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महिलाओं के गौरव और सम्मान को समर्पित है महिला दिवस: प्रशांत सिन्हा

8 मार्च को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस है जो हर साल पूरे विश्व में मनाया जाता है। आज महिलाएं स्वावलंबन ही क्यों, बल्कि सशक्तिकरण की अद्वितीय मिसाल हैं। 18वीं और 19वीं सदी से पहले यह माना जाता था कि पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन में महिलाओं की भूमिका नही है, साथ ही साथ सामाजिक जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्रों में उन्हें नकारा गया। लेकिन अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरुकता फैलाने और आस पास का संज्ञान लेने के बाद उन्होंने सचेत रुप से पर्यावरण के क्षरण के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की। महिलाएं परिवार और समुदाय के स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और पर्यावरणीय क्षरण से सबसे ज्यादा प्रभावित भी होती हैं। साथ ही पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन के लिए नेतृत्वकारी भूमिका भी निभाती हैं। असलियत में अपने देश में महिलाओं ने खेल, रक्षा, शिक्षा, विज्ञान, राजनीति, औषधि, पर्यावरण और कौन सा ऐसा क्षेत्र है जहां महिलाओं ने अपनी पहचान नही बनाई है। वे अपने संघर्ष और मेहनत से घर को संभालते हुए लगातर आगे बढ़ रहीं हैं और अपनी उपलब्धियों से देश का गौरव भी बढ़ा रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर अपने संबोधन में इस बात को बार बार रेखांकित भी किया है कि ” आज मुद्दा महिलाओं के विकास का नहीं बल्कि महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास का है। ” पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में भी महिलाओं की भूमिका रही है। प्रकृति से प्यार महिलाओं में जन्मजात होता है। उनकी सोच जितना हो सके पर्यावरण बचाने की होती है। जहां वे आम घरों में अपनी छोटी-छोटी कोशिशों के जरिए प्रकृति को सहेजने में अपना योगदान देती हैं, वहीं व्यवसाय या सार्वजनिक पहल में भी प्रकृति को विनाश से बचाने की सोच रखती हैं। वे सतर्क हैं और महसूस करती हैं कि पर्यावरण संरक्षण की महती जरूरतों को। पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में महिलाओं की भूमिका को विद्वानों ने कुछ इस प्रकार परिभाषित किया है। कार्ल मार्क्स के अनुसार ” कोई भी बड़ा सामाजिक परिर्वतन महिलाओं के बिना नहीं हो सकता।” कौफी अन्नान के अनुसार “इस ग्रह का भविष्य महिलाओं पर निर्भर है।” रियो डिक्लेरेशन में भी माना गया कि पर्यावरण प्रबंधन एवं विकास में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इतिहास से लेकर वर्तमान तक इस कथन को कई महिलाओं ने साबित भी कर दिखाया है। गौरा देवी, सुनीता नारायण, मेघा पाटकर, अमृता देवी और तुलसी गौड़ा जैसी बहुत सी महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये महिलाएं भारतीय समाज में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने और लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनी हैं। मेघा पाटकर की नर्मदा बचाओ आंदोलन और वंदना शिवा की नवधान्या आंदोलन की पर्यावरण बचाओ आंदोलन में अहम भूमिका रही है। देश की आज़ादी के आंदोलन में भी अपनी जान गंवाने से भी वह पीछे नहीं हटीं हैं, उन्हीं महिलाओं ने आजाद भारत के बिगड़े पर्यावरण को बचाने, प्रकृति की रक्षा के लिए चिपको आंदोलन को एक इको – फेमिनिस्ट आंदोलन का रुप दिया। यह कटु सत्य है। चिपको आंदोलन का नेतृत्व महिलाओं ने ही किया था, यह किसी से छुपा नहीं है। गौरतलब है कि उत्तराखंड के चमोली जिले में मजदूरों को करीब 2,500 पेड़ों को काटने के लिए भेजा गया था। पेड़ों को कटने से बचाने के उद्देश्य से रैणी गांव की महिलाएं गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों से चिपक गईं थीं। उनका कहना था कि पेड़ों को काटने से पहले उन्हें काटा जाए और मजदूरों और कर्मचारियों को पेड़ों को नहीं काटने और चले जाने की सलाह दी। परंतु कर्मचारी नहीं माने। गौरा देवी ने कहा ” जंगल हमारा मायका है और पेड़ ऋषि हैं। यदि जंगल कटेगा तो हमारे खेत, मकान के साथ मैदान भी नहीं रहेंगे। जंगल बचेगा तो हम बचेंगे। जंगल हमारा रोज़गार है। ” इस प्रकार इस आंदोलन में महिलाओं को काफी संघर्ष करना पड़ा। फलतः वन कर्मचारियों और मजदूरों को वापस लौटना पड़ा। यह संदेश भारत में ही नही बल्कि पूरे विश्व में गया। यह कहना गलत नही होगा कि कि विश्व में पर्यावरण के प्रति जागरुकता की शुरुआत चिपको आंदोलन के बाद से ही शुरु हुयी। 1983 में चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर दक्षिण ( कर्नाटक ) में भी महिलाओं ने ” अप्पिको आंदोलन “का सूत्रपात किया। यह आंदोलन लगातार 38 दिनों तक चला और सरकार को मजबूर होकर अपना आदेश वापस लेना पड़ा।

उत्तराखंड में रक्षासूत्र आंदोलन का भी विशेष महत्वपूर्ण है। इसमें महिलाओं ने ” रक्षासूत्र ” आंदोलन की शुरुआत की जिसमें उन्होंने पेड़ों पर रक्षा धागा बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। इस आंदोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों से भाइयों के जैसा रिश्ता बना। इस आंदोलन के कारण वन विभाग को पेड़ काटने की करवाई को रोकना पड़ा।

हालांकि चिपको आंदोलन के सौ साल से भी अधिक पहले इसी प्रकार का आंदोलन 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गांव में हुआ था जो पर्यावरण चेतना का एक बहुत बड़ा उदाहरण है। बताया जाता है कि सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा ने अपने महल के निर्माण के लिए लकड़ी लेने के लिए सिपाहियों को कुल्हाड़ी के साथ भेजा था। गांव की एक महिला अमृता देवी ने इसका विरोध किया और उन्हों अपनी बेटियों के साथ अपने प्राणों की आहुति तक दे दी। गांव में खबर फैलते ही 363 लोगों ने भी वृक्ष संरक्षण हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी।

हमारे ग्रह को नष्ट करने वाली बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं के सामने महिलाएं विशेष रुप से उनके प्रति संवेदनशील हैं। उन्होंने हमेशा नाजुक पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित करने, प्राकृतिक आपदाओं से बचने और प्राकृतिक संसाधनों को स्थाई रुप से व्यवस्थित रखने में एक महती और आवश्यक भूमिका निभाई है।निष्कर्ष के रुप में कहा जा सकता है कि पर्यावरण संरक्षण में भारतीय महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय है। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पर्यावरण को बढ़ावा देने के लिए योजना और प्रशिक्षण में महिलाओं को शामिल किए बिना प्रकृति संरक्षण की आशा ही बेमानी है।

{प्रशान्त सिन्हा, पर्यावरणविद एवं लेखक}

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