गोवर्धन की पूजा कर महिलाओं ने मनाया भैयादूज का त्यौहार

Chhapra: भगवान गोवर्धन और भैयादूज का त्यौहार धूम धाम से मनाया गया. शहर से लेकर गांव तक महिलाओं और युवतियों ने अपने अपने गली मुहल्लों तथा दरवाजे पर गोबर से भगवान गोवर्धन की आकृति बनाकर पूजा पाठ की गई.

महिलाओं द्वारा पूजा पाठ के साथ छठ का पारंपरिक गीत गाया गया. वही पूजा के उपरांत गोधन कुटाई की गई. इस अवसर पर महिलाओं और युवतियों द्वारा अपने भाई को बजरी खिलाकर भैया दूज का त्यौहार मनाया गया.

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Chhapra: श्री हनुमज्जयंती समारोह का 55 वां वार्षिक अधिवेशन श्री रामार्चा पूजन के साथ शुरू हो गया. ग्यारह दिवसीय वार्षिक अधिवेशन मारूति मानस मंदिर परिसर में प्रारंभ हुआ.

अयोध्या के गोविंद जी महाराज रामर्चा पूजन करायें. अयोध्या के छोटी छावनी के संत कमल नयन दास जी महाराज प्रवचन माला का उद्घाटन किया. संतों एवं उपदेशकों की मधुर एवं ओजस्वी वाणी से ओतप्रोत कथा रूपी अमृत का पान कर अपने जीवन को धन्य बनाने के शुभ अवसर से भक्तों को नहीं चूकने का अनुरोध समारोह से जुड़े अनिरूद्ध सिंह ने लोगों से किया है.

आयोजन समिति से जुड़े लोगों ने भक्तों से तन-मन एवं धन  से जयंती समारोह को सफल बनाने में सहभागिता सुनिश्चित होने पर जोर दिया है।

श्री हनुमज्जयन्ती समारोह समिति के प्रधान सचिव प्रो रणंजय सिंह व सचिव सत्यनारायण शर्मा ने बताया कि 11 दिनों तक यह समारोह आयोजित होता है, जिसका समापन दीपावली के दिन होता है। छपरा में अंजनी पुत्र महावीर हनुमान का ननिहाल होने से भी इस कार्यक्रम को लोग उत्साह पूर्वक मनाने के लिए उत्सुक रहते है।

समारोह के लिए विशाल पंडाल का निर्माण किया गया है. जहाँ श्रद्धालु संतों की अमृतवाणी का रसपान करेंगे.

जिनमे देवरिया से श्री जगदगुरु श्री रामानुजाचार्य स्वामी श्री राजनारायणाचार्य  जी महाराज, अयोध्या से संत कमल नयन दास जी, श्री जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य स्वामी रत्नेश जी महाराज, हरदोई की सुश्री प्रज्ञा भारती गिरी उर्फ सन्यासिनी पंछी देवी,  खलीलाबाद से श्री वैराग्यनंद जी परमहंस, मध्यप्रदेश से श्री गोपाल शर्मा, छपरा से विद्या भूषण जी व मां अंबिका स्थान के श्री शिववचन जी शामिल हैं।

कार्यक्रम
प्रतिदिन सुबह नौ बजे श्री रामर्चा पूजन व कथा और संध्या में सात बजे से रात्रि 10 बजे तक संगीतमय भजनोत्सव,
14 अक्टूबर को सुबह 5:30 बजे से श्री अखंड हरिनाम संकीर्तन एवं अपराहन 4:00 बजे से भंडारा का आयोजन होगा.
प्रतिदिन 15 से 23 अक्टूबर तक श्री हनुमान जी का व अभिषेक गोदुग्धसे होगा.
रामचरितमानस का सामूहिक नवाह पारायण भी होगा. पुरुष सूक्त एवं श्री सूक्त से हवन भी होगा. दोपहर 2:00 बजे से संध्या 5:30 बजे व सायं 7:00 बजे से रात्रि 10:00 बजे तक उपदेश एवं प्रवचनमाला का कार्यक्रम है.

23 अक्टूबर को श्री हनुमान जी का जलाभिषेक दोपहर में होगा. 5:30 बजे शाम में श्री हनुमान जी का सहस्त्रनाम पूजन एवं संध्या 6:30 बजे से दीपमाला जन्मोत्सव व बधैया का कार्यक्रम होगा. 24 अक्टूबर को श्री हनुमान जी की शोभायात्रा सुबह 9:30 बजे से निकाली जाएगी. 

