आपकी कलम से: निगाहें ढूंढती है गाँव के उन बाजारों को…

गांवों में बाजार लगाने की सालों पुरानी प्रथा अब विलुप्ति के कगार पर है. एक समय था जब प्रत्येक गाँव में निर्धारित दिन, तिथि को बाजार लगता था. कुछ समय पहले तक शहरों की तरह गावों में स्थाई दुकानें नही हुआ करती थी.

कई घरो के चूल्हे इन बाजारों से होनी वाली आमदनी से जला करते थे तब कम पूंजी वाले दुकानदार भी आसानी से अपनी चलती-फिरती दुकान लगाया करते थे. उन्हें इन दुकानों को लगाने के एवज में जमीन मालिक को या तो मामूली रकम अदा करनी होती थी या फिर उसके बदले में समान दे दिया करते थे. कई दफा तो दरियादिली में लोग उन्हें मुफ़्त में ही दुकान लगाने दिया करते थे.

अब बाजार के उन छोटे दुकानों की जगह स्थाई दुकाने लगती है. हजारों की रकम उसके एवज में जमा की जाती है. नतीजतन स्वतः ही सामानों के दाम बढ़ जाते है.

हाँ ये सच है कि अब जब जरूरत होती है, हमे पसंद या जरूरत की वस्तुएं उसी वक्त मिल जाती है. परन्तु इस बाजारवाद के नए स्वरूप ने सैकड़ो छोटे दुकानदारो को उनके पारम्परिक पेशे से जुदा भी तो किया है. 
तब लोग मिल-बाटकर अपनी जरूरते पूरी कर लेते थे. लोग समूहों में बाजार जाते थे, अत: गाँव-जवार के लोगों के मिलन का एक केंद्र होते थे ये बाजार.

अब जिसे जिस की जरूरत है वह उसी वक्त खरीद लाता है. पहले लोग एक दूसरे से मांगकर अपनी जरूरते पूरी किया करते थे जिससे आपसी प्रेम और सोहार्द बना रहता था. अब वो भाईचारा भी खात्मे की ओर है….
यह लेखक के अपने विचार है.

लेखक का परिचय  anurag ranjan

 

 

 

अनुराग रंजन

छपरा(मशरक)
वर्तमान में इंजीनियरिंग परीक्षाओं की तैयारी. साथ ही कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित होते रहते है. भोजपुरी के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील. वर्तमान में कोटा राजस्थान में निवास.

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