात बिल का भुगतान उसे डॉलर में ही करना है, इसलिए आईएमएफ का लोन उसके अस्तित्व से ही जुड़ गया है। इसलिए वह अमेरिका और चीन दोनों का पिछलग्गू बनने के लिए तैयार रहताहै, ताकि आईएमएफ से उसे लोन आसानी से मिल जाए।

पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के आर्थिक संकट का समाधान आईएमएफ के इस ऋण से भी नहीं होगा। पाकिस्तान रोज के हिसाब से जी रहा है। 1.3 अरब डॉलर कुछ ही दिन में खर्च हो जाएंगे। अगले साल फिर पाकिस्तान एक नए लोन के लिए जायेगा। हां इस ऋण से पाकिस्तान पुराने ऋणों की कुछ किस्तें चुकाएगा और आवश्यक आयातों का भुगतान भी कर सकेगा। इसका साफ मतलब है कि पाकिस्तान को आईएमएफ लोन के लिए आगे भी अरब, अमेरिका, चीन और यूरोप के सामने मजबूर हो कर खड़ा रहना पड़ेगा। सभी देशों की शर्तें माननी पड़ेगी। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि पाकिस्तान अपनी व्यापक आर्थिक नीतियों में बदलाव करेगा, आतंकवाद की खेती छोड़कर भविष्य के संकट को हल करने पर जोर देगा।

पाकिस्तान के भ्रष्ट शासक पहले ही पाकिस्तान के नाम पर काफी उधार ले चुके हैं और पाकिस्तान को सुधारने के बजाय अपने निजी व्यवसायों को बढ़ाने में लगे रहते हैं। देश-विदेश में निजी संपत्तियां बनाने में लगे हैं। पाकिस्तान के लिए शर्मसार बात यह भी है कि वह अपने मौजूदा ऋणों को चुकाने में बुरी तरह विफल रहने के बाद भी भारी कर्ज के पीछे भाग रहा है। अब आईएमएफ और अन्य वित्तीय संस्थानों को भी सोचना होगा कि वे आगे कैसे कोई ऋण कैसे स्वीकृत कर सकते हैं, जब देश अपनी पॉलिसी में दूसरे देश में आतंकवाद फैलाने को प्रमुखता देता है और जिसका स्वाद अमेरिका और चीन भी चख रहे है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक विषयों के विशेषज्ञ हैं।)

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{कश्मीरा सिंह}

विश्व के इतिहास में यह पहला अवसर है जब सेना के ऑपरेशन का नाम “ऑपरेशन सिन्दूर” दिया गया है। ऑपरेशन सिन्दूर उन महिलाओं को समर्पित है जिसकी माँग का सिन्दूर पोंछकर राख भर दिया गया है।  बीते 22 अप्रैल को पहलगाम के वैसरन घाटी में खुशियाँ मनाने गए जोड़ों को अथाह दुख के सागर में डूबो कर अकेला और अधूरा कर दिया गया।

याद कीजिए, शुभम् द्विवेदी की पत्नी ऐशान्यी द्विवेदी का वीडियो, पति को गोली लगने के बाद उसने आतंकवादियों से कहा कि – “मुझे भी गोली मार दो।” आतंकियों ने उन्हें कहा था कि- “जाकर मोदी से कह देना।”

मोदी ने वही किया जिसकी दुनिया को उम्मीद नहीं थी।

याद कीजिए – लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल का वैसरन घाटी में पति के शव के पास बैठकर आँसू बहाते हुए। उनका विवाह 16 अप्रैल को हुआ था और 22 अप्रैल को उन्हें गोली मार दी गई। मात्र छह दिन के बाद ही विधवा हो गई हिमांशी। क्रूरता की हद को पार कर दिया था आतंकवादियों ने।
सबसे दुखद था धर्म पूछकर हत्या करना। यह एक खुली चुनौती थी कि भारत में रहना है तो कलमा पढ़ना होगा! इस्लाम स्वीकार करना होगा!
इसका सीधा अर्थ है नरसंहार का सहारा लेकर इस्लाम का प्रसार करना जो वे सदियों से करते आ रहे हैं।