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जुलूस-ए-मोहम्मदी में झूम कर निकले नबी के दीवाने, आपसी सद्भाव के साथ देश प्रेम का जज्बा देखने को मिला

Chhapra: पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहुअलैहवसल्लम के यौम-ए-पैदाइश के मौके पर रविवार को जिला भर में जुलूस-ए-मोहम्मदी धूमधाम से निकाला गया.

इस दौरान मुस्लिम समुदाय में एक अलग ही रौनक दिखाई दे रही थी. मानो जुलूस में शामिल होने के लिए पूरा जनसैलाब उमड़ पड़ा हो. सिर पर हरा साफा बांध लकदक कपड़ों में सजे लोग एक हाथ में मजहबी परचम तो दूसरे हाथ में तिरंगा थाम इसे लहराते हुए जुलूस में शामिल हुए.

जुलूस में शामिल ऊंट, घोड़े और तरह-तरह की झांकियां आकर्षण का केंद्र रहीं तो हर तरफ नबी की आमद मरहबा, सरकार की आमद मरहबा, हुजूर की आमद मरहबा, आका की आमद मरहबा की सदाएं बुलंद होती रहीं.

ओलेमा जहां दरूद व सलाम पेश कर रहे थे वहीं शायर व नातख्वां तरन्नुम में मनकबत, हम्द और नात पेश कर माहौल को नूरानी बना रहे थे. जुलूस में युवा और बुजुर्गों के अलावा बच्चों का उत्साह भी देखते ही बन रहा था.

बग्घी, दुपहिया और चार पहिया वाहनों पर सवार होकर लोग जुलूस में शामिल हुए. रास्ते भर जुलूस में शामिल लोगों के लिए मुस्लिम व हिन्दू भाइयों की ओर से चाय व खाने पीने की चीजों का वितरण भी होता रहा.

नबी के दिवानों पर कई जगह लोगों ने फूल भी बरसाए. ईद मिलादुन्नबी की पूर्व संध्या पर शहर के खनुआ से जुलूस-ए-मोहम्मदी निकाला गया.

जिसकी कयादत जिलानी मुबीन, अब्दुल कैयूम अंसारी, डॉ मंसूर अंसारी आदि कर रहे थे. दारूल उलूम नईमिया, जामा मस्जिद में रात भर जलसा चला जिसमें देश भर के मशहूर ओलेमा ने नबी के सीरत और तालीम पर रोशनी डाली. शायरों ने भी समां बांधा.

सुबह की नमाज के बाद जुलूस निकला जो साहेबगंज, हथुआ मार्केट, थाना चौक, मजहरुल हक पथ, डाकबंगला रोड, मालखाना चौक, सदर अस्पताल, दरोगा राय चौक होते हुए जुमनी मस्जिद तक गया. वहीं दारूल उलूम रजविया के तत्वावधान में मौलाना रज्जबुल कादरी की कयादत में निकला जुलूस बड़ा तेलपा, चांदनी चौक, बिचला तेलपा, कोरार, न्यू कालोनी, छोटा तेलपा, कटहरी बाग, करीमचक, सरकारी बाजार, खनुआ होते हुए पुनः वापस गया.

ब्रह्मपुर से हाजी आफताब आलम की कयादत में जुलूस ने पूर्वी छोर से पश्चिम तक पूरे शहर का दौरा किया. इसके अलावा मिर्चईया टोला, गडही तीर, दहियावां आदि शहरी इलाकों समेत ग्रामीण क्षेत्र के बनियापुर, कोपा, मशरक, दिघवारा, एकमा, दाऊदपुर, लहलादपुर, तरैया, नगरा, मकेर, अमनौर, सोनपुर, दरियापुर, मिर्जापुर, तुजारपुर आदि जगहों पर भी मजहबी जोश, आपसी सद्भाव व देश प्रेम के अद्भुत जज्बा के साथ जुलूसे मुहम्मदी का आयोजन किया गया.

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बेगूसराय: बिहार का आध्यात्म एवं मोक्षधाम तथा मिथिला के दक्षिणी प्रवेश द्वार सिमरिया में पावन गंगा नदी के तट पर लगने वाले एशिया के सबसे बड़े कल्पवास मेला की तैयारी शुरू हो गई है। बेगूसराय जिला के सिमरिया गंगा तट पर नौ अक्टूबर से 17 नवम्बर तक चलने वाले राजकीय कल्पवास मेला का विधिवत उद्घाटन नौ अक्टूबर को किया जाएगा।

