डिजिटल युग ने भले ही बाजार को एक नया आयाम दिया हो, लोग चांद और मंगल ग्रह पर जमीन खरीदने की बातें कर रहे हों, लेकिन प्राचीन काल से गांवों में लगने वाली साप्ताहिक हाट का महत्व जरा भी कम नहीं हुआ है। ग्रामीण हाट बाजार प्राचीन परंपराओं से जुड़े व्यवसाय के साथ आपसी संबंधों की बुनियाद को आज भी बरकरार रखे हुए है।
गांवों में तो साप्ताहिक हाट का महत्व है ही, यह परंपरागत हाट शहरों में भी आज भी अपनी पहचान कायम रखी हुई है। सप्ताह के किसी नीयत दिन पर किसी खास स्थान पर लगने वाली हाट में आज भी परंपरागत लोहे के सामान से लेकर मवेशी और पारंपरिक खाद्य सामग्री, जूते-चप्पल कपड़ा, श्रृंगार प्रसाधन हर कुछ उपलब्ध है।
आम तौर पर हाट का नामकरण दिन या हाट लगने वाले गांव के नाम पर होता है, जैसे बुधवार को लगने वाली हाट को बुध बाजार कहा जाता है,।वहीं इसकी पहचान गांव से भी होती है तोरपा बाजार आदि। सही मायने में कहा जाए, तो साप्ताहिक हाट ही ग्रामीण व्यवस्था की रीढ़ है। दूर-दराज के लोग अपनी रोजमर्रा की वस्तुओं की खरीद-बिक्री वहां करते हैं। जानकार बताते हैं कि एक बड़ी साप्ताहिक हाट में एक करोड़ रुपये से अधिक का करोबार होता है। मवेशियों की खरीद-बिक्री का एकमात्र स्थान हाट ही है। गाय, बैल, बकरी, मुर्गी, बत्तख सब कुछ हाट में मिल जाते हैं।
सगे-संबंधियों का मिलन स्थल
साप्ताहिक हाट को सगे-संबंधियों और परिचितों का मिलन स्थल के रूप में भी जाना जाता है। हाट के दिन किसी व्यक्ति का रिश्तेदार से मुलाकात हाट में होना तय है। हाट में आसपास के लगभग सभी गांवों के हाट जरूर जाते हैं। बाजार के दिन सुबह से ही आसपास के क्षेत्रों में यहल-पहल शुरू हो जाती है। अब तो सुबह से ही साप्ताहिक हाट शुरू जाती है, पर लगभग 10-15 वर्ष पूर्व तक हाट का समय दोपहर बारह बजे के बाद ही निर्धारित था। अड़की प्रखंड के हेमरोम जैसे कई गांव में तो बाजार सूर्यास्त के बाद शुरू होता था और रात भर चलता था, लेकिन उग्रवाद के बढ़ने के कारण अब कहीं भी रात को हाट नहीं लगती। पहले डाकिया भी हाट में ही चिट्ठियां बांटता था। गांव के किसी एक व्यक्ति को सारे गांव की चिट्ठी सौंप दी जाती थी। कई लोग तो सिर्फ चिट्ठी लेने के लिए हाट में पहुंचत थे, लेकिन अब यह प्रथा लगभग खत्म हो गयी है।
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