मोदी जी ने आतंकवादियों की इस चुनौती को स्वीकार किया और वह किया जिसके बारे में दुनिया सोच भी नहीं पायी थी। सबसे सुखद और विश्वास दिलाने वाली बात है कि इस ऑपरेशन का कमांड दो महिला नायिकाओं लेफ्टिनेंट कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को मिला, जिन्होंने सफलता पूर्वक ऑपरेशन सिन्दूर का संचालन किया। पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के नौ ठिकानों पर हमला करके उसे ध्वस्त कर दिया गया । नब्बे आतंकियों के मारे जाने की सूचना है।
यह तो बदला लेना हुआ। मोदी जी को इसके बाद की तैयारी भी करनी होगी ताकि आतंकी कभी सिर नहीं उठा सकें।

प्राचीन काल में जैसे असुरों को परास्त कर पाताल लोक भेज दिया गया था उसी तरह इन आतंकियों को भी जमींदोज कर देना चाहिए।

लेखक साहित्यकार हैं।

(यह लेखक के निजी विचार हैं) 

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देश-दुनिया के इतिहास में 22 अप्रैल की तारीख का अहम स्थान है। इसी तारीख को हर साल दुनिया में विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस साल इसकी थीम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ है। पृथ्वी दिवस मनाने का मकसद पर्यावरण संरक्षण की तरफ सभी का ध्यान खींचना और यह कोशिश करना है कि सभी पृथ्वी को खुशहाल बनाए रखने में योगदान दें। यह हर पीढ़ी की जिम्मेदारी बनती है कि वह आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वस्थ और खुशहाल पृथ्वी बनाए रखे। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को बढ़ावा देना, पर्यावरण को सुरक्षित रखना, पर्यावरण संरक्षण में आने वाली चुनौतियों से लड़ना, लोगों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के तरीके बताना, जनसंख्या वृद्धि पर नजर रखना, वनों की कटाई को रोकना, प्रदूषण कम करने की तरफ कदम बढ़ाना और पृथ्वी के हित में कार्य करने के लिए सभी को जागरूक करना ही इस दिन को मनाने का मकसद है।

हर साल पृथ्वी दिवस मनाने के लिए खास थीम चुनी जाती है। इस साल की

थीम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ का खास मकसद लोगों, संगठनों और देशों की सरकार को क्षय होने वाले ऊर्जा स्रोतों को दोबारा इस्तेमाल किए जाने वाले स्रोतों में बदलना और एक टिकाऊ भविष्य की नींव रखने के लिए प्रेरित करना है। इस थीम के माध्यम से यह लक्ष्य निर्धारित करना है कि 2030 तक दुनियाभर में उत्पादित अक्षय ऊर्जा की मात्रा को तीन गुना करना है जिसमें भू-तापीय, जल विद्युत, ज्वारीय, पवन और सौर ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों पर विशेष जोर दिया जाएगा।

पहली बार दुनिया ने 22 अप्रैल, 1970 में पृथ्वी दिवस मनाया था। पृथ्वी दिवस को मनाने की शुरुआत का श्रेय अमेरिकी राजनेता और पर्यावरण एक्टिविस्ट सीनेटर जेलार्ड नेल्सन को जाता है। इसके बाद एक्टिविस्ट डेनिस हायस भी जेलार्ड के साथ इस मुहिम में जुड़ गए। साल 1990 में पृथ्वी दिवस पर 141 राष्ट्रों के 20 करोड़ लोगों ने इस दिवस को मनाया था और साल 1992 में ब्राजील में होने वाली यूनाइटेड नेशंस की एनवायरमेंट और डेवलपमेंट कॉन्फ्रेंस की नींव रखी थी। इसके बाद हर साल करोड़ों लोग पृथ्वी दिवस को मनाते हैं।

