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दुनिया के अस्तित्व के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना ज़रूरी: प्रशान्त सिन्हा

जीवाश्म ईंधन से वैश्वीकरण कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन पूर्व की तुलना में एक फीसदी बढ़ने का अनुमान है जो खतरे की घंटी है और इसे बढ़ने से रोकना ही एक विकल्प है। बीते दशक में किसी भी देश ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने की उतनी प्रयास नहीं की जितनी अपेक्षा थी। चिंता इस बात की है कि कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि की यही रफ्तार रही तो आने वाले कुछ वर्षो में औद्योगिक पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से उपर पहुंच जाएगा जो दुनिया के लिए एक चुनौती होगा।

पिछले कुछ दशकों से मानवजनित गतिविधियों के चलते कार्बन डायऑक्साइड और दूसरे और दूसरे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन प्रति वर्ष 1 फीसदी की दर से बढ़ा है। इससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा हमारे पर्यावरण को लगातर नुकसान पहुंचा रहा है जबकि दुनिया के अस्तित्व के लिए के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम से कम प्रति वर्ष 3 – 6 फीसदी की दर कम करना होगा जिससे धरती के बढते तापमान पर अंकुश लगाई जा सके।

हालाकि पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट के दौरान इसके सदस्यों देशों ने धरती के तापमान को इस शताब्दी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस कम करने का संकल्प लिया था लेकिन इसे लागू होने के पांच साल के बाद भी इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है । संप्रभु देशों में साल 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य करने की प्रतिबद्धता दोहराई थी।

चिंता की बात यह है कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर शिखर सम्मेलन, सेमिनार और बैठकों के दौर भले ही कितने मजबूती के साथ होते रहे हों, लेकिन इस मामले में लगाम लगाना तो दूर की बात है, इसका स्वरूप लगातार घातक रूप धारण करता जा रहा है। बहुत सारे ऐसे देश हैं जिन्होंने अपने यहां पर्यावरण नीति तक को लागू नहीं किया है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने ऊर्जा को लेकर कहा था कि यह “सोने का वो धागा है जो आर्थिक विकास, सामाजिक समानता और पर्यावरणीय स्थिरता को जोड़ता है”.

इसका मूल कारण कोयले की खपत में बेतहाशा बढ़ोतरी है। यह बढ़ोतरी तेल की खपत में भी हुई है। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। भारत में साल 2022 में उत्सर्जन में छह फीसद की वृद्धि हुई है और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोयले का इस्तेमाल रहा। हालाकि कार्बन डायऑक्साइड के बढ़ते स्तर से भारत पर क्या प्रभाव होगा इसका कोई आकलन नहीं है।

सेंटर फॉर साइंस द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार 20वीं सदी की शुरुआत के बाद भारत के वार्षिक औसत तापमान में लगभग 1.2 डिग्री की वृद्धि हो चुकी है जिसके परिणामस्वरूप मौसम की घटनाओं जैसे बेमौसम बारिश, बाढ़, सुखा, और उसमें आ रही अनियमितता और ओलावृष्टि मे हो रही वृद्धि साफ देखी जा सकती है। कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि अमेरिका सहित बाकी दुनिया में भी रही, मगर तुलनात्मक फीसद कम है, जबकि चीन और यूरोपीय संघ में 2021 में मुकाबले क्रमश 0.9 व 0.8 फीसद की गिरावट दर्ज की गई। दुनिया के दस सबसे बड़े कार्बन डायऑक्साइड का उत्पादक देशों का कुल कार्बन डायऑक्साइड गैस के उत्पादन में 67.6 का योगदान है, जिसमे चीन का अकेले योगदान लगभग 30 % है।

हालाकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र को आश्वस्त किया है कि 2070 तक नेट शून्य तक पहुंचने के और 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पादों की संबद्धता को 45 प्रतिशत तक कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। दावे कुछ भी करें लेकिन असलियत में सौर उर्जा और पवन उर्जा के मामले में हम बहुत पीछे हैं जबकि इस क्षेत्र में हमे बहुत आगे होना चाहिए था। इस दिशा में यूरोप की प्रशंसा की जानी चाहिए जिसने अक्षय उर्जा के महत्व को समय रहते समझ लिया। साल 2000 के दशक के शुरुआत में यूरोप में कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि की दर तीन फीसदी सलाना थी लेकिन इस साल की एक फीसदी की अनुमानित बढ़ोतरी अपेक्षाकृत कम ही है। कॉप 26 की बैठक में 193 देशों ने राष्ट्रीय कारवाई योजनाओं को अधिक महत्तवपूर्ण बनाने शून्य उत्सर्जन, वन संरक्षण और जलवायु वित्त पोषण सहित अनेक संकल्प लिए थे लेकिन दुख की बात यह है कि अभी तक 23 देशों ने ही यू एन को अपनी योजनाएं भेजी है।

ऐसी स्थिति में धरातल पर पूर्ण, समावेशी, सामायिक व विस्तृत कारवाई की उम्मीद बेमानी है। जलवायु से जुड़े मुद्दों पर कुछ भौतिक दृष्टिकोण को लेकर विचारों से भिन्नता के कारण प्रमुख मुद्दों पर प्रगति की जो आशा थी वह धूमिल तो हुई है लेकिन 150 से अधिक देश मीथेन उत्सर्जन को कम करने के सवाल पर सहमत हुए हैं।

जहां तक भारत का प्रश्न है भारत के सामने दोहरी चुनौती है। एक तो यहां करोड़ों लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे हैं। इन्हें गरीबी से बाहर निकालने के लिए आर्थिक विकास जरूरी है। दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन पर लगाम लगाना है। ये दोनों लक्ष्य अपने आप में विरोधाभासी हैं।  भारत को जलवायु परिवर्तनों के प्रभाव को कम करने और वित्तीय आवश्यकताओं के लिए धनी देशों पर दबाव बनाए रखना चाहिए।

भारत ने ग्लोबल वार्मिंग में बहुत कम योगदान दिया है और दुनिया की आबादी का 17 प्रतिशत हिस्सा मौजूद होने के बावजूद, संचयी वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन में इसका ऐतिहासिक योगदान बहुत कम रहा है।  भारत को जलवायु सहनशील होने की जरूरत है। राष्ट्रीय परिस्थितियों के आलोक में, समानता, साझा एवं अलग-अलग जिम्मेदारियों और सम्बन्धित क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांतों के साथ-साथ “जलवायु न्याय” और “स्थायी जीवन शैली” के दो विषय, जिन पर भारत ने पेरिस में जोर दियाथा , कम उत्सर्जन  वाले भविष्य के केंद्र में हैं।

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