संस्मरण: जब राजेंद्र कॉलेज पहली और अंतिम बार आये थे कुलदेवता राजेंद्र बाबू

संस्मरण: जब राजेंद्र कॉलेज पहली और अंतिम बार आये थे कुलदेवता राजेंद्र बाबू

(प्रो कुमार वीरेश्वर सिन्हा)

मुझे याद आता है आज का वह दिन जब इस युग के अजातशत्रु स्व० राजेन्द्र बाबू अपनी इहलीला समाप्त होने के कुछ ही दिनों पहले, पहली बार राजेन्द्र कालेज छपरा में पधारे थे और उसी अपराह्न फूटबाल ग्राउंड (वर्तमान राजेन्द्र स्टेडियम) में अपना अंतिम भाषण देना चाहा था. अपने छपरा जिले के लोगों को और वह भी अपनी बोली, भोजपुरी में.

वे अपने देश पर चीनी आक्रमण के दिन थे और अपनी बात उन्होंने उसी से शुरू भी की थी, पर अवश्य ही अपने लोगों से बहुत कुछ कहना चाहते होंगे राजेन्द्र बाबू. पर आजमे (दमा) ने उसी पल उन्हें रोक दिया और फिर कुछ ही दिनों बाद अजल ने उन्हें ही छीन लिया.

मैं उस साल राजेन्द्र कालेज का विद्यार्थी था और हम सभी ने कालेज से हवाई अड्डे तक कतारबद्ध यात्रा कर अपने कुलदेवता की अगवानी की थी. राजेन्द्र बाबू को उस दिन मैंने पहली और अंतिम बार देखा था. उनकी अस्वस्थता के कारण NCC के तत्कालीन कैडेटों ने उन्हें पूरा
कैंपस आराम कुर्सी पर बैठे 
घुमाकर दिखाया था. कॉलेज के मैदान में एक बड़ी सभा हुई थी जिसमे चीन की लड़ाई के सहयोग में सभी शिक्षकों और छात्रों ने दिल खोलकर दान दिए थे. और मैंने राजेंद्र बाबू के आखों की अद्भुत चमक और स्मित मुस्कान देखी थी. सचमुच पूजनीय थे हमारे कुलदेवता. 

मुझे याद आता है आज के दिन सारण का वह पहला सरस्वती मंदिर, छपरा जिला स्कूल जहां देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने अपनी माध्यमिक शिक्षा ग्रहण की थी. मेरे पितामह और मातामह राजेन्द्र बाबू के अग्रज महेन्द्र बाबू के सहपाठी थे. आगे चल कर मेरे पिता और मैं भी वहीँ के छात्र हुए और मुझे इस स्कूल के शताब्दी वर्ष 1954 का विद्यार्थी होने का सौभाग्य मिला. यह स्कूल जिसने अविभाजित बंगाल के कलकत्ता यूनिवर्सिटी में राजेन्द्र बाबू को प्रथम स्थान दिलाने का कीर्तिमान स्थापित किया था आज अपनी बदहाली पर जार जार रो रहा है और यह सरकारी स्कूल सरकारी अतिक्रमण की मार झेलने को विवश बन बिहार में माध्यमिक शिक्षा की बदहाली का इस्तहार बन बैठा है.

अब तक के सबसे बड़े कीर्तिमान (पहले तो होम एकजामिनेशन में एक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के साथ डबल प्रोमोशन पाना, फिर अंत में पूरे अविभाजित बंगाल में प्रथम स्थान पाना) के प्रतीक राजेन्द्र बाबू की प्रतिमा इतने बड़े प्रांगण के एक वीरान पड़े कोने में दुबकी पड़ी है.

Yes, he stands cornered there. और इसे सम्मान का इस्तहार कहा जाय या तिरस्कार का साथ साथ मुझे यह भी याद आ गया आज के दिन. मुझे याद आ रहा है राजेन्द्र बाबू के नाम पर स्थापित पहला शिक्षण संस्थान राजेन्द्र कालेज छपरा जो शुरू से ही उत्तर बिहार ही नहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रमुख हुआ करता था, जो आज अपने ही प्रांगण में उपजे जंगल झाड़ की सफाई या तो मीडिया वालों की दखल के बाद करता है या फिर आज जैसे किसी दिन या अपने माननीय के आने पर ही करता है. अब तो वहां राजेन्द्र जयंती का वेनू तक बदल दिया गया है. राजेन्द्र वंदना का सुर बदल गया है और यह प्रीमियर कालेज आज के बिहार की उच्च शिक्षा की वस्तुस्थिति का एक और इस्तहार.

मुझे याद आ रहा है आचार्य शिवपूजन सहाय की पहल से बना दौलतगंज का राजेन्द्र पुस्तकालय जो अब नहीं रहा, बस एक नेमपलेट है, अपने इतिहास पर रोने को. बिहार के वर्तमान का एक और इस्तहार.

उन्हीं के नाम पर स्थापित कुछ समाप्त हो गया है और उन्ही की जयंती मना रहे हैं लोग. मुझे लगता है कहीं राजेन्द्र कॉलेज का भी यही हाल न हो जाय एक दिन.

कुछ लोग याद आते हैं और कुछ याद किये जाते हैं. याद आना स्वतः होता है और याद किया जाना आज की राजनीति है जो निहितार्थ होती है. राजेन्द्र बाबू स्वतः याद आने वालों में हैं, पर उनको याद किये जाने की आज की राजनीति में न तो इधर फायदा, और न उधर फायदा. राजेन्द्र बाबू देश के उन इने गिने नेताओं में थे जिनके बारे में कहा जा सकता है कि साधु की जाति ना पूछो कोई. पर यह कौन सोचता है आज जब भगवान के अवतारों का भी जाति निर्धारण किया जाने लगा है.

अस्तु, मैंने न तो भगवान को देखा है न किसी संत को, पर मुझे फक्र है कि मैंने राजेन्द्र को देखा है और यही आज के दिन का मेरा शब्द सुमन है उस महामना को..


(लेखक राजेंद्र कॉलेज के पूर्व छात्र व अंग्रेजी विभाग के सेवानिवृत्त प्राध्यापक है.)

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