कलकत्ता के बंगाली कायस्थ परिवार में 12 जनवरी 1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद का पूरा नाम नरेंद्रनाथ दत्त था. उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था. स्वामीजी के माता और पिता के अच्छे संस्कारो और अच्छी परवरिश के कारण स्वामीजी के जीवन को एक अच्छा आकार और एक उच्चकोटि की सोच मिली.

स्वामीजी का ध्यान बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर था. उनके गुरु रामकृष्ण का उनपर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा, जिनसे उन्होंने जीवन जीने का सही उद्देश जाना, स्वयम की आत्मा को जाना और भगवान की सही परिभाषा को जानकर उनकी सेवा की और सतत अपने दिमाग को भगवान के ध्यान में लगाये रखा.

विवेकानंद ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी भारत में सफलता पूर्वक चल रहा है.

“उठो, जागो और तब तक रुको नहीं 

जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये !!”

स्वामी विवेकानंद द्वारा कहे इस वाक्य ने उन्हें विश्व विख्यात बना दिया था. और यही वाक्य आज कई लोगो के जीवन का आधार भी बन चूका है. इसमें कोई शक नहीं की स्वामीजी आज भी अधिकांश युवाओ के आदर्श व्यक्ति है. उनकी हमेशा से ये सोच रही है की आज का युवक को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति करने की जरुरत है.

भारतीय संस्कृति की सुगंध को विदेशों में बिखेरनें वाले स्वामी विवेकानंद जी को उनकी जयंती पर नमन.

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Chhapra: भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने जिस विद्यालय में पढ़कर शिक्षा ग्रहण की उस विद्यालय को आज लोग जिला स्कूल के नाम से कम शिक्षा विभाग के दफ्तर के नाम से ज्यादा जानते है. विद्यालय का पता विद्यार्थियों के नामांकन के लिए कम विभागीय पत्र को भेजने के लिए ज्यादा होता है.

जिला स्कूल में दो विद्यालय संचालित किए जाते है. एक वह विद्यालय जहां डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने शिक्षा ग्रहण की थी वही वर्षों पूर्व इसी परिसर में जिला स्कूल नवस्थापित की स्थापना की गई. जिला स्कूल में अब वर्ग 9 से 10 एवं 11 और 12 वी कक्षा तक की पढ़ाई की होती है.

वही जिला स्कूल नवस्थापित विद्यालय सिर्फ कक्षा 10 तक ही संचालित होता है. दोनों विद्यालय में करीब 1200 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते है. वही शिक्षकों की संख्या जिला स्कूल के माध्यमिक में 2 और उच्चतर मध्यमिक में 15 से अधिक है साथ ही 4 चपरासी भी कार्यरत है. नवस्थापित विद्यालय में माध्यमिक के 07 शिक्षक है जबकि उच्चतर माध्यमिक में शिक्षक नही रहने के कारण मान्यता मिलने के बावजूद भी छात्रों का नामांकन नही लिया जाता है. 

जिला स्कूल में भवनों की संख्या पर्याप्त है. देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने जिन वर्ग कक्षों में शिक्षा प्राप्त की थी आज उन कमरों के अलावे दो दर्जन से अधिक कमरे दोनों ही विद्यालयों के नाम पर है. लेकिन अफ़सोस की उन दो दर्जन कमरों में से महज एक 12 कमरों में ही छात्र शिक्षा ग्रहण करते है अन्य चार पांच कमरों में विद्यालय का कार्यालय चलता है. वही शेष सभी कमरों में शिक्षा विभाग द्वारा अतिक्रमण है.

जिला स्कूल में जिला शिक्षा पदाधिकारी के कार्यालय के अलावे जिला कार्यक्रम पदाधिकारी लेखा योजना, जिला कार्यक्रम पदाधिकारी आरएमएसए एवं साक्षरता, जिला कार्यक्रम पदाधिकारी मध्याह्न भोजन का कार्यालय है. जहां पदाधिकारियों के व्यक्तिगत कक्ष के अलावे दो से तीन कमरे कार्यालय के काम के लिए अतिक्रमण में है. विद्यालय परिषर में पूरे दिन शिक्षकों और आमजन की भीड़ जमा रहती है जिससे छात्रों को पठन पाठन में ज्यादा कठिनाई होती है.

