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रामनवमी विशेष: राम और रामराज्य

गिरीश्वर मिश्र
आज सामाजिक जीवन की बढ़ती जटिलता और चुनौती को देखते हुए श्रीराम बड़े याद आ रहे हैं, जो प्रजा वत्सल तो थे ही अपने निष्कपट आचरण द्वारा पग-पग पर नैतिकता के मानदंड स्थापित करते चलते थे। सत्य की स्थापना के लिए बड़ी से बड़ी परीक्षा के लिए तैयार रहते थे। लोक का आराधन तथा प्रजा का सुख उनके लिए सर्वोपरि था परन्तु आज राजा और प्रजा दोनों संकट के दौर से गुजर रहे हैं। आज के समाज में रिश्तों में दरार, कर्तव्य से स्खलन, मिथ्यावाद, अन्याय और भेदभाव के साथ नैतिक मानदंडों से विमुखता के मामले जिस तरह बढ़ रहे हैं वह चिंताजनक स्तर पर पहुँच रहा है। विशेष रूप से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च पदस्थ और संभ्रांत कहे जाने वाले लोगों का आचरण जिस तरह संदेह और विवाद के घेरे में आ रहा है वह भारतीय समाज के लिए घातक साबित हो रहा है।
यह स्थिति इसलिए भी नाजुक हो रही क्योंकि यहाँ ‘महाजनो येन गता: स पन्था:’ का आदर्श मानते हुए सामान्य जनों द्वारा बड़े लोगों का अनुकरण बड़ा स्वाभाविक और उचित माना गया है क्योंकि वे आदर्श माने जाते हैं। यहाँ तो पढ़े लिखे लोग भी देखी-देखा पाप-पुण्य करते हैं। इसीलिए शायद उपनिषद् में गुरु-शिष्य को ‘आचार्य देवो भव’ का उपदेश देते हुए यह हिदायत भी देता चलता था कि ‘ सिर्फ हमारे अच्छे कार्यों को ही अपनाओ, बाकी को नहीं।’ परन्तु आज नैतिकता हाशिये पर धकेली जा रही है और माननीय लोगों के (सामाजिक !) जीवन की वरीयताएं भी निजी और क्षुद्र स्वार्थ के इर्द-गिर्द ही मडराती दिखती हैं। न्याय की पेचीदा व्यवस्था में इतने पेंच होते हैं कि अपराधी को खूब अवसर मिलते हैं और न्याय होने में अधिक विलम्ब होता है। इसी तरह आपसी सौहार्द और सहिष्णुता की जगह अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी विकारग्रस्त मानसिकता को व्यक्त करती है। दुर्भाग्य से टीवी और सोशल मीडिया में ऐसे माहौल को सतत बढ़ावा मिल रहा है वह भी तीव्र वेग से। सूचना, तथ्य, सत्य, असत्य, मिथ्या, भ्रान्ति, और प्रवाद आदि के बीच की सीमा रेखाएं टूटती जा रही हैं। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की कृपा से आज इनमें से कुछ भी कभी भी ‘वायरल’ हो सकता है। इस अशांत परिवेश में विश्रान्ति की प्राप्ति दूभर हो रही है। ऐसे में श्रीराम की कथा मंगल करने वाली और कलिमल को हरने वाली है: मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
धरती पर भगवान के अवतार का अवसर सृष्टि-क्रम में आई विसंगति और असंतुलन को दूर करने के लिए पैदा होता है। रामावतार भी इसी पृष्ठभूमि में ग्रहण किया जाता है जो अंतत: राक्षस राज रावण के विनाश और राम राज्य की स्थापना को रूपायित करता है। राम को अनेक तरह से देखा जाता है और बहस चलती रहती है कि वे इतिहास पुरुष हैं या ईश्वर हैं, सगुण हैं या निर्गुण हैं। पर जो राम सबके मन में बसे हैं और जिस राम नाम को भजना बहुतों के लिए श्वास-प्रश्वास तुल्य है उनको प्रति वर्ष चैत महीने की नवमी को जीवन में उतार कर लोग कृत कृत्य होते हैं। राम का स्मरण भारतीय इतिहास, काव्य, कला, संगीत आदि में जीवित हो और संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका है। राम का रस अनपढ़, गंवार, सुशिक्षित सभी को भिगोता रहता है।