दो वर्ष की बंदी के बाद इस साल कल्पवास करने के लिए पिछले पांच दिनों से देश के विभिन्न हिस्सों से साधु-संतों का आना शुरू है। नौ अक्टूबर शरद पूर्णिमा के दिन से यहां धर्म और अध्यात्म की गंगोत्री प्रवाहित होने लगेगी। इसके लिए खालसा और महंतों का तंबू लगना शुरू हो गया है। वहीं, मिथिला के विभिन्न जिलों से आए कल्पवासियों का पर्णकुटी भी बनने लगा है। कल्पवास के दौरान महात्म्य और कथा के साथ सिद्धाश्रम के संस्थापक स्वामी चिदात्मन जी के नेतृत्व में मेला परिक्षेत्र की पहली परिक्रमा रंभा एकादशी के दिन, दूसरी परिक्रमा अक्षय नवमी के दिन एवं तीसरी अंतिम परिक्रमा बैकुंठ चतुर्दशी के दिन होगा।

इसके साथ ही दो से छह नवम्बर तक ”अमृत उत्सव का महत्व” विषय पर पांच दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया जाएगा। जबकि कुंभ सेवा समिति द्वारा 11 अक्टूबर से आठ नवम्बर तक गंगा घाट पर भव्य महाआरती का आयोजन किया जाएगा। सात प्लेटफार्म पर काशी से आए विद्वान आचार्य के नेतृत्व में टोली गंगा मैया की महाआरती करेगी, इसकी तैयारी की जा रही है।

उल्लेखनीय है कि मिथिला एवं मगध के संगम स्थली गंगा तट सिमरिया में सदियों से कार्तिक मास में कल्पवास करने की परंपरा रही है। यहांं सिर्फ मिथिलांचल ही नहीं, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और नेपाल के हजारों-हजार लोग पर्णकुटी बनाकर कल्पवास करते हैं। इसके साथ ही 50 से अधिक खालसा भी लगाया जाता है। सुबह में गंगा आरती और सूर्य नमस्कार से शुरू होने वाली इनकी दिनचर्या रात्रि में गंगा आरती के साथ समाप्त होती है।

इस दौरान इन लोगों का भोजन भी पूरी तरह से सात्विक होता है तथा अधिकतर लोग गंगाजल में पकाया अरवा-अरवाइन भोजन ही करते हैं। 36 दिन सेेेे अधिक समय तक श्रद्धालु गंगा स्नान के साथ-साथ श्रीमदभागवत कथा, कार्तिक मास महात्म्य, रामायण पाठ और मिथिला महात्म्य आदि का श्रवण कर आध्यात्मिक भक्ति की धारा में लीन रहते हैं। कहा जाता है कि सिमरिया गंगा तट पर आदिकाल से कल्पवास की परंपरा रही है। हिंदू धर्म शास्त्र में उत्तरवाहिनी गंगा का काफी महत्व है तथा सिमरिया में गंगा उत्तरवाहिनी है। राजा परीक्षित को भी श्राप से उद्धार के लिए सिमरिया गंगा तट पर कल्पवास करना पड़ा था।

जनक नंदिनी सीता जब विवाह के बाद अपने ससुराल अयोध्या जा रही थी तो उनके पांव पखारने के लिए राजा जनक ने मिथिला की सीमा सिमरिया में ही डोली रखने को कहा था। तब राजा जनक ने सिमरिया पहुंचकर गंगा के किनारे यज्ञ और कार्तिक मास में कल्पवास किया था, तभी से यहां कल्पवास की परंपरा चल रही है। इस जगह के प्रसिद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद देश में गंगा नदी पर सबसे पहला रेल-सह-सड़क पुल यहीं बनाया गया।

स्वामी चिदात्मन जी ने कहते हैं कि देश भर में तीन जगह अनादि काल से ही कल्पवास की परंपरा चली आ रही है। इसमें हरिद्वार में बैशाख माह में, प्रयागराज में माघ माह तथा आदि कुंभस्थली सिमरिया धाम में कार्तिक माह में कल्पवास के आयोजन की परंपरा है। देश, काल और समय की परिस्थिति का ख्याल रखना हमारी परंपरा रही है, परंपराओं का पालन करते हुए कल्पवास के पौराणिक तथा आध्यात्मिक परंपरा का पालन करना चाहिए।

डीएम रोशन कुशवाहा ने बताया कि कल्पवासियों को किसी भी प्रकार की कोई असुविधा होने नहीं दी जाएगी। साफ-सफाई, प्रकाश के साथ शौचालय की उत्तम व्यवस्था घाट पर करवाई जाएगी। कुटी बनाकर रहने वाले कल्पवासियों, साधु-संतों को कोई परेशानी नहीं होगी। घाट की साफ-सफाई और कुटी बनाकर रहने वाले श्रद्धालुओं के लिए स्थाई रूप से मजदूरों को लगाया जाएगा, सुरक्षा और चिकित्सा की भी व्यवस्था रहेगी।