विगत दिनों चली थी गोली

जिला स्कूल परिसर में किसी व्यक्तिगत कारणों से विगत दिनों गोली चलने की वारदात हुई थी. जिससे छात्रों में भय का माहौल व्याप्त है. आये दिन कार्यालय परिसर में अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन वाद विवाद होना आम बात है. जिससे विद्यालय का शैक्षणिक माहौल पूरी तरह से बिगड़ चुका है.

शिक्षा विभाग के सचिव ने भेजा है पत्र

सूबे के उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में शैक्षणिक अवरोध की समाप्ति को लेकर शिक्षा विभाग के सचिव रोबर्ट एल चोंगथू द्वारा दिनांक 7 नवंबर 17 को पत्र निर्गत करते हुए सभी जिला पदाधिकारी और जिला शिक्षा पदाधिकारी को उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों को अतिक्रमण मुक्त करने का निर्देश दिया था.

जारी पत्र में छात्रों के भविष्य को लेकर विद्यालयी कार्यो में हो रहे अवरोध और कानून व्यवस्था की समस्या को लेकर सभी उच्च और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों को अतिक्रमण मुक्त करने का निर्देश दिया गया था.

वर्षों से है महिला पुलिस बल का अतिक्रमण

जिला स्कूल के कमरों में शिक्षा विभाग के अतिक्रमण के साथ साथ पुलिस बलों का भी अतिक्रमण है.विगत करीब दो वर्षों से बिहार महिला पुलिस बल की दर्जनों पुलिस यही रहती है. दो कमरों में एक पूरा बटालियन रहता है.

क्या कहते है प्रधानाध्यापक

जिला स्कूल और जिला स्कूल नवस्थापित विद्यालय के प्राचार्य अरुण कुमार सिंह ने बताया कि देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने जहाँ शिक्षा ग्रहण की उस विद्यालय का प्राचार्य बनना मेरे लिए गौरव की बात है.

जिला स्कूल की गरिमा के प्रति प्रशासन से लेकर शिक्षक तक को सचेत होने की जरूरत है. विद्यालय के अतिक्रमण को लेकर वह काफी निराश है.

अतिक्रमण मुक्त करने के लिए कई बार विभागीय पदाधिकारी को पत्र भेजा गया लेकिन कोई सार्थक पहल नही हुई ही. उन्होंने बताया कि 1 जुलाई से उन्होंने विद्यालय का प्रभार ग्रहण किया है तब से वह विद्यालय की उन्नाति के लिये प्रयासरत है.

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Chhapra/Sonpur Mela (Surabhit Dutt): हरिहर क्षेत्र सोनपुर मेला में वैसे तो कई स्टॉल लगाये गए है पर हस्तशिल्प या हस्तकला के स्टॉलों पर सैलानियों की खूब भीड़ उमड़ रही है. मेले में लगाये गए आर्ट एंड क्राफ्ट बाज़ार में हस्तशिल्प के कई स्टाल लगाये है. इस स्टालों पर सिक्की कला (सिक से बने कलाकृति), मिट्टी की कलाकृति, टेराकोटा, काष्ट कला और पेपरमेशी पर बने विश्व प्रसिद्द मधुबनी पेंटिंग के स्टॉल है. 

इन स्टालों के माध्यम से बिहार के गावों में बनाये जाने वाले हस्तशिल्प आदि को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है. मेले में लगाये गए पेपरमेशी के स्टॉल पर सैलानियों की खूब भीड़ जुट रही है. पेपर मेशी पर मधुबनी पेंटिंग को लोग खूब पसंद कर रहे है. इसके माध्यम से पेपर के बने तरह तरह के आकृतियों को बना कर उनपर मधुबनी पेंटिंग की जाती है.

शिक से चूड़ी आदि बनाती कारीगर

इस कला के लिए स्टेट अवार्ड विजेता ललिता देवी ने बताया कि पेपरमेशी में न्यूज़ पेपर आदि को पानी में भिगो कर कूट कर लुगदी बनायीं जाती है. जिसमे कीड़ा न लगे इसके लिए दर्दमेढ़ा का पाउडर, फेविकोल या गोंद और मुल्तानी मिट्टी मिलाकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है. जिसे मनचाही आकृति देने के बाद उसे मधुबनी पेंटिंग से सजाया जाता है. जो इसे आकर्षक रूप प्रदान करता है.


