पहाड़ों से अब और छेड़खानी नहीं !

पहाड़ों से अब और छेड़खानी नहीं !

{प्रशांत सिन्हा}
जोशीमठ में दरारें और हिमाचल प्रदेश में बीते सात सालों में 130 से ज्यादा बार छोटे भुकंप आए । इन पहाड़ों को जल विद्युत, रेल परियोजना एवं बेतहाशा बन रही सड़कों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। पिछले 32 वर्षो के दौरान उत्तराखंड और नेपाल में आए भूकंपों ने हजारों लोगों की जान ले ली है। उसके बाद देखा गया है कि पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ एवं भूस्खलन ने बहुत तबाही मचाई है, कह सकते हैं कि पहाड़ आपदाओं का घर बन गया है। हर वर्ष अपार जनधन की हानि हो रही है। पर्यावरणविद और भू वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे है कि गंगा और उसकी सहायक नदियां अस्तित्व के संकट से जूझेगी। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए सड़कें, और होटलें बनाई जा रही हैं।

इन्हीं वजहों से हिमालय दरकने लगा है। हिमालय की छोटी एवं संकरी भौगोलिक संरचना को नज़र अंदाज़ कर के सुरंग आधारित परियोजनाएं बहुमंजिले इमारतों का निर्माण, वनों का व्यवसायिक कटान करने से बाढ़ एवं भूस्खलन के खतरे और अधिक बढ रहे हैं। पहाड़ों में निवास करने वाले लोगों को मालूम नही होता कि कब उन्हें आपदा की चपेट में अपनी जिंदगी गंवानी पड़े। पहाड़ों की खूबसूरत नजारें पर्यटकों को जितना आकर्षित करतीं हैं उससे कई गुणा यहां की धरती की सहनशीलता कमजोर हो रही है। यहां विकास के नाम पर ऐसी चकाचौंध खड़ी करने की कवायद जारी है जैसे जलती आग के आकर्षण में छोटे छोटे कीट पतंग अपना जीवन गवां देते हैं। मनुष्यों के जीवन को सुरक्षित रखने की गुंजाइश इसमें नही है।

प्रकृति की अनमोल विरासत जल, जंगल, ज़मीन, बर्फ, खनिज आदि सबकुछ व्यापार की वस्तु बन गईं है। जो इसको बाधित करने करने की हिम्मत दिखाता है वह तत्काल विकास विरोधी की श्रेणी में गिना जाने लगता है। इस तरह के व्यवहार से हम कहीं न कहीं पर्वतों के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। इस समझ से ही पर्यावरणीय अन्याय को खुली छूट मिल रही है। इस विषय पर मनुष्यों की बहस व टकराहट में कमी नहीं है। जिसे हिमालय व अन्य पहाड़ अडिग होकर चुपचाप सुन रहे हैं। यह कहावत सही है कि हिमालय टूट सकता है लेकिन झुक नही सकता। वहां चाहे बहती नदियों को रोकने के लिए छोटे बड़े बांध बना रहे हों या चौड़ी सड़कों का निर्माण इस विकास में ही विनाश छुपा हुआ है। कुछ महीने पहले जोशीमठ में जो कुछ हुआ उसे क्या चेतवानी नही समझना चाहिए ? मुख्य वजहों में पनबिजली घरों का निर्माण और अवैज्ञानिक तरीकों से बनी सड़कें बताई जा रही हैं। सरकारों को चाहिए कि पनबिजली परियोजनाओं का मूल्यांकन करें और इसपर अविलंब रोक लगाए।

हिमालय में रेल परियोजनाएं भी निर्माणधीन है। सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों ( टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली ) को जोड़ेगी जिससे 30 से ज्यादा गावों को विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस परियोजना के लिए लंबी लंबी सुरंगें बनाई जा रही हैं। इसमें से एक 14.8 कि मी लंबी सुरंग जो देवप्रयाग से जनासु तक होग बोरिंग मशीन से बन रही है। शेष ड्रिल तकनीक से बारूद लगा कर विस्फोट किए जा रहे हैं। हिमालय की ठोस और कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेडों की जड़ें भी हिला रहे हैं। धमाकों से घरों में दरारें पड़ रही हैं।

हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज्यादा संवेदनशील है। रेल परियोजनाएं इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे निर्माणाधीन है। घरों में दरारें और जमीन धंसने की घटनाऐं सामने आ रही हैं।इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गईं चेतावनियों का एक ही संकेत है कि हमें इसके प्रति गंभीर हो जाना चाहिए। केदारनाथ और कश्मीर में भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतवानी दी गईं थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से छेड़छाड़ या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गईं तो नतीजे भयवाह होगी।

इस खतरे की तमाम चेतावनियों और आह्टो के बावजूद न तो सरकारें सचेत हैं और न आमलोग। दोनों की ओर से विनाशकारी विकास की गतिविधियां धड़ल्ले से जारी है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के नोटिशों का किसी को कोई परवाह नही है ऐसा प्रतीत होता है। पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरु करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति ज़रूरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते इस विकास के नाम पर आमतौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती है। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती है, लेकिन सिर्फ़ अदालतों के भरोसे ही सबकुछ छोड़कर बेफिक्र नही हुआ जा सकता है।

पहाड़ों को बचाने के लिए जरूरत है व्यापक लोक चेतना अभियान की। पहाड़ केवल पत्थर के ढेड़ नही होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद ज़रूरी है। वैश्विक तापमान और जलवायू परिर्वतन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। पहाड़ों में पेड़ों को काटने की बजाय पौधरोपण को जमकर बढ़ावा देना चाहिए। हरे भरे सुंदर पहाड़ हमें जड़ी बूटी , शुद्ध वायु व जल द्वारा हमें जीवन देते है। हम सभी को इसे बचाने के लिए संकल्प लेना चाहिए।

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