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– देवी मां ने इसी मंदिर में साक्षात प्रकट होकर विकट दानवों को मारने के बाद किया था विश्राम

वाराणसी: शारदीय नवरात्र के चौथे दिन गुरुवार को दुर्गाकुंड स्थित कुष्मांडा दरबार में दर्शन पूजन के लिए श्रद्धालुओं का रेला उमड़ पड़ा। भोर से ही मातारानी के दरबार में दर्शन पूजन के लिए श्रद्धालु पहुंचने लगे। सुबह से दोपहर तक दर्शन पूजन के लिए दर्शनार्थियों की लम्बी कतार मुख्य सड़क पर लगी रही। श्रद्धालुओं के चलते मंदिर परिसर के आसपास मेले जैसा नजारा बना हुआ है। शहरी क्षेत्र के अलावा ग्रामीण अंचल से भी भारी संख्या में श्रद्धालुगण देवी मंदिरों में देखें जा रहे हैं।

मुख्य पुजारी के देखरेख में रात तीन बजे के बाद मां के विग्रह को पंचामृत स्नान कराया गया। नूतन वस्त्र धारण करा कर पुष्प मााला, गहनों से उनका भव्य श्रृंगार किया गया। भोग लगाने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच मंगला आरती करके भक्तों के दर्शन के लिए मंदिर का कपाट खोल दिया गया। मंदिर का कपाट खुलते ही कतारबद्ध श्रद्धालु दरबार में अपनी बारी आने पर मत्था टेकते रहे। महिलाओं ने माता रानी को नारियल चुनरी और सिंदूर अर्पित कर संतति वृद्धि, श्री समृद्धि, अखण्ड सौभाग्य की अर्जी लगाई। श्रद्धालु मंदिर में दर्शन के दौरान मां का गगनभेदी जयकारा लगाते रहे।

माना जाता है कि कुष्माण्डा की उपासना से अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति होती है। माता रानी ने कूष्मांड़ा स्वरूप असुरों के अत्याचार से देव ऋषियों को मुक्ति दिलाने के लिए धारण किया था। देवी कुष्मांडा स्वरूप में अवतरित हुई थी। आदिशक्ति के इस स्वरूप के दर्शन-पूजन से जीवन की सारी भव बाधा, और दुखों से छुटकारा मिलता है। साथ ही भवसागर की दुर्गति को भी नहीं भोगना पड़ता है। मां की आठ भुजाएं हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा है। मां कुष्माण्डा विश्व की पालनकर्ता के रूप में भी जानी जाती हैं। मान्यता है कि पुष्प धूप दीप आदि श्री सूक्त का पाठ करते हुए आराधना करने से प्रसन्न होकर सभी पापों से मुक्ति दिलाती हैं। देवी मां ने इसी मंदिर में साक्षात प्रकट होकर विकट दानवों को मारने के बाद विश्राम किया था।

काशी में मान्यता है कि काशी नरेश की पुत्री शशिकला के स्वयंवर में सुदर्शन की रक्षा के लिए मां दुर्गाकुंड से प्रकट हुई थीं। काशी नरेश सुबाहू को देवी का वरदान प्राप्त था। उन्होंने ही प्रार्थना कर मां को यही विराजमान होने का अनुरोध किया। तभी से मां दुर्गा यहां विराजमान हैं। माना जाता है कि देवी ने ही ब्रह्मांड की रचना की थी। सृष्टि की उत्पत्ति करने के कारण इन्हें आदिशक्ति भी कहा जाता है।

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शारदीय नवरात्रि धर्म की अधर्म पर और सत्य की असत्य पर जीत का प्रतीक हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन्हीं नौ दिनों में मां दुर्गा धरती पर आती है। उनके आने की खुशी में इन दिनों को दुर्गा उत्सव के तौर पर देशभर में धूमधाम से मनाया जाता हैं। नवरात्रि पर्व के नौ दिनों के दौरान आदिशक्ति जगदम्बा के नौ विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है। ये नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक पवित्र दिवस माने गए हैं। इन नौ दिनों का भारतीय धर्म एवं दर्शन में ऐतिहासिक महत्व है और इन्हीं दिनों में बहुत सी दिव्य घटनाओं के घटने की जानकारी हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में मिलती है। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है-शैलपुत्री, ब्रह्माचारिणी, चन्द्रघन्टा, कुष्माण्डा, स्कन्द माता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।

