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‘ऐ जजमानी तहार सोनें के केवाड़ी दू गो गोइठा द’

{संतोष कुमार ‘बंटी’}

होलिका दहन यानि हम अपनी भाषा में कहे तो ‘समहत’. होली की पूर्व संध्या पर मनाया जाने वाली यह पारंपरिक विधि जिसको लेकर लोगों में ख़ासकर युवाओं में अलग ही उत्साह रहता हैं. लेकिन बदलते दौड़ में यह विधाएं भी बदलती जा रही हैं.

होलिका दहन को अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नाम से मनाया जाता है लेकिन हमारे यहाँ तो इसका अलग ही आनन्द हैं. होलिका दहन के एक सप्ताह पूर्व से ही इसकी तैयारी. लोगों को आपस में मिलना टोली बनाना और घर घर जाकर होलिका दहन के लिए लकड़िया मांगना. एक अलग ही उत्साह रहता हैं और इन सब में ख़ास होता है यह गीत “ऐ जजमानी तोहर सोनें के किवाड़ी दू गों गईठा द गईठा नइखे, लकड़ी द लकड़ी नईखे, पईसा द” हर घर से गीत गाना और लकड़ी, गोइठा, पैसा, कपूर के साथ साथ तरह तरह के पकवान भी खाने को मिलते थे.

मोहल्ले टोले में एक स्थान पर मिलने वाली सभी लकड़ियों सहित अन्य सामानों को बटोरना और पूरे विधि विधान से पूजा कर होलिका दहन करना अलग ही आनन्द देता था. लेकिन अब यह गीत सिर्फ यादें बनकर रह गयी हैं. अब ना युवाओं की टोली बनती है और ना ही  के बड़े बुजुर्ग इन सब कामों के लिए अपने बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं.

बहरहाल होलिका तो आज भी जल रही है आज मांगने वालों के ना होंने से लोग खुद वहा जाकर लकड़िया, गोइठा और पैसा दान करते है और घर चले आते है. देर रात आयोजकों द्वारा होलिका का दहन भी विधि विधान से किया जाता हैं. पर्व त्यौहार लोगों को आपस में प्यार से मिलजुलकर रहने का संदेश देता हैं.

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