Site icon | छपरा टुडे डॉट कॉम | #ChhapraToday.com

नहीं चलेंगे-एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान

भारतीय जनसंघ के संस्थापक और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के मुखर विरोधी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी थी। कश्मीर से अनुच्छेद 370 और राज्य को विशेष दर्जा देने के प्रबल विरोधी रहे डॉ. मुखर्जी की इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयासों के दौरान मौत हुई। भाजपा इसे ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाती रही है।

06 जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। उससे पहले महज 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने और चार वर्षों बाद कलकत्ता विधानसभा पहुंचे। प्रखर राष्ट्रवादी डॉ. मुखर्जी ने नेहरू-लियाकत पैक्ट के विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था लेकिन अन्य कई मामलों को लेकर भी पंडित नेहरू से उनके गहरे मतभेद थे। इनमें भारत में कश्मीर की स्थिति का सवाल सबसे प्रमुख था। वे साफ मानते थे कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे। उनका मानना था कि कश्मीर में प्रवेश के लिए किसी भारतीय को अनुमति नहीं लेनी पड़े।

डॉ.मुखर्जी ने लगातार बढ़ते मतभेदों के बाद 1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। 21 अक्टूबर 1951 को उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। 1951-52 के पहले आम चुनाव में भारतीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए, जिनमें एक डॉ. मुखर्जी थे।

कश्मीर से सम्बंधित अनुच्छेद 370 हटाने के लिए डॉ. मुखर्जी ने जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन शुरू करने की योजना बनायी। 08 मई 1953 को बगैर जरूरी अनुमति लिए वे दिल्ली से कश्मीर के लिए चल पड़े। उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी, वैद्य गुरुदत्त, डॉ. बर्मन आदि सहयोगी भी थे। दो दिनों बाद 10 मई को जालंधर पहुंचकर उन्होंने साफ कर दिया कि बिना किसी अनुमति के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश हमारा अधिकार होना चाहिए। राज्य की सीमा में प्रवेश के साथ ही जम्मू-कश्मीर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 40 दिनों तक डॉ.मुखर्जी जेल में रहे। 22 जून को अचानक उनकी तबियत बिगड़ गयी और अस्पताल में 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

Exit mobile version