उन्होंने बताया कि इस कला को जानने वालों की संख्या समय के साथ अब कम हो रही है. आधुनिक दौर में इस कला को बचाए रखने और लोगों को अवगत कराने के लिए सरकार इन दिनों सभी ब्लाक में प्रशिक्षण चला रही है. जिससे की इस प्राचीन कला को आने वाली पीढ़ियों से भी रूबरू कराया जा सके. उन्होंने बताया कि वे इस कला को पिछले 30-35 वर्षों से बनाती आ रही है. उनके रोजगार का यह मुख्य साधन भी है. समय समय पर प्रदर्शनी के माध्यम से इसको प्रस्तुत किया जाता है. पेपरमेशी पर बनी मधुबनी पेंटिंग की इन कलाकृतियों की मांग विदेशों तक है. आज यह कला वैश्विक हो चुकी है.

स्टॉल पर पेपरमेशी से बने विभिन्न कलाकृतियाँ की बिक्री की जा रही है. आप भी यदि सोनपुर मेला जा रहे है तो एक बार इस कला को जरुर देखे.

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Chhapra/Sonpur( Surabhit Dutt): अपनी संस्कृति और पौराणिक महत्व के कारण हरिहर क्षेत्र सोनपुर मेला विश्व विख्यात है. मेले में पारंपरिक परिधान और मिष्ठानों की दुकानें सजती है तो वही ग्रामीण संस्कृति की पहचान कई वस्तुएं मिलती है. मेले में देश के लगभग सभी प्रदेशों से व्यापारी पहुंचते है. कोई अपने मवेशियों की खरीद बिक्री के लिए पहुंचता है तो कोई कपड़े और अन्य व्यवसाय के लिए. मेले में मिनी भारत सा नजारा दीखता है.  

सोनपुर मेला में मिलने वाली मिटटी की बनी सिटी और घिरनईया इस मेले में पहुंचे सभी सैलानी को अपनी और आकर्षित करती है. प्राचीन काल में तो इस तरह के मिटटी के बने खिलौनों की मांग थी पर आधुनिक मोबाइल और वीडियो गेम युग में इसे ग्रामीण बच्चे ही खरीदते है. शहरी बच्चे तो इससे दूर ही है.

मेले में दूर दूर से व्यापारी अपने मिष्ठान की दुकान लेकर पहुंचते है. मेले में गुड़ में बनी जलेबी मिलती है जो प्रसिद्द है. इस के साथ ही गया आदि स्थानों से दुकानदार खाजा, गाजा, तिलकुट, बरफी (सभी पारंपरिक मिठाई) लेकर पहुंचते है. 

मेले में गुड़ में बनी जलेबी बनाते फोटो: कबीर

कश्मीर और अन्य जगहों से पहुंचे वस्त्र व्यापारी मेले की शान को बढ़ा रहे है. मेले में आकर्षक परिधानों की खूब बिक्री हो रही है. साथ ही ठण्ड के मौसम को देखते हुए गर्म कपड़े भी बिक रहे है. मेले में प्रत्येक साल कश्मीर, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों के व्यापारी पहुंचते है. हथकरघा, खादी के परिधानों की भी खूब मांग है. 

मेले में कुटीर उद्योग, बांस आदि शिल्प कला के सामानों की दुकानों पर मिलने वाले सामानों को सैलानी खूब पसंद कर रहे है.

सोनपुर मेला भारत की सांस्कृतिक विरासत को आधुनिक युग से परिचय करा रहा है. देश दुनिया के लोगों को भारत की परंपरा और संस्कृति को जानने का एक अवसर इस मेले के भ्रमण से मिल रहा है.

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Chhapra (कबीर): समय के साथ शहर में अब बच्चों के खेलने का जगह नही बची है. बच्चे चारदीवारी में बंद रहने को मजबूर हैं. इसका कारण है शहर में खेलने के लिए जगह की कमी. खेल का स्थान नहीं होने से बच्चे गलियों में खेलने को मजबूर हैं. इसके कारण शहर के बच्चों का बचपन मैदान के बजाए घर की चारदीवारी में बीत रहा है.

जिनके घर के आस पास किसी की जमीं खाली है उसमे आपको बच्चे शाम के समय खेलते मिल जायेंगे. जिस ग्राउंड में बच्चे खेला करते थे अब वहां बड़ी बड़ी इमारते खड़ी हो गई है. यूँ कहे को कंक्रीट का जंगल. कहीं न कहीं खेलने की जगह नही होने से बच्चे मोबाइल पर गेम खेलकर काम चलाते है. मन तो जरुर बहल जाता है लेकिन शाररिक विकास और मानसिक विकास उस तरह का नही होता है जितना वगत दशकों के बच्चों का हुआ करता था.

क्रिकेट और फुटबॉल के शौक़ीन बच्चे कहते है जगह नही होने से हमारी प्रतिभा मर रही है. यहीं कारण है कि हमे अपने पसंदीदा खेल से हटाकर दूसरा खेल खेलना पड़ता है. शहर के एक मात्र शिशु पार्क है जिसमे समय के साथ परिवर्तन तो होता है लेकिन खेलने की सुविधा नही बढती.

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(सुरभित दत्त)

छठ पूजा की परंपरा दूर देश रहने वाले लोगों को उनके घर की ओर खींचती है. सालों भर अपने घर से दूर रह जीवन यापन करने वाले लोग छठ पर्व के अवसर पर घर जरूर आते है. छठ पूजा अपनी संस्कृति और परम्पराओं से परिचय कराती है. नई पीढ़ी को परंपरा से अवगत कराती है.

छठ पर्व पर रिश्तों को जोड़ने का एक मौका होता है जब घर का हर सदस्य, पड़ोसी सभी द्वेष मिटा कर एक साथ घाट पर पूजा करने पहुंचते है और एक दूसरे की मदद भी करते है. दूर-देश और विदेश में रहने वाले लोग भी अपने गांव देहात तक पहुंचते है और आस्था के महापर्व छठ में सम्मिलित होते है. कई महीनों से छुट्टी मिलने का इंतज़ार कर रहे लोग छुट्टी मिलते ही अपनी मिटटी से जुड़े इस महान पर्व में शामिल होने पहुंचते है.

छठ पूजा के चार दिनों तक चलने वाले अनुष्ठान की शुरुआत नहाय-खाय से होती है. जिसके पूर्व लोग तैयारियों में जुटे जाते है.
आम हो या खास सभी छठपूजा में घर पहुंच कर चार दिवसीय इस अनुष्ठान में सम्मिलित होना चाहते है. शहर से लेकर गांव तक पूजा की रौनक देखते ही बनती है. बाज़ारों में सजे फल के दुकानों से लेकर सुप और दउरा तक. संध्या अर्घ्य और फिर प्रातःकाल में भगवान भास्कर को अर्घ्य समर्पित किया जाता है. तब जाकर यह पर्व संपन्न होता है.  

महापर्व छठ: अस्ताचलगामी भगवान भास्कर को अर्घ्य संपन्न

बदलते दौर में छठ पूजा ने भी व्यापक रूप ले लिया है. गांव और शहर के नदी, पोखर के घाटों पर होने वाला छठ पूजा अब महानगरों तक पहुंच चुका है. वैसे लोग जो छठ पूजा में घर नही आ सकते वे जहां है वही पूजा कर रहे है. छठ पूजा की महिमा को जानने के बाद अन्य राज्यों के लोग भी छठ पूजा करने लगे है. दिल्ली हो या अमेरिका का टेक्सास हर जगह बिहार के लोग है और वे सभी छठ के महत्व को समझते हुए पूजा करने में व्यस्त होते है.


आधुनिक दौर में छठ पर्व की महत्ता विधमान है. आज भी लोग छठ पूजा को सभी त्योहारों से उपर मानते है. इस पूजा में साक्षात भगवान् भास्कर की पूजा की जाती है. नदियों घाटों पर अर्घ्य देने के लिए शाम और फिर सुबह में लोग पहुंचते है. इसे लेकर साफ़ सफाई का भी पूरा ध्यान रखा जाता है. सभी लोग साफ़ सफाई में मदद करते है, चाहे वह किसी भी धर्म के हो.

छठ पूजा अपनी संस्कृति से जोड़े रखने और उसका महत्त्व बताने का एक महान पर्व है. तो आइये हम सब भी जुड़े अपनी संस्कृति से और छठ के इस महान पर्व में शामिल हो.

||जय छठी मैया||

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अपने अटल इरादे और कुशल नेतृत्व से ‘संपूर्ण क्रांति’ का आगाज कर देश को नयी दिखा दिखाने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण की आज 115वीं जयंती है.

जयप्रकाश नारायण के आहवान पर युवाओं के साथ साथ देश की जनता जागी और सत्ता पर आसीन सरकार को यह अहसास कराया की लोकतंत्र में जनता ही असली शासक होती है. लोक नायक ने बगैर किसी राजनितिक दल में शामिल हुए देश में नयी क्रांति का संचार किया, राजनीति को एक नयी दिशा दिखाई. 

उनके आदर्शों को आज के राजनेताओं को भी अपनाने की जरुरत है. अपने को जेपी का अनुयायी या यूँ कहे कि शिष्य कहने वाले आज सत्ता पर तो जरूर आसीन है पर उनके विचारों को आत्मसात करने की जगह से शायद भटक चुके है. सत्ता पर आसीन लोग अपनी राजनीति को चमकाने के लिए जेपी का नाम तो जरूर लेते है पर उनके आदर्शों को भूल गए है. ऐसे में जरुरत है कि हम और आप मिलकर जयप्रकाश के सपने के भारत को साकार करने की दिशा में पहल करें.

जीवन परिचय
जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्तूबर, 1902 ई. को सारण जिले के सिताबदियारा में हुआ था. उनके पिता का नाम ‘देवकी बाबू’ और माता का नाम ‘फूलरानी देवी’ था. 1920 में जयप्रकाश का विवाह प्रभावती देवी से हुआ. पटना मे अपने विद्यार्थी जीवन में जयप्रकाश नारायण ने स्वतंत्रता संग्राम मे हिस्सा लिया. उन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है. इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक आन्दोलन चलाया. वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता है. 1998 में उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

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छपरा(कबीर): इन दिनों शहर के युवाओं में फोटोग्राफी का क्रेज़ सर चढ़ कर बोल रहा है. फोटोग्राफी खासकर सोशल मीडिया पर छाये रहने के लिए ज्यादा देखा जा रहा है. समय के साथ फोटोग्राफी के ट्रेंड में भी बदलाव देखने को मिल रहा है. ट्रेडिशनल फोटोग्राफी की जगह अब नेचुरल फोटोग्राफी ने ले ली है. युवाओं में सेलिब्रिटी की तर्ज पर फोटो शूट का ट्रेंड देखते ही बन रहा है.

शहर के राजेंद्र सरोवर, शिशु पार्क, आरा-छपरा ब्रिज इत्यादि जैसे खास लोकेशन पर फोटोशूट का ट्रेंड बढ़ा है. लोकेशन पर खास ध्यान दिया जा रहा है. फोटोशूट करा रहे कुछ युवाओं ने बताया कि सेलिब्रिटी के स्टाइल में फोटो शूट करना पसंद है. अब तो शहर में कैमरामैन को स्पेशल हायर पर आउटडोर फोटो शूट कराया जा रहा है.

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छपरा: छपरा नगर निगम चुनाव के बाद मेयर का चुनाव हुआ. प्रिया देवी छपरा नगर निगम की पहली मेयर बनी है. मेयर से छपरा टुडे डॉट कॉम के संपादक सुरभित दत्त ने की खास बातचीत.

यहाँ देखे इंटरव्यू    

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छपरा(कबीर): देश डिजिटल क्रांति की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है. इसका असर अब पर्व व त्योहारों पर देखने को मिला रहा है. अपनी पुराणी परम्पराओं से दूर जाती युवा पीढ़ियों को कही न कहीं सोशल मीडिया और शोपिंग वेबसाइट एक दूसरे के प्यार को और करीब ला रहा है.

भाई-बहन के अटूट रिश्ते का त्यौहार रक्षाबंधन के अवसर पर जो भाई बहन तक नही पहुँच सके या बहन भाई तक नही पहुँच पाई तो उन्होंने सोशल मीडिया और कुरियर का सहारा लिया. बहनों ने भाइयों को राखी कुरियर की तो वहीँ भाइयों ने भी राखी बंधते समय विडियो कॉल के माध्यम से बहन से जुड़े रहे और फिर जब गिफ्ट की बारी आई तो भला भाई बहन को नाखुश कैसे देख सकते थे. फटाफट भईयों ने भी Paytm से गिफ्ट कर दिया.

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{सुरभित दत्त}
समाज के उत्थान और प्रगति के लिए शिक्षा बेहद जरुरी आयाम है. समाज को शिक्षित करने के मुहीम के माध्यम से समाजसेवा में जुटे कुछ जुनूनी युवाओं ने इन दिनों शहर में एक अभियान छेड़ रखा है. युवाओं द्वारा दलित बस्ती का चुनाव कर उनमें रह रहे बच्चों तक शिक्षा का अलख जलाया जा रहा है. 

इस कार्य में लगे फेस ऑफ़ फ्यूचर इंडिया संस्था के मंटू कुमार यादव बताते है कि समाज के गरीब बच्चों को शिक्षा देने की प्रेरणा उन्हें राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवक के रूप में कार्य करते हुए मिली. मंटू राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवक के रूप में अपने बेहतर कार्यो के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हो चुके है. 