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डॉ प्रशांत सिन्हा

बसंत ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है।  

बसंत पंचमी, प्रकृति और ज्ञान के संगम का पर्व है। अधिकांश हिंदू त्यौहार प्रकृति के चक्रों से निकटता से जुड़े होते हैं और आध्यात्मिकता और पर्यावरण के बीच परस्पर क्रिया से समग्र रूप से जुड़े होते हैं। बसंत पंचमी का त्यौहार जो वसंत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है, इससे अलग नहीं है।  बसंत पंचमी समुद्र तट की उदासी के बाद प्रकृति के जगने का प्रतीक है।

नये जीवन को समरूपता घटित होते देखना, फूलों को खिलते देखना और पक्षियों के चहचहाने की वापसी, प्रकृति के चक्रीय चमत्कारों के प्रति विस्मय और प्रशंसा की भावना पैदा होती है। खिलते हुए सरसों के पौधे और सूरज की चमक का प्रतीक, जीवंत पीले रंग का परिदृश्य और उत्सव पर हावी रहता है। बसंत पंचमी का संदेश केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व और ब्रह्मांड के कल्याण के लिए प्रेरणादायक है। प्रकृति को सहेजने से जीवन खिलता है और संस्कृति को सहेजने के लिए साहित्य और सुसंस्कृत वाणी की आवश्यकता होती है। भारत से ही पूरे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला है। ज्ञान एक ऐसा दान माना जाता है जिसे देने से वह कभी घटता नहीं, बल्कि बढ़ता जाता है।

वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा के साथ ही वसंत ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा आराधना की जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि हम अपने भीतर के ज्ञान, बुद्धि और विवेक का समुचित उपयोग करते हुए अपने जीवन के बारे मे कोई निर्णय लें यानि अपने जीवन का संगीत वाद्य हमारे हांथ में हो।ग्रंथों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघ मास की पंचमी तिथि निर्धारित की गई है। बसन्त पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। ऋग्वेद में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। मां सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है। वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। 

वसंत केवल प्रकृति का श्रृंगाकारक ही नही अपितु मानवीय चेतना को उदभासित करने वाला भी है। वीणा पुस्तक धारिणी मां शारदे को वसंत का आध्यात्मिक देवी मानकर उनकी पूजा अर्चना का विधान इसी संदर्भ में किया जाता है। यह पर्व जीवन को मधुर और सरस बनाने का पर्व है। वसंत पंचमी का पर्व भारत की सनातन संस्कृति का प्रमुख पर्व है जिनके आने पर शरद ऋतु की ठिठुरन गुनगुनी धूप से मद्धिम पड़ जाती है। प्रकृति भी इठलाती हुई नजर आती है। हालाकि जलवायु परिवर्तन के कारण फर्क पड़ रहा है। फिर भी वसंत ऋतु में मन की प्रफुलता कुछ अच्छा नवीन करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे में वसंत जीवन का संगीत बन जाता है। बसंत पंचमी पर पीले रंग का विशेष महत्व होता है।

प्रकृति की चमक और जीवन की जीवंतता को दर्शाने वाले पीले रंग के रूपांकन दिन भर बार-बार दिखाई देते हैं । रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने वसंत का अत्‍यंत मनोहारी चित्रण किया है। भगवान कृष्ण ने गीता में ‘ऋतुनां कुसुमाकरः’ कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है। जैसे मैने उपर जिक्र किया वसंत का उत्सव प्रकृति की पूजा का उत्सव है। सदैव सुंदर दिखने वाली प्रकृति वसंत ऋतु में सोलह कलाओं में दीप्‍त हो उठती है। यौवन हमारे जीवन का मधुमास वसंत है तो वसंत इस सृष्टि का यौवन। मानव को अपने स्‍वास्‍थ्‍य और जीवन के सौंदर्य के लिए प्रकृति के अनुपम सान्निध्य में जाना चाहिए।

