कुमार वीरेश्वर सिन्हा
आज हमारे महान शहनाई वादक स्व बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश, बल्कि हमारे भोजपुरी क्षेत्र के इस महान सपूत ने शहनाई वादन में अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किए। हालांकि सिनेमा फिल्मों में शहनाई बजाने से उन्होंने परहेज किया फिर भी एक फिल्म गूंज उठी शहनाई में बस उनकी शहनाई ही गूंजती रही।
बस दो ही सुर के इस कठिन साज पर खां साहब को कमाल की महारत थी। देश की आजादी के प्रथम महोत्सव पर 15 अगस्त 1947 को लालकिले से गूंजने वाली शहनाई खां साहब की ही थी जो वर्षो तक गूंजती रही।
आज दुर्भाग्य से शहनाई भी उन साजों में आ गयी है जो विलुप्त होती जा रही है। इस कठिन साज के साधकों का अभाव होता जा रहा है और आज के शोर भरे संगीत के युग में शहनाई की मधुर संगीत घुट सी रही है। वह जमाना गुजरा जमाना हो गया जब शादियों में नोबतखाने बनते थे और उस पर लुभावने और अवसर अनुकूल धुन बजते थे। यह कहना कदापि अनुचित नहीं होगा कि तब शादी या कोई शुभ अवसर बिना शहनाई वादन के नहीं होता था। मातमों में भी शहनाई के निर्गुण सुनने को
मिलता थे।
गीत संगीत का कोई मजहब नहीं होता और और बनारस में गंगा तट पर खां साहब की संगीत साधना और काशी विश्वनाथ की संगीत अर्चना के किस्से जग जाहिर हैं।
हमारे छपरा शहर में भी शहनाई की परंपरा थी और हाफिज खां साहब जो नई बाजार मुहल्ले के रहने वाले थे एक बहुत ही अजीम शहनाई वादक थे। बडे़ बुजुर्ग कहा करते थे कि एक बार छपरा के किसी तब की बड़ी हस्ती के यहाँ बनारस से कोई बारात आइ थी जिसमें वर पक्ष से बिस्मिल्ला खां साहब आए थे और कन्या पक्ष से हमारे छपरा के हफीज साहब और महफिल में दोनों शहनाई वादकों का भिड़ंत हुआ था। कौन जीता कौन हारा यह तो जानकारों ने ही समझा होगा, पर अंत में खां साहब को भाव विभोर हो यह कहते बहुतों ने सुना, ” मान गए, छपरा में भी कोई शहनाई बजाने वाला है “। खां साहब ने हफीज साहब को अपने साथ चलने को भी आमंत्रित किया था लेकिन हफीज साहब घर छोड़ कर जाने को राजी नहीं हुए।
मुझे खुशी है कि मैंने खां साहब को तो बस रेकोरडेड और गूंज उठी शहनाई में सुना है, पर हफीज साहब को रुबरू और बहुत करीब से। यहां तक कि मैंने सन 1958 में उनके साथ छपरा से चकिया तक का सफर रेल से और फिर चकिया से मधुबन (पूर्वी चम्पारण) का सफर बैलगाड़ी में तय किया था। बैलगाड़ी के डेढ़ घंटे के सफर में कभी तो हफीज साहब अपने कार्यक्रमों की कहानियों सुनाते तो कभी अपने मन से कोई धुन छेड़ देते। मुझे उनसे बहुत अपनापन महसूस होने लगा था जब मुझे
उन्होंने यह कहा कि बेटा हम तुम्हारे वालिद दोनों भाइयों के बारात में बजाए हैं और तुम्हारी बारात में भी बजाएंगे। पर दुःख है मेरी शादी के समय हफीज साहब दुनिया से कुच कर चुके थे।
यह जानकार कर काफी खुशी हुई कि उनके वंश के ही मोहम्मद पंजतन उनकी परंपरा को बखूबी निभा रहे है।
प्रो० कुमार वीरेश्वर सिन्हा
(लेखक राजेन्द्र कॉलेज, छपरा के अंग्रेजी विभाग के पूर्व प्राध्यापक है)