बच्चों के साथ मंटू की टीम                                                                                       Photo: Mantu Kumar

शहर के दलित बस्तियों में आपको मंटू के संस्था के द्वारा चलायी ऐसी पाठशाला अमूमन दिख जाएगी. संस्था के माध्यम से इन दिनों एक अभियान चला कर दलित बस्ती के बच्चों को साक्षर बनाने में जुटे है.

प्रतिदिन शहर के किसी न किसी दलित बस्ती में शिविर के माध्यम से संस्था के युवा शिक्षा की अलख जगाने निकल पड़ते है. बस्ती का चुनाव होता है. बच्चों को बुलाया जाता है, और शुरू हो जाती है पाठशाला.

यहाँ देखे वीडियो रिपोर्ट 

मंटू ने बताया कि उनकी संस्था से जुड़े युवाओं की टोली अलग अलग स्थानों पर दलित बस्तियों में शिक्षा का अलख जा रही है. छपरा शहर के आलावे कई प्रखंडों में भी ऐसे शिविर के माध्यम से बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि दलित बस्तियों में पहले लोगों ने विरोध किया पर जब उन्हें पता चला की बच्चों के भविष्य के लिए शिक्षा जरुरी है और उनकी टीम बच्चों को शिक्षित करने पहुंची है, तो स्थानीय लोगों ने भी सहयोग करना शुरू किया और अभियान चल पड़ा. दलित बस्ती में लगी इस पाठशाला से बच्चों को निश्चित ही लाभ मिल रहा है. दलित बस्ती की महिलाओं ने भी इनके प्रयास की सराहना करते हुए इसे जारी रखने की बात कही.

तमाम सरकारी संसाधनों और योजनाओं के बाद भी कही ना कही गरीब बच्चे शिक्षा से दूर रह जाते है. मंटू की टीम ‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’के अपने ध्येय वाक्य को लेकर आगे बढ़ रही है. इन युवाओं की निःस्वार्थ सेवा समाज को एक नई प्रेरणा दे रही है.

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(अमन कुमार)
एक वक़्त था जब हमें कहीं पत्र भेजना होता था तो उसे हम किसी ई-मेल या कूरियर से नहीं बल्कि उसे घर के आस-पास बने पोस्ट बॉक्स में डाला करते थे. हमें जब कही पत्र भेजने होते, रक्षाबंधन से पहले कहीं दूर राखी भेजनी होती थी तो उसे लिफाफे में बंद करके इस लाल रंग वाले डब्बे में डालने का मज़ा कुछ और ही था.

पहले के समय चौक चौराहों पर ऐसे पोस्ट बॉक्स लगे होते थे. अगर किसी को कहीं कोई चिट्ठी भेजनी होती थी तो बस चिट्ठी वाले लिफाफे को इसी लाल डब्बे में डालना होता था, एक निश्चित समय के बाद डाकिया आता और उस चिट्ठी को निकालकर उचित पते पर पहुंचा देता था.

कुछ साल पहले तक ये पोस्ट बॉक्स ही सूचना के आदान-प्रदान का एक सुगम माध्यम हुआ करता था. बदलते वक्त के साथ लोगों की ज़रूरतें भी बदल गयी. नई टेक्नोलॉजी और संचार के आधुनिक माध्यमों के आने से धीरे-धीरे लोगों ने इसका प्रयोग कम करना शुरू कर दिया. फलस्वरुप कल तक चमचमाने वाले ये लाल डब्बे अब कही कही ही नज़र आते है.

आज की तस्वीरें कुछ और ही हकीकत बयाँ करती हैं. आज आपने आस पास लगे पोस्ट बॉक्स पत्रों के इंतज़ार में खाली पड़े रहते हैं. आज संचार के लिए फोन, एसएमएस, व्हाट्स अप और सोशल और वीडियो कॉल को लोग अपना रहे है. पत्रों को भेजने के लिए भी आधुनिक व्यवस्था में ई-मेल से सेकंडों में भेज देते हैं.

कल तक जो पोस्ट बॉक्स लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण हुआ करता था. आज के डिजिटल होते युग ने उसकी महत्ता को ही खत्म कर दिया है.

अब ज्यादा दिन नही जब ये पोस्ट बॉक्स बस मात्र एक इतिहास बनकर रह जायेंगे.

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