प्रकृति में ऐसा जादू है कि मानव की वह समस्‍त वेदनाओं को तत्काल भुला देता है। प्रकृति का सान्निध्य यदि सदैव प्राप्‍त होता रहे तो मानव जीवन पर उसका प्रभाव बहुत ही गहरा होता है। निसर्ग में अहंकार नहीं है। अत: वह प्रभु के अत्‍यधिक निकट है। इसी कारण निसर्ग के सान्निध्य में जाने पर हम भी स्‍वयं को प्रभु के अधिक निकट महसूस करते हैं। प्रकृति की सुंदरता व मानव की रसिकता में यदि प्रभु की भक्ति न हो तो वह विलास का मार्ग बनकर मनुष्‍य को विनाश के गर्त में डाल देती है। इसलिए वसंत के संगीत में भक्ति होना चाहिए।

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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा दिया गया `जय हिन्द’ का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया। `तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का उनका नारा भी उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। आजादी की जंग में प्रमुख भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 23 जनवरी को 127 वीं जयंती मनाई जा रही है। उनकी जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका पूरा जीवन ही साहस व पराक्रम का उदाहरण है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियां और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पांचवें बेटे थे। नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। उसके बाद उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेजिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई। उन्होंने इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय से सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया था।

1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस सिविल सर्विस की सरकारी नौकरी छोड़ कर कांग्रेस से जुड़ गए। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में नेताजी ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषचंद्र बोस उसके सदस्य थे।

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उनको जेल भेज दिया। जब सुभाष चंद्र बोस जेल में थे तब गांधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फांसी माफ कराने के लिये गांधीजी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गांधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें लेकिन गांधीजी अपना वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार द्धारा भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गयी। भगत सिंह को बचा नहीं पाने पर सुभाष बोस, गांधीजी और कांग्रेस से बहुत नाराज हो गये।

1930 में सुभाष के कारावास में रहते हुये ही कोलकाता महापौर का चुनाव जीतने पर सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबीयत फिर से खराब होने पर सुभाष इलाज के लिये यूरोप चले गये। सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष इटली के नेता मुसोलिनी से मिले। जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया।

1938 में गांधीजी ने कांग्रेस के हरिपुरा वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें उनकी कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। परन्तु गांधीजी इससे सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गांधीजी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गांधीजी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।

चुनाव में नेताजी सुभाष को 1580 मत व सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गांधीजी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताया। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। 3 मई 1939 को सुभाष ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की। उन दोनों की अनीता नाम की एक बेटी भी हुई।

जर्मनी जाकर नेताजी हिटलर से मिले। 1943 में उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया। वहां से वह जापान पहुंचे। जापान से वह सिंगापुर पहुंचे। जहां उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस वक्त रास बिहारी बोस आजाद हिंद फौज के नेता थे। उन्होंने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया लक्ष्मी सहगल जिसकी कैप्टन बनीं।

नेताजी के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। आजाद हिन्द फौज के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। खून भी एक-दो बूँद नहीं इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमें मैं ब्रिटिश साम्राज्य को डूबो सकूं। 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आजाद-हिन्द सरकार के नियंत्रण में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को शहीद द्वीप और स्वराज द्वीप का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इम्फाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से नेताजी ने गांधीजी को पहली बार राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी मांगा। आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका। किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 का नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारत में सेना के बल पर शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।

विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। जहां 30-35 हजार युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों को पराजित किया। पूर्व एशिया और जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिन्द फौज का विस्तार करना शुरू किया। रंगून के जुबली हॉल में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया। 18 अगस्त 1945 को नेताजी की मृत्यु के संबध में विवाद अबतक अनसुलझा है।

इनपुट एजेंसी 
(लेखक, रमेश सर्राफ धमोरा हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी से संबद्ध हैं।)

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(प्रशांत सिन्हा)

भारत भूमि पर समय समय पर ऐसी दिव्य विभूतियां जन्म लेती रही हैं जिन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति को अपनी प्रतिभा से आश्चर्य चकित किया है। जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1984 में अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया तब उस समय भारत सरकार ने उसकी महत्ता को समझते हुए सन 1984 में घोषणा किया स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस 12 जनवरी को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाएगा।

