महिला दिवस विशेष: आखिर क्यों सामने नही आ पाती मध्यमवर्गीय महिलाओं की उपलब्धियां!

महिला दिवस विशेष: आखिर क्यों सामने नही आ पाती मध्यमवर्गीय महिलाओं की उपलब्धियां!

(प्रशांत सिन्हा)
हर वर्ष विश्व के लगभग कई देशों में 8 मार्च को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देना है. इस वर्ष के लिए अंतराष्ट्रीय महिला दिवस का थीम “women in leadership : Achieving an equal future in Covid 19 world. ( महिला नेतृत्व कोविड 19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना ) रखी गई है. यह थीम महामारी के दौरान स्वास्थ देखभाल, श्रमिकों, स्वास्थ अधिकारी आदि के रूप में दुनिया भर में महिलाओं के योगदान को दर्शाता है.

“अंतराष्ट्रीय महिला दिवस” की शुरूआत वर्ष 1908 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में हुए एक महिला मजदूर आंदोलन से हुई थी. हजारों की संख्या में महिलाएं अपने अधