अक्टूबर, 1824 को 20 हजार ब्रिटिश फौज ने जब अचानक कित्तूर राज का रुख किया तो मानो दहशत फैल गई। ब्रिटिश फौज की ताकत ऐसी कि उसकी जीत मानो तय थी।
अंग्रेजों के सामने कित्तूर की फौज कुछ भी नहीं थी, लेकिन उसके पास था-चट्टानी हौसले वाली वीरांगना रानी चेन्नम्मा का नेतृत्व। रानी चेन्नम्मा ने अपने मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ ऐसा रणकौशल दिखाया कि अंग्रेज चारों खाने चित्त हो गए।
ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा, अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन मारा गया। सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन बंधक बनाए गए। हालात ऐसे बने कि अंग्रेज घुटनों पर आए और युद्धविराम का ऐलान कर दिया।
रानी ने बंधकों को छोड़ दिया मगर कुछ दिनों बाद ही अंग्रेजों ने उनकी पीठ में छुरा भोंका। अंग्रेजों ने दोगुनी ताकत के साथ इसबार हमला बोल दिया। रानी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने मुकाबला तो किया लेकिन इस बार अंग्रेज भारी पड़े और रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल किले में कैद कर दिया गया। कैद में रहते 21 फरवरी 1829 को इस वीरांगना का निधन हो गया।
रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है इसलिए उनको ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया।
उनका जन्म जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटे-से गांव ककाती में हुआ था। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी।
अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत इसे स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।