नवरात्रि से हमें अधर्म पर धर्म और बुराई पर अच्छाई के जीत की सीख मिलती हैं। यह हमें बताती है की इंसान अपने अंदर की मूलभूत अच्छाइयों से नकारात्मकता पर विजयी प्राप्ती और स्वयं के अलौकिक स्वरूप से साक्षात्कार कैसे कर सकता है भारतीय जन-जीवन में धर्म की महत्ता अपरम्पार है। यह भारत की गंगा-जमुना तहजीब का ही नतीजा है कि सब धर्मों को मानने वाले लोग अपने-अपने धर्म को मानते हुए इस देश में भाईचारे की भावना के साथ सदियों से एक साथ रहते चले आ रहे हैं। यही कारण है कि पूरे विश्व में भारत की धर्म व संस्कृति सर्वोतम मानी गयी है। विभिन्न धर्मों के साथ जुड़े कई पर्व भी है जिसे भारत के कोने कोने में श्रध्दा भक्ति और धूमधाम से मनाया जाता है। उन्ही में से एक है नवरात्रि।

वसन्त की शुरूआत और शरद ऋतु की शुरूआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है। त्योहार की तिथियां चन्द्र कैलेंडर के अनुसार निर्धारित होती है। यह पूजा वैदिक युग से पहले प्रागैतिहासिक काल से है। नवरात्रि के पहले तीन दिन देवी दुर्गा की पूजा करने के लिए समर्पित किये गए है। यह पूजा उनकी ऊर्जा और शक्ति की की जाती है। नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है नौ रातें। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान शक्ति देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। दसवाँ दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। नवरात्रि वर्ष में चार बार आता है। चैत्र, आषाढ़, अश्विन, पौष प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों महालक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। दुर्गा का मतलब जीवन के दुख को हटानेवाली होता है।त्यौहार के पहले दिन बालिकाओं की पूजा की जाती है। दूसरे दिन युवती की पूजा की जाती है। तीसरे दिन महिला परिपक्वता के चरण में पहुच गयी है उसकी पूजा की जाती है।

नवरात्रि के चौथे, पांचवें और छठे दिन लक्ष्मी-समृद्धि और शांति की देवी की पूजा करने के लिए समर्पित है। आठवे दिन पर एक यज्ञ किया जाता है। नौवा दिन नवरात्रि समारोह का अंतिम दिन है। यह महानवमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन उन नौ जवान लड़कियों की पूजा होती है जो अभी तक यौवन की अवस्था तक नहीं पहुंची है। इन नौ लड़कियों को देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक माना जाता है। लड़कियों का सम्मान तथा स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाते हैं। पूजा के अंत में लड़कियों को उपहार के रूप में नए कपड़े, वस्तुयें, फल प्रदान किये जाते है। शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं। नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। इस पर्व से जुड़ी एक कथा के अनुसार देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था।

पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा। महिषासुर ने अपने साम्राज्य का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा। देवताओं की महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा था तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गई थी। इन नौ दिन देवी महिषासुर संग्राम हुआ और अन्त में महिषासुर का वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलायीं।

नवदुर्गा और दस महाविद्याओं में काली ही प्रथम प्रमुख हैं। भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दशमहाविद्या अनंत सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ है। दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं, इसलिए आगम निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा प्रसाद के लिए लालायित रहते हैं।

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Chhapra: शहर के विभिन्न पूजा स्थल एवं स्थापित मंदिर मे मंगलवार को मां दुर्गा के दूसरे स्वरूप देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना की गई। पूरा शहर दुर्गा सप्तशती पाठ मंत्रो से गुंजायमान रहा। 

शारदीय नवरात्र मे शक्ति की आराधना के लिए व्रत,उपवास रखकर श्रद्धा के साथ मनाते है।  मां दुर्गा की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। नवरात्र के दूसरे दिन इनकी पूजा की जाती है। यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमंडल धारण किए हैं।

पूर्वजन्म में देवी ब्रह्मचारिणी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।देवी ने कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं।

इसीलिए उनका एक नाम अपर्णा भी है।इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया।देवता,ऋषि, सिद्धगण,मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य का सराहना की और कहा-हे देवी, आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।देवी ब्रह्मचारिणी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां ब्रह्मचारिणी को गुड़हल, कमल, श्वेत और सुगंधित पुष्प प्रिय हैं। ऐसे में नवरात्रि के दूसरे दिन मां दुर्गा को गुड़हल, कमल, श्वेत और सुगंधित पुष्प अर्पित करें। मां दुर्गा को नवरात्रि के दूसरे दिन चीनी का भोग लगाना चाहिए। मान्यता है कि ऐसा करने से दीर्घायु का आशीष मिलता है। मां ब्रह्मचारिणी को दूध और दूध से बने व्यंजन जरूर अर्पित करें।

 

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सृष्टि के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा की धूमधाम से हुई पूजा

Chhapra: सृष्टि के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की गई. सभी लोगों ने अपने अपने घरों में लोहे के सभी औजार, हथियार सहित वाहनों की पूजा की. इस अवसर पर कल कारखानों, मोटर गैराज सहित आईटीआई, पॉलीटेक्निक में भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की गई.

