पुरानी कहावत है- “परिवर्तन संसार का नियम है।” हमारी सोच भी इसका पालन करती है और शायद ज़रूरी भी है।सवाल ये है कि सोच में बदलाव परिस्थिति की मज़बूरी है या हमारा शौक ? आज मेरी नज़र से इस मुद्दे पर विचार करते हैं।
संचार के माध्यम में निरंतर बदलाव होते रहे हैं। पहले लिखित संपर्क साधन अर्थात पत्र-व्यवहार चलन में था। फिर मौखिक साधन अर्थात टेलीफोनिक बातचीत चलन में आया। इसे अधिक विकसित माध्यम माना गया। हमारी सोच के अनुसार समय के बचत के आधार पर इसे अधिक महत्व दिया गया। कुछ समय पश्चात डिजिटल तौर पर लिखित संपर्क (चैटिंग) का प्रयोग होने लगा। इसका प्रयोग करने वाले लोग अधिक विकसित माने जाने लगे, जबकि इसमें मौखिक माध्यम से तुलनात्मक रुप से व्यर्थ में ज्यादा वक्त लगता है। अतः यहाँ चैटिंग को विकसित माध्यम मानने का आधार समय की बचत तो माना नहीं जा सकता। लिखना या बोलना, दोनों में से किसी के तुलनात्मक महत्व का निर्धारण भी नहीं हो सकता। बस,जो भी नए प्रयोग होते रहें, हमारी सोच उसे अधिक महत्व देती रही। आजकल वीडियो कॉलिंग शीर्ष पर पदस्थ है। इससे स्पष्ट है कि हमारी सोच एक ही मसले पर बिना किसी निश्चित आधार के भिन्न हो सकती है। समय के साथ बदलती सोच एक मानवी शौक प्रतीत होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में आमतौर पर वृक्षों और हरियाली की खूबसूरती का वर्णन नहीं किया जाता। वहाँ तो हरियाली के बीच प्राकृतिक स्पर्शानुभूति के साथ ही जीवन व्यतीत होता है। सड़कों के किनारों पर पेड़ और दूर तक फैली हरियाली, परंतु हम वहां हरियाली देखने को लालायित नहीं रहते। शहर में कहीं एक छोटे से फूल के पौधे को देखते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है और होंठ उसकी खूबसूरती के गीत गाने लग जाते हैं। कारण है शहरों में हरियाली की कमी। परिस्थिति और स्थान के अनुसार हमारा नज़रिया बदला और बदलना ही है। यह तो हमारी मज़बूरी है। यहाँ तक तो बात हुई एक ही मुद्दे पर एक ही व्यक्ति के परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न या बदलते सोच की, कभी मज़बुरी में, तो कभी शौक से।
सामान्यतः आधुनिक वस्तुएं युवा पीढ़ी को आकर्षित करती हैं और बुज़ुर्ग उनका बहिष्कार करते रहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि युवा पूर्ण रूप से गलत हैं या बुज़ुर्ग लोगों को नए प्रयोग करने से नफरत है। उम्र के आधार पर दृष्टिकोण में फर्क है। प्रत्येक चीज में कुछ खामी और कुछ हद तक खासियत होती है। बुज़ुर्ग लोग किसी वस्तु से होने वाले नुकसान के आधार पर उसे गलत ठहराते हैं और जोशीले युवा उन खामियों को दरकिनार कर सिर्फ फायदों पर ध्यान देते हैं। यहाँ दोनों सोच हम मनुष्यों की ही है। परंतु,भिन्नता का कारण ना तो मज़बूरी है ,ना ही शौक। यह तो उम्र और तज़ुर्बे का नतीजा है। बुज़ुर्ग भी कभी युवा थे और युवक भी कभी बुज़ुर्ग होंगे। निश्चित ही उम्र के साथ युवाओं की सोच में भी बदलाव आएगा।
अब निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि हमारी बदलती सोच का आधार क्या है -शौक, स्थान, उम्र या कुछ और? इतना ही कहा जा सकता है कि विभिन्न रूप में बदलते परिस्थिति के साथ हमारी सोच भी बदलती है। बदलते रहना हमारे सोच की फितरत है। यूं तो हर समय रंग बदलने वाले व्यक्ति को बुरा कहा जाता है। पर, भला हो हमारी सोच का जो परिस्थिति के साथ बदलने की आदि है।
मैं एक युवा हूं, युवाओं को परिवर्तन पसंद होता है। पर, यौवन से लिप्त दृष्टिकोण से किनारा करते हुए भी यही कहा जा सकता है-एक शिथिल सोच लेकर हम जीवन के सभी परिस्थितियों में गुजारा नहीं कर सकते। दुनिया के समान्तर चलने के लिए बदलती सोच ज़रूरी है।
सन्नी कुमार सिन्हा
युवा लेखक
ये लेखक के अपने विचार है