आपकी कलम से: ये जल, जंगल और ज़मीन

आपकी कलम से: ये जल, जंगल और ज़मीन

ये तस्वीरें हाल ही में मेरे द्वारा उड़िशा के कंधमाल के आदिवासी इलाके में फील्डवर्क के दौरान ली गयीं है। तस्वीरे तो बस सिमित दायरे में ही तथ्यों को रख पा रही है बाकी मैं वास्तविकता अपनी आँखों से देख बहुत विचलित हुआ। यानि की जंगल को लूटने या दोहन में कोई पीछे नहीं है। चाहे वो कॉर्पोरेट हो या वहाँ के निवासी…। सबसे ज्यादा चकित करने वाली बात मेरे लिए यही थी की बाहरी लोगों के द्वारा दोहन तो समझ में आता है लेकिन ये कैसे संभव है कि ये जिसका घर है वही खुद अपने घर को उजाड़ने में लगा है। मैं इससे पहले आदिवासियों को जंगल के संरक्षक के तौर पे जनता था पर स्थिति यहाँ ठीक इसके H लगी। यहाँ निर्वनीकरण जिस हद पे हो रहा है.

ऐसा लगता है अगले 4 से 5 सालों के ये जंगल साफ हो चुके होंगे और पहाड़ नंगे… और ये ताज्जुब की बात है कि वहाँ के स्थायी निवासी आदिवासियों के द्वारा भी भारी मात्रा में हो रहा है। मैंने इस संबंध में वहाँ के निवासियों से बात चित की तो ये बात सामने निकल के आयी कि वो जंगल साफ करने के लिए वहाँ आग लगा देते है और रात की रात लगभग 2-3 किलोमीटर का इलाका साफ हो जाता है और जब बारिश होगी तो राख बाह जायेगी और ज़मीन खेती करने लायक साफ हो जायेगा, जिसमे वो लोग कोंदुल (एक तरह की दलहन फ़सल) का पौधा लगाएंगे। आम तौर पर कोंदुल एक ज़मीन पर 3 फ़सल ही ऊंग पाता है फिर वो ज़मीन कोंदुल के ऊपज के लायक भी नहीं बचता। फिर वो ऐसा ही दूसरे जगह पर दुहराते हैं।

आम तौर पे मैंने वहाँ का जंगलो में शाल, सांगवान और इसी तरह के अन्य कीमती जंगली लकड़ियों के पेड़ देखे। जो इनके द्वारा लगायी गयी आग में जल के नष्ट हो जाते है और जिन्हें फिर बाद में बेच दिया जाता है या तो फिर स्थानीय निवासियों द्वारा घरेलु उपयोग में ले लिया जाता है। सोचने वाली बात ये नहीं है कि वो ऐसा कर के जंगल को नुकसान कर रहे है…. सोचने वाली बात ये है कि आख़िर वो ऐसा कर क्यूँ रहे हैं..??!! ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिससे वो अपने ही घर को उजाड़ने में लगे हैं..?

इस बारे में चर्चा करने पर ये बात सामने निकल के आयी की वहाँ खेती करने लायक सही भूमि नहीं है और जो है…वहाँ सिंचाई के लिए पानी प्रयाप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। फिर से एक बार आश्चर्य हुआ की वनों एवं वृक्षों से आच्छादित इस क्षेत्र में बर्षा तो भरपूर होती है पर फिर भी सिचाई की उचित व्यवस्था क्यों नहीं हो पाती…!!??

फ़िर थोड़े दिन जंगलो में घूमने पर पता चला वहाँ वाटर शेड का कोई प्रबंधन नहीं है। पहाड़ो से बारिश का पानी सीधे ढलानों से होते हुए पहाड़ी नदियों द्वारा बहाकर या तो बड़ी नदियों में मिल के बहार निकल जाता है और वहाँ रुकता नहीं । इस वजह से भूमिगत जल संरक्षित नहीं हो पा रहा और जल स्तर दिनों दिन तेजी से घटता जा रहा है। पहले हल्दी का उत्पादन यहाँ प्रचुर मात्रा में होता था लेकिन पानी के कमी के वजह से अब उसका उत्पादन मुश्किल हो रहा है और सिर्फ कोंदुल की फसल ही ऐसी फ़सल है जो पहाड़ों पर कम पानी में भी सही से उपज जाता है। इस वजह से लोग अपनी जीविका चलाने के लिए जंगलों को साफ कर के कोंदुल की खेती कर रहे है या फिर मजदूरी करने शहरों में पलायन कर रहे हैं। जबकि मैंने गौर किया तो पाया कि वहाँ पर नॉन टिम्बर फॉरेस्ट प्रोडक्ट की प्रचुर उपलब्धता है, जैसे की आम, कटहल, नट्स, काजू , हरी आर्गेनिक सब्जियां और कई तरह में अन्य औषधीय पेड़ पौधे । इन सब चीजों का प्रोसेसिंग यूनिट लगा कर और सही से विपणन कर के भी जीविका चलाया जा सकता है। लेकिन शिक्षा की कमी और इन उत्पादों के सही उपयोगिता में बारे में जरुरी स्किल ट्रेनिंग की भारी कमी का खामियाजा जंगलो की अँधा धुंध सफाई से पर्यावरण को नुकसान पंहुचा के हो रहा है।

मेरा सुझाव यही है कि सरकार और सम्बंधित गैर सरकारी संगठनों को इस बात को हल्के में न ले…और समय रहते वहाँ सिचाई की उचित व्यवस्था वाटर शेड मैनेजमेंट कर के छोटे छोटे चेक डैम बना कर किया जाये और उन आदिवासी लोगों का कौशल बढ़ाया जाए ताकि नॉन टिम्बर फारेस्ट प्रोडक्ट का बाज़ार बने और उनको वैकल्पिक रोजगार मिले और जल्द से जल्द जंगलों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचाया जा सके।

ये लेखक के निजी विचार है

 

मनोहर कुमार ठाकुर
टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, तुल्जापुर

0Shares
Prev 1 of 242 Next
Prev 1 of 242 Next

छपरा टुडे डॉट कॉम की खबरों को Facebook पर पढ़ने कर लिए @ChhapraToday पर Like करे. हमें ट्विटर पर @ChhapraToday पर Follow करें. Video न्यूज़ के लिए हमारे YouTube चैनल को @ChhapraToday पर Subscribe करें