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जयंती पर विशेष: सारण के गर्व हैं ‘पूर्वी’ के जनक पं. महेंद्र मिश्र

देश की आजादी में सारण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. कलम और बन्दूक दोनों के परस्पर सहभागिता ने आजाद भारत की नीव रखी. सारण की धरती पर एक ऐसे ही युगपुरुष का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी लेखनी और बुद्धिमता के बल पर अंग्रेजों को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया. ऐसे ही एक नायक थे पंडित महेंद्र मिश्र. उनका जन्म सारण जिले के जलालपुर प्रखंड के मिश्रवलिया गाँव में 16 मार्च 1886 को हुआ था. पंडित जी महान स्वतन्त्रता सेनानी होने के साथ साथ पूर्वी धुन के प्रणेता भी थे.

प्रत्येक वर्ष राज्य सरकार द्वारा उनके जयंती पर सरकारी कार्यक्रम आयोजित कर उन्हें याद तो जरुर किया जाता है, पर आज तक पंडित जी को न स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा मिला और न ही उनके घर को राजकीय संग्रहालय घोषित किया गया.

आजादी की लड़ाई में अंग्रेजी हुकूमत से उन्होंने अपने तरीके से लोहा लिया और अंग्रेजों को आर्थिक रूप से कमजोर करने की ठानी. पंडित जी के पौत्र रामनाथ मिश्र बताते है कि पंडित जी जाली नोट छाप कर स्वतंत्रता सेनानियों को मदद पहुंचाते थे और अंग्रेजों को आर्थिक क्षति.

वे बताते है कि अंग्रेजी हुकूमत को जब इस बात की जानकारी हुई तब उसने पंडित जी के पीछे जासूस लगा दिया. अंग्रेजी हुकूमत का जासूस पंडित महेंद्र मिश्र के यहाँ जटाधारी प्रसाद उर्फ गोपीचन्द्र नाम के नाम से रहने लगा. जो 3 वर्षो तक घर का काम काज देखता रहा. लेकिन पंडित जी नकली नोट छापने का काम इतने गुपचुप तरीके से करते थे कि उस जासूस को तीन साल यह पता लगाने में लग गए की पंडित जी पैसा छापते कब और कहा है.

उनके पौत्र ने बताया कि रात में सब लोग सो जाते थे तो पंडित जी शिव मंदिर में पूजा के बहाने बाहर जाकर घर के बगल के एक कुए से आँगन में आ जाते थे और सारी रात नोट छापते और सुबह यही नोट भिखारियों में बाँट देते थे. दरअसल यह भिखारी लोग स्वतंत्रता सेनानी होते थे.

उनके साथ रह रहे जासूस गोपीचन्द्र के निशानदेही पर 1924 में पंडित जी को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके साथ उनका छापा खाना भी बरामद कर लिया गया. उनके पौत्र बताते है कि गिरफ्तारी के बाद अपने घर में काम करने वाले उस जासूस को पुलिस के वर्दी में देख उन्होंने एक गाना गया था जो आज भी लोगों की जुबान पर है. इस गाने के बोल थे, ‘हंसी-हंसी पनवा खियाइले रे गोपिचन्दवा पिरितिया लगा के भेजवले जेहल खनवाँ’.

इसके बाद अंग्रेज न्यायालय ने उन्हें 20 वर्ष की सजा सुनायी. जिसके बाद 16 अप्रैल 1924 से 1932 तक सेन्ट्रल जेल बक्सर में कैद रहे. पर आठ साल में ही कैद से बाहर आ गए. मिश्र जी के पौत्र रामनाथ मिश्र ने बताया कि बक्सर जेल में रहते उनके गायन कला से जेलर प्रभावित हो गया और अपनी बेटी को गायन की शिक्षा देने का उनसे अनुरोध किया. पंडित जी ने उसे शिक्षा देना शुरू किया. 1932 में सिल्वर जुबली मनाने के समय जेल का दरवाजा खुला पाकर वह जेल से निकल गए. जेल में रहने के दौरान उन्होंने अपूर्व रामायण नामक ग्रन्थ की रचना की. जो आप भी उनके पांडुलिपि में संरक्षित की गयी है. इस ग्रन्थ का प्रकाशन अब तक सरकारी उदासीनता के कारण नहीं हो सका है.

यह दुर्भाग्य की बात है की आज़ादी के इतने सालों के बाद भी पंडित जी को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं मिल सका. इसके साथ ही उनके द्वारा रचित महामहाकाव्य  ‘अपूर्व संगीत रामायण’ को अब तक प्रकाशित नहीं कराया जा सका है. 

महेंद्र मिश्र की कुछ प्रमुख रचनाये-

पूर्वी, गजल, खेमटा, दादरा, शेर, चैता, ठुमरी, फगुआ, चौबोला आदि.

 

 

 

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