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प्रकृति की पूजा का ही पर्व है छठ: प्रशांत सिन्हा

छठ पर्व को पूरी तरह प्रकृति संरक्षण की पूजा माने तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस पर्व में लोग प्रकृति के करीब तो पहुंचते ही हैं उसमे देवत्व स्थापित करते हुए उसे सुरक्षित रखने की कोशिश भी करते हैं। वैसे देखा जाए तो भारतीय संस्कृति में कोई भी ऐसा पर्व नही है जिसका प्रकृति से सरोकार न हो।

दीपावली के छठे दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल को षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ महापर्व में पर्यावरण को विशेष महत्व दिया गया है। मुख्यतः यह त्योहार सूर्य पूजा, उषा पूजा, जल पूजा को जीवन में विशेष स्थान देते हुए पर्यावरण की रक्षा का संदेश भी देता है। इस पर्व में सभी लोग प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं। अपनी अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहे होते हैं।

यह पर्व इस संसार में अपनी तरह का अकेला ऐसा महापर्व है जिसमे धार्मिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, आर्थिक और सामाजिक आयाम की सबसे ज्यादा प्रबलता है। सूर्य इस त्योहार का केंद्र है। भारतीय समाज में भगवान भास्कर का स्थान अप्रतिम है। समस्त वेद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भगवान सूर्य की महिमा का विस्तार से वर्णन है। सूर्य जीव जगत के आधार है। सूर्य के बिना कोई भी भोग – उपभोग संभव नही है। अतः सूर्य के प्रति आभार प्रदर्शन के लिए छठ व्रत मनाया जाता है। ऐसा लोगो का मानना है कि सूर्य उन क्षेत्रों के सबसे उपयोगी देव हैं जहां पानी की उपलब्धता ज्यादा है। जब सूर्य समाधि में व्यक्ति स्वयं निर्जल होकर भास्कर को जल समर्पित करता है तो प्रकृति और व्यक्ति के अतुल्य समर्पण के दर्शन होते हैं। व्यक्ति के प्रकृति को स्वयं से उपर रखने के दर्शन होते हैं।

हमारी सूर्य केंद्रित संस्कृति कहती है कि वही उगेगा जो डूबेगा। जैसे सूर्य अस्त होता है वैसे ही फिर उदय होता है। अगर एक सभ्यता समाप्त होती है तो दुसरी जन्म लेती है। जो मरता है वह फिर जन्म लेता है। जो डूबता है वह फिर उबरता है। जो ढलता है वह फिर खिलता भी है। यही चक्र छठ है। यही प्राकृतिक सिद्धांत छठ का मूल मंत्र है। अतः छठ में पहले डूबते और फिर अगले दिन उगते सूर्य की पूजा स्वाभाविक है। व्रत करने वाला आभार जताने घर से निकल कर किसी तालाब, नदी, पोखरा पर जाता है और अरग्य देता है। इसका अर्थ होता है हे सूर्य आपने जल दिया है उसके लिए आभार लेकिन आप अपने ताप का आशीर्वाद भी हम पर बना कर रखें।

प्रकृति से प्रेम, सूर्य और जल की महत्ता का प्रतिक छठ पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। पूजा स्थल को गाय के गोबर से लीपा पोती किया जाता है । वैज्ञानिकों के अनुसार, गाय के गोबर में प्रचुर मात्रा में विटामिन बी-12 पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। घर द्वार से लेकर हर मार्ग और नदी, पोखरा, तालाब, कुआं तक की सफाई से जल, वायु और मिट्टी शुद्ध होता है जो पर्यावरण को संरक्षित करता है। इस पर्व पर प्रसाद के रूप में चढ़ाए जाने वाला केला, दीया, सुथनी, आंवला, बांस का सूप, डलिया किसी न किसी रूप में हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। यह पर्व पूरी तरह से वैज्ञानिक महत्व एवं प्रदूषणमुक्त हैं।

प्रकृति का हनन रोकना भी छठ है। गंदगी, काम, क्रोध, लोभ को त्यागना छठ है। सुख सुविधा को त्याग कर कष्ट को पहचानने का नाम छठ है। शारीरिक और मानसिक संघर्ष का नाम छठ है। छठ सिर्फ प्रकृति की पूजा नही है। वह व्यक्ति की भी पूजा है। व्यक्ति प्रकृति की ही तो अंग है। छठ प्रकृति के हर उस अंग की उपासना है जिसमे कुछ गुजरने की, कभी निराश न होने की, कभी हार न मानने की, डूबकर फिर खिलने की, गिरकर फिर उठने की हठ है। यह हठ नदियों में, बहते जल में, और किसान की खेती में है। इसलिए छठ नदियों, सूर्य एवं परंपराओं की पूजा है। छठ पर्व से सबक लेते हुए हमें अपनी संस्कृति, प्रकृति के प्रति जागरुक होना चाहिए। अपनी संस्कृति एवं प्रकृति की मर्यादाओं, श्रेष्ठताओं को कभी नही भूलना चाहिए।

(लेखक प्रशांत सिन्हा पर्यावरण मामलों के जानकार एवं समाज सेवी हैं।)

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