27 सितंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में पैदा हुए हिंदी के समर्थ कवि एवं गज़लकार दुष्यंत कुमार ने महज 44 साल की उम्र में 30 दिसंबर 1975 को दुनिया को अलविदा कह दिया।
इन 44 साल के छोटे से काल में दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जो ऊंचाइयां दीं, वह समय की रेत पर आज भी अंकित है।
दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नया अर्थ देते हुए उसमें अपने दौर की छटपटाहट को आकार दिया। लिहाजा, दुष्यंत कुमार के शेर आज भी मुहावरे की तरह इस्तेमाल होते हैं- मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
दुष्यंत की पंक्तियों को लेकर निदा फ़ाज़ली ने सटीक कहा है कि “दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है।
यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।
तभी तो दुष्यंत ने लिखा- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।