हमारे सामने राम को उत्कृष्ट जीवन में अपेक्षित सात्विक प्रवृत्तियों के पुंज के रूप में वाल्मीकि रामायण, गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस और देश की लगभग सभी भाषाओं में उपलब्ध विभिन्न राम कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इनका गायन और लीला का मंचन भी शहर, कस्बा और गाँवों में होता रहता है। कई कथा वाचकों ने रामकथा के विशिष्ट रूप भी विकसित किए हैं जिनको सुनकर लोग भाव विभोर हो जाते हैं। प्रजा वत्सल राम सबको आश्वासन देते हैं और सबके लिए सुलभ हैं। रामकथा इतने व्यापक वितान में संयोजित है कि जीवन के रिश्तों में आने वाले हर किस्म के उतार-चढ़ाव, हर्ष-विषाद, मिलन-विछोह, द्वंद्व-सहयोग और घृणा-प्रीति जैसी का शंका समाधान की शैली में प्रस्तुति सभी के लिए ग्राह्य है।
रामकथा ने जन मानस में सुशासन की एक झांकी बैठा दी है जिसमें राजा के चरित्र और चर्या का एक आदर्श रूप गढ़ा गया है। श्रीराम का यह आदर्श राज्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भा गया था। नैतिकता और धर्म की प्रधानता ने उनको बड़ा प्रभावित किया था। राम राज्य का स्वप्न जिन मूल्यों पर टिका हुआ है उनमें सत्य, शील, विवेक, दया, समता, वैराग्य संतोष, दान , अहिंसा, विवेक, क्षमा, बल, बुद्धि, शौर्य और धैर्य के मूल्य प्रमुख हैं। इन्हीं से धर्म रथ बनता है। तभी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से छुटकारा मिलता है। राम राज्य में सभी परस्पर प्रेम भाव से रहते हैं और स्वधर्म का आचरण करते हैं : सब नर करहिं परस्पर प्रीति चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।
श्रीराम इस सुशासन के लिए लम्बी साधना और कठोर दीक्षा से गुजरे थे। वन में भटके थे, अति सामान्य कोल किरात, निषाद, वानर आदि के सुख दुःख के सहभागी हुए और जाने कितने तरह की पीड़ाओं को झेला। वे प्रतापी पान्तु अहंकारी और विवेकहीन रावण को परास्त करते हैं। राम देश काल और समाज से जुड़ते चलते हैं और कर्म के जीवन को प्रतिष्ठापित करते हैं। मनुष्य का जन्म दुर्लभ है जो ‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’ है।
महात्मा गांधी ने स्वराज, सर्वोदय, समता, समानता वाले जिस भारतीय समाज का स्वप्न देखा था उसके लिए प्रेरणा ही नहीं आधार रूप में उन्होंने सत्य रूपी ईश्वर को प्रतिष्ठित किया था और राम नाम उनके जीवन का अभिन्न अंग बना रहा। राम धुन उनकी दैनिक प्रार्थना में सम्मिलित था। अधर्म, पाप, अनीति के विरुद्ध वे सदैव खड़े रहे। उनके राम परमेष्ठी थे, शाश्वत और सार्व भौम। राम सगुण निर्गुण सभी रूपों में सबके लिए हैं, उपलब्ध हैं और सर्वव्यापी होने से उनकी उपस्थिति की अनुभूति के लिए आस्था चाहिए। करुणासागर और दीनबंधु श्रीराम का ध्यान और विचार का आशय है नैतिकता के बोध का विकास। आज के बेहद कठिन होते समय में राम का स्मरण निश्चय ही मंगलकारी होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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