192 देशों द्वारा मनाए जाने वाला विश्व पृथ्वी दिवस ( World Earth Day ) मनाने की घोषणा वर्ष 1969 में की गई थी। इसके मनाने का उद्देश्य पृथ्वी के महत्व और वैश्विक तापमान ( Global Warming ) के प्रति जागरुक किया जा सके। 1970 से हर साल 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है। इस बार पृथ्वी दिवस का विषय ( Theme) ” हमारी धरती, हमारा स्वास्थ्य ” ( Our Earth, Our Health )
आज हमारे चारों ओर से वातावरण में जो क्रिया कलाप हो रहे हैं उनसे वातावरण का विनाश होता जा रहा है। शहरीकरण और औद्दोगीकरण के कारण ग्रामीण शहरी सभ्यता की ओर आकर्षित हो रहे हैं। शहरों में वाहनों की संख्या बेतहाशा बढ़ रहे हैं। वाहनों से निकलने वाले धुएं से वातावरण खराब हो रहा है और हमारे स्वास्थ पर इसका कुप्रभाव पड़ रहा है। पेड़ों और जंगलों को काटे जा रहे हैं जिससे धरती पर तापमान बढ़ रहा है। हमे समझना चाहिए कि हमारा प्राकृतिक प्रवेश के साथ बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसका हमारे जीवन में क्या महत्व है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि हमारा शरीर जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि व आकाश आदि पांच तत्वों से बनता है और अंत में इसी में विलीन हो जाता है।
मनुष्य का स्वास्थ्य उसकी सबसे बड़ी पूंजी है क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ विचारों का वास होता है। स्वस्थ शरीर में ही खुशहाल मन होता है। स्वस्थ मन से ही देश और समाज के विकास के बारे में विचार कर सकते हैं।
पूरी पृथ्वी मे वायु व्याप्त है। यह पर्यावरण का ऐसा अंग है जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्वच्छ वायु में सांस लेकर ही हम स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हैं। वायु प्रदूषण के कारण घातक बीमारियां होती है।
यदि पृथ्वी दो तिहाई हिस्सा जल से व्याप्त है तो हमारे शरीर का भी एक बड़ा भाग जल युक्त होता है। पृथ्वी पर पानी का बहुत महत्व है। पानी के कारण ही पृथ्वी का विकास हुआ है। प्रदुषित पानी शरीर में पहुंचता है जिससे घातक बीमारियों की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
दुख की बात है कि हम मनुष्यों की बेलगाम गतिविधियों का प्रभाव धरती की अन्य सभी प्रजातियों पर पड़ा है। वर्तमान में विभिन्न प्रजातियों के विलुप्तीकरण की गति सामान्य से दस हजार गुणा अधिक है।
इन दिनों कुछ जगहों पर आकाश से आग सी बस रही है। जब सूर्य की तापमान नही बढ़ा तो फिर यह स्थिति क्यों ? आज ग्लेशियर डरावनी गति से पिघल रहे हैं। इससे समुद्रों का जल स्तर तेजी से बढ़ रहा है।
समुद्र के निकट रहने वालों के लिए विस्थापन का खतरा बढ़ रहा है। समुद्र में जा रहे प्लास्टिक के कचरे और एसिड की बढ़ती मात्रा से 700 से अधिक प्रजातियां प्रभावित हो रही है। गत 20 वर्षो में 12000 से अधिक मौसमी आपदाएं घटित हुईं हैं। भारत में जहां सुखा पड़ता था , वहां अब बाढ़ आने लगी है। गर्मी की मौसम की अवधि में बढ़ोतरी हो रही है।
एक लम्बी प्रक्रिया के बाद इस सुन्दर और नीली धरती का विकास हुआ है। इसे बचाने की जिम्मेदारी हमारी है। स्वतंत्र भारत ने जब अपना संविधान लागू किया उस समय पर्यावरण दूषित होने से रोकने के विषय में कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं रखा गया था किंतु अपरोक्ष रूप से सविधान की धारा 47 के अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बन्धित दायित्व सरकार को अवश्य दिए गए थे और इसी को निहित पोषाहार के स्तर में वृद्धि तथा जनसाधारण के रहन सहन को भी ऊंचा करने का दायित्व भी सरकार को सौंपा गया था। स्वाभाविक है कि सार्वजनिक स्वास्थ सुधार में देश में प्रदूषण रहित शुद्ध पर्यावरण बनाए रखने की जिम्मेदारी भी सरकार को ही है। सन 1976 में संविधान में संशोधन कर धारा 48 A को उसमे जोड़ा गया। ताकि सरकार पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए उसकी और उन्नति करे एवं देश में वनों तथा वन्य जंतुओं की सुरक्षा करने की भी चेष्टा करे इसी संशोधन के अंतर्गत भारतीय नागरिकों में भी पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित रखते हुए जंगल, झील, झरना, तालाब, और नदी आदि तथा वन्य जीव जंतुओं की सुरक्षा का पुनीत कार्य करने में दोहरे प्रावधानों की व्याख्या की गई है। एक ओर सरकार को पर्यावरण सुरक्षा के लिए अधिकार और निर्देश दिए गए हैं तो दुसरी ओर जनसाधारण को आह्वान भी किया गया है कि वे भी प्राकृतिक पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित रखने में भरपूर शक्ति से सहयोग दें। संवैधानिक प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य प्रकृति और पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखना है। यदि सरकार संविधान के अनुरूप और नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे तो पर्यावरण को शुद्ध और सुचारू रखने में कोई व्यावधान नही आ सकता। सरकार और नागरिकों को हृदय से महसूस करना चाहिए कि धरती और पर्यावरण संबंधी कानूनों का पालन करना उनका प्राथमिक कर्त्तव्य है।
प्रशांत सिन्हा, पर्यावरणविद्द
ये लेखक के निजी विचार हैं…