जिसके सर से माँ का साया हट जाता है,
उसका जीवन परिवर्त्तन की प्रतिछाया बन जाता है।
माँ की पुण्य-तिथि पर फोटो को साफ कर,
माल्यार्पण करके, धूप-अगरवत्ती दिखाते समय लगा
माँ हमेशा की तरह आज भी नसीहत दे रही है
मेरे फोटो को साफ करने के बजाय
साफ करो अपने मन का मैल।
अगरबत्ती की खुश्बू वहाँ फैलाओ जहाँ जरूरत है।
मेरे प्रयाण के पश्चात अनुशासन में कमी क्यों?
तुमलोग अब सूर्योदय से पहले नही जगते हो,क्यों?
रात में घर लौटने में वक़्त की पाबन्दी नही रखतेहो,क्यों?
बहू का बिना नहाये रसोई में प्रवेश क्यों?
जूता पहन रसोई में जाना वर्जित है,भूल गए क्यों?
एकादशी को घर में मांस-मछली क्यों?
गुरु-पूर्णिमा को मेरे गुरु को दक्षिणा नही भेजी,क्यों?
तीज में बहू को नई साड़ी नही दी ,क्यों?
करवा-चौथ में बेटी के ससुराल चौथ नही भेजा,क्यों?
उनके ताबरतोर प्रशनों से मैं सकते में आ गया।
डरते-डरते मैं उनका चश्मा साफ करने लगा
उनके बेजान चश्में से जानदार आवाज़ आने लगी
अपना चश्मा उतार और मेरा चश्मा पहन
फिर देख अपने बेटा का आक्रोश और देख
अपनी बेटी की आँखों का दर्द व पीड़ा।
केवल अपनी मनवाता है?उनकी भी सुन।
मेरे बाद मेरे पोते-पोतियां खुश नही,क्यों?
तबतक माँ का चश्मा साफ हो गया था
और मुझे सब साफ-साफ दिखलायी पड़ने लगा
माँ मुझे माफ कर दो,मैं बहक गया था।
जब भी मुझे समझ में नही आता है
मैं माँ का चश्मा पहन लेता हूँ।
यह लेखक के निजी विचार है
प्रो (डॉ) देवेन्द्र कुमार सिंह
पूर्व प्राचार्य
राजेंद्र कॉलेज, छपरा
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