इस पूजा की तैयारियों को लेकर बड़ों के साथ छोटे छोटे बच्चों में भी खासा उत्साह देखा गया. बड़ो को देखकर बच्चों ने भी अपने अपने साइकिल को साफ सुथरा कर फूल माला चढ़ाकर पूजन किया.

वही बड़े बड़े मोटर गैराज, बाइक रिपोयरिंग दुकान में विशेष पूजा की गई.

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अयोध्या: श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के निर्माण समिति की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गये। ट्रस्ट ने श्रीरामलला के मंदिर में कोई कमी न रह जाए इसके लिये हर बिंदु पर चर्चा कर रहे हैं।

सागौन लकड़ी के बनाए जाएंगे दरवाजे
ट्रस्ट के तय किया कि मंदिर के दरवाजे सागौन लकड़ी होंगे, जिसमें सुंदर और बारीक नक्काशी की जाएगी। मंदिर में कुल 14 भव्य दरवाजे सागौन लकड़ी के बनाए जाएंगे, जिसमें रामलला के गर्भगृह में एक बड़ा दरवाजा होगा।

श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने बताया कि मंदिर निर्माण में कुल 14 दरवाजे बनाए जाने हैं। यह दरवाजे खास लकड़ियों से बनाए जाएंगे। जिन पर सुंदर डिजाइन होगी जो भव्यता बढ़ाएंगे। मंदिर के पहले तल में 13 दरवाजे लगेंगे। रामलला के गर्भगृह में एक बड़ा दरवाजा लगेगा। यह दरवाजे किन लकड़ियों के होंगे इनकी डिजाइन क्या होगी इसको लेकर भी ट्रस्ट की बैठक में मंथन किया गया है। तय हुआ कि मंदिर की चौखट व बाजू संगमरमर का होगी। दरवाजे महाराष्ट्र के जंगलों से सागौन की लकड़ियों से मंदिर से बनाए जाएंगे।

निर्माण में करीब 1800 करोड़ खर्च होंगे
ट्रस्ट महामंत्री राय ने बताया कि मंदिर निर्माण की भव्यता को देखते हुए खर्च बढ़ गया है। अनुमान के मुताबिक मंदिर निर्माण में करीब 1800 करोड़ खर्च होंगे। एक अनुमान के मुताबिक मंदिर निर्माण की प्रक्रिया में अब तक 400 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। उन्होंने बताया कि मन्दिर निर्माण में पैसे की कोई दिक्कत नहीं है। राम मंदिर निर्माण के लिए देशभर के भक्तों ने अब तक करीब 5500 करोड़ रुपए का दान श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को किया जा चुका है। पहले हमने अनुमान लगाया था कि मंदिर निर्माण में करीब 1000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। पर अब यह अनुमान गलत साबित हो रहा है। मंदिर का 30 प्रतिशत से ज्यादा का काम पूरा हो चुका है।

उन्होंने कहा कि वर्ष 2024 में मकर संक्रांति के बाद गर्भगृह में रामलला विराजेंगे। उन्होंने कहा कि श्रीराम मंदिर के गर्भगृह का निर्माण दिसंबर 2023 तक पूरा हो जाएगा। उस समय सूर्य दक्षिणायन रहते हैं। इस दौरान शुभ कार्यों का निषेध रहता है। मकर संक्रांति पर सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं। मकर संक्रांति के बाद जो भी शुभ तिथि व मुहूर्त होगा, उसी दिन गर्भगृह में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। इसके बाद भक्त गर्भगृह में रामलला का दर्शन कर सकेंगे।

उन्होंने बताया कि अभी तिथि को लेकर कोई फैसला नहीं हुआ है। ट्रस्ट और मंदिर निर्माण समिति की दो दिवसीय संयुक्त बैठक के बाद चंपत राय ने कहा कि मंदिर का ग्राउंड फ्लोर दिसंबर 2023 तक बन जाएगा। पहले हमारा अनुमान था कि भूतल का आधा हिस्सा ही तैयार हो पाएगा लेकिन काम की गति व इंजीनियरों से चर्चा के बाद यह बात सामने आई है। उन्होंने अभी तिथि को लेकर कोई फैसला नहीं हुआ है।