स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित सर्व धर्म सम्मेलन से लौटते समय रामेश्वरम के पंबन तट पर कहा था कि ” मेरी चिर पुरातन भारत माता एक बार फिर जाग रही है । मैं न तो ज्योतिषी हूं और न भविष्यवक्ता लेकिन मैं प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हूं कि आने वाली सदियां भारत की होगी। जिनकी आँखें नहीं है वे नहीं देख सकते। विछिप्त बुद्धि के लोग इसे नहीं समझ सकते। स्वामी विवेकानंद भारत के प्रति अत्याधिक लगाव रखते थे। वे एक देशभक्त संन्यासी थे।

स्वामी विवेकानंद विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और भारतीयता के क्रांतिकारी अग्रदूत भी। उनमें भारत की आध्यात्मिकता और भौतिक विकास की ललक थी। उन्होने एक बार कहा था ” मुझे उस धर्म व राष्ट्र से संबंध रखने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता सिखाई है। हम न केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते है। मुझे भारतीयता होने पर गर्व है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। जब वे चार साल बाद अमेरिका और ब्रिटेन की यात्रा कर भारत लौटे तो वे मातृभूमि को नमन कर पवित्र भूमि पर लेटकर लोट पोट हुए। यह मातृभूमि के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा और मां भारती के प्रति प्रेम था। उन्होने कहा था मातृभूमि का कण कण पवित्र और प्रेरक है इसलिए इस धूलि में रमा हूं।

उन्होने माना कि पश्चिम भोग लालसा में लिप्त है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मूल्य और लोकाचार भारत के कण कण में रचा बसा है। स्वामी विवेकानंद ने युवाओं के लिए कहा था ” उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए। उन्होने कहा था कि युवाओं में लोहे जैसी मांशपेशियां और फौलादी नसे हैं, जिसका हृदय वज्र तुल्य संकल्पित है। उन्होने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था । भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद के उद्बोधन के कारण हुआ। इस उद्बोधन में स्वामी विवेकानंद द्वारा सभी को ” भाइयों एवं बहनों ” कहकर संबोधित किए जाने से सभी के मन पर गहरा प्रभाव डाला। उस भाषण को आज भी याद किया जाता है।

वास्तव में स्वामी विवेकानंद आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद से बढ़कर दूसरा नेता नहीं हो सकता जिसने विश्व पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी हो। उन्होने देशवासियों को जो स्वाभिमान दिया है वह उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त कर हमारे अंदर आत्मसम्मान और अभिमान जगा देता है। स्वामी जी ने जो लिखा और कहा वह हमारे लिए प्रेरणा है। यह आने वाले लंबे समय तक युवाओं को प्रेरित व प्रभावित करता रहेगा।

शिकागो में दुनिया ने जब उन्हें सुना तब जाना कि भारत की धरती पर एक ऐसा व्यक्तित्व पैदा हुआ है जो दिशाहरा मानवता को सही दिशा देने में समर्थ है। शिकागो में विवेकानंद ने कहा था कि ” मुझे गर्भ है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों एवं देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दिया।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय वांग्मय और भारतीय धर्म संस्कृति का ही विश्व को परिचय नहीं कराया बल्कि सार्वभौमिक सहिष्णुता के उस सिद्धांत को संसार के हर कोने तक पहुंचाने की कोशिश भी की।

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27 सितंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में पैदा हुए हिंदी के समर्थ कवि एवं गज़लकार दुष्यंत कुमार ने महज 44 साल की उम्र में 30 दिसंबर 1975 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

इन 44 साल के छोटे से काल में दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जो ऊंचाइयां दीं, वह समय की रेत पर आज भी अंकित है।

दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नया अर्थ देते हुए उसमें अपने दौर की छटपटाहट को आकार दिया। लिहाजा, दुष्यंत कुमार के शेर आज भी मुहावरे की तरह इस्तेमाल होते हैं- मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

दुष्यंत की पंक्तियों को लेकर निदा फ़ाज़ली ने सटीक कहा है कि “दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है।

यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।

तभी तो दुष्यंत ने लिखा- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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