उन्होंने बताया कि पूरे मंदिर की परिक्रमा करने के दौरान भक्त थक सकते हैं। इसलिए परकोटे के परिपथ में उनके बैठने से लेकर पेयजल की भी व्यवस्था की जाए इस पर चर्चा हुई है। बताया कि परकोटा छह एकड़ में बनेगा। परकोटे में माता सीता, गणेश सहित रामायण के कई पात्रों के मंदिर बनने हैं। इन मंदिरों की ऊंचाई कितनी हो इसको लेकर मंथन हुआ है, यह मुख्य मंदिर से कम ही रखी जाएगी। मंदिर के ऊपर चढ़ने के लिए रेलिंग कैसी बने, पत्थर की बने या धातुओं की इसको लेकर भी चर्चा हुई। कुछ धातुएं काली हो जाती हैं, कुछ लंबे समय तक चलती हैं। मंदिर की मजबूती के साथ सुंदरता भी कम न हो हमारा ऐसा प्रयास है।

ट्रस्ट सदस्य कामेश्वर चौपाल ने बताया कि कष्ट अपना भाई लात भी तैयार कर चुका है। गठन के समय ट्रस्ट का बाइलॉज नहीं बनाया गया था। बाय बाद में विधि विशेषज्ञों की विशेष राय और उनकी देखरेख में तैयार किया जा रहा है। जन्मभूमि परिसर में कुल 7 मंदिर बनाए जाने पर भी विचार हैं जिसे फाइनल किया गया ।

बैठक में ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष गोविंद देव गिरि, सदस्य डॉ. अनिल मिश्र, महंत दिनेंद्र दास, आर्किटेक्ट आशीष सोमपुरा सहित टाटा, एलएंडटी व ट्रस्ट के इंजीनियर शामिल रहे।

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Chhapra: दुर्गा पूजा को लेकर शहर से लेकर गांवों तक पूजा पंडालों और मूर्ति निर्माण का कार्य जोर शोर से जारी है. पूजा समितियों के द्वारा अपने-अपने पंडालों मूर्तियों को बेहतर और आकर्षक बनाने के लिए प्रयास किये जा रहे है.
पूजा समितियों के द्वारा प्रत्येक वर्ष कुछ नया और अलग तरह के पंडाल निर्माण की कोशिश की जाती रही है. ऐसे में शहर के आदर्श दुर्गा पूजा समिति, बड़ा तेलपा स्टैंड के द्वारा इस वर्ष भी आकर्षक पूजा पंडाल बनाने की तैयारी है.
पूजा समिति से जुड़े अभिषेक कुमार ने बतया कि आदर्श दुर्गा पूजा समिति के द्वारा वर्ष 1995 से अबतक प्रत्येक साल पूजा का आयोजन होता है. जिसमे पंडाल का निर्माण होता है. विगत 2 वर्ष कोरोना के कारण आयोजन भव्य नहीं हो सका था, लेकिन इस बार पुनः इसे वृहद् रूप से करने की कोशिश में पूजा समिति जुटी हुई है.
उन्होंने बताया कि प्रत्येक वर्ष पंडाल को आकर्षक बनाने के लिए अलग अलग वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है. इस बार पंडाल का निर्माण राजस्थान के जैन मंदिर के जैसा किया जा रहा है. खास बात यह है कि इस पंडाल के निर्माण में लगभग 50 हज़ार मिट्टी के दीया का प्रयोग किया जायेगा. पंडाल 70 फिट ऊँचा और 50 फिट चौड़ा बनेगा. इस पूजा समिति के अध्यक्ष सीताराम सिंह और कोषाध्यक्ष मनोज राय हैं.
पूजा समिति के सदस्य दिन रात पंडाल और मूर्ति के निर्माण को ससमय पूर्ण कराने में जुटे है. इस पूजा समिति के पंडाल के आकर्षण को हमेशा से लोग पसंद करते आये हैं. छपरा टुडे डॉट कॉम डेस्क की रिपोर्ट
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– अनादि विमल तीर्थ पिशाचमोचन कुंड और गंगा तट गुलजार

 

वाराणसी: भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि के बाद से पितृ पक्ष की शुरुआत हो गई। श्राद्ध पूर्णिमा (प्रतिपदा का श्राद्ध) तिथि पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए बड़ी संख्या में लोग गंगा तट और अनादि विमल तीर्थ पिशाचमोचन कुंड पर श्राद्ध कर्म के लिए उमड़ पड़े। पहले दिन लोगों ने त्रिपिंडी श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण और विधि विधान से श्राद्ध कर्म किया। जिनके पूर्वजों की अकाल मृत्यु हुई थी उन्होंने श्रद्धापूर्वक कर्मकांडी ब्राम्हणों से त्रिपिंडी श्राद्ध कराया।

श्राद्धकर्म के लिए दूर-दराज के प्रांतों से श्रद्धालु शुक्रवार शाम को ही शहर में आ गये थे। अलसुबह से ही गंगा तट और पिशाचमोचन कुंड गुलजार हो गया। गया जाने के पूर्व पिशाचमोचन कुंड पर अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा निवेदित करने के लिए लोग श्राद्ध कर्म सुबह से करते रहे। माना जाता है कि तर्पण और श्राद्ध कर्म से पितृदोष से मुक्ति के साथ पितरों की आत्मा भी तृप्त होती है। तर्पण न करने से पितरों को मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा भी मृत्यु लोक में भटकती है। ऐसे में पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया जाता है। पिशाचमोचन कुंड स्थित शेरवाली कोठी के पंडा पं. श्रीकांत मिश्र और प्रदीप पांडेय ने हिन्दुस्थान समाचार से कहा कि पितृपक्ष में पूर्वजों का स्मरण और उनकी पूजा करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व.पितृ तर्पण किया जाता है। पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके जीवन में सभी कार्य सिद्ध होते हैं और घर, परिवार, वंश बेल की वृद्धि होती है।

प्रदीप पांडेय ने बताया कि पितृदोष के शमन के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है। सनातन धर्म में ये श्राद्ध कर्म सबके लिए है। पूर्वजों की आत्मा की प्रसन्नता के लिए कम से कम तीन बार त्रिपिंडी श्राद्ध अवश्य वंशजों को करना चाहिए। इससे अधिक बार भी कर सकते है। विमल तीर्थ पर श्राद्ध कर्म का इतिहास हजारों साल पुराना है। इस कुंड पर श्राद्ध कर्म का उल्लेख स्कंद महापुराण में भी है। गरुड़ पुराण में भी लिखा हैं। प्रदीप पांडेय बताते है कि पिशाचमोचन मोक्ष तीर्थ स्थल की उत्पत्ति गंगा के धरती पर आने से भी पहले से है। ये श्राद्ध कर्म काशी के अलावा कहीं और नहीं होता। पितृ पक्ष में पितरों के लिए 15 दिन स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया जाता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से है। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फल-फूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। इससे प्रसन्न होकर पितर अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर जाते हैं। प्रदीप पांडेय बताते हैं कि पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। काशी को प्रथम पिंड कहते हैं। सबसे पहले लोग काशी में पिशाचमोचन कुंड पर आकर पिंड दान करते हैं। उसके बाद गया और फिर अंत में केदारनाथ जाते हैं। मान्यता यह भी है कि पिशाचमोचन कुंड में स्नान करने से तमाम तरीके की बाधाओं से मुक्ति मिलती है।

शेरवाली कोठी के वयोवृद्ध कर्मकांडी पं. श्रीकांत मिश्र बताते हैं कि त्रिपिंडी श्राद्ध सिर्फ पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए नहीं किया जाता। अत्यधिक बीमार व्यक्ति के लिए भी किया जाता है। त्रिपिंडी श्राद्ध कर्म पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु की बाधाओं से मुक्ति दिलाता है तो असाध्य बीमारी को भी ठीक करता है। त्रिपिंडी श्राद्ध में भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान रुद्र; शिव की पूजा की जाती है। पं श्रीकांत बताते हैं कि श्राद्ध पक्ष में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र, पौत्रादि हमें पिंडदान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि सनातन धर्म में प्रत्येक गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।

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पटना/बेगूसराय: दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा समर्पण और उनके मोक्ष की कामना के लिए पितृपक्ष शनिवार को अगस्तमुनि को जल देने के साथ ही शुरू हो गया। अब अगले 15 दिनों तक लोग अपने पूर्वजों को प्रत्येक दिन प्रातः बेला में जल देने के साथ मृत्यु तिथि के अनुसार विशेष पिंडदान करेंगे।

पितृ पक्ष को लेकर कुछ लोग जहां पिंडदान करने दुनिया के चर्चित मोक्ष स्थली गया गए हैं। वहीं, अधिकतर लोग अपने-अपने घर पर ही पुरोहित के माध्यम से पूर्वजों को जल अर्पण कर रहे हैं। इसकी शुरुआत को लेकर पितृपक्ष महालया के अवसर पर शनिवार को गंगा किनारे लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। लोग अपने पूर्वजों के मोक्ष की कामना को लेकर गंगा स्नान किया तथा गंगाजल लेकर घर गए हैं, इसी जल से प्रत्येक दिन तर्पण करेंगे।

पुरोहितों के अनुसार पितृलोक भी अदृश्य जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है। सनातन धर्मग्रंथों के अनुसार श्राद्धपक्ष के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं।

ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी माह तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है, इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्ष भर तक प्रसन्न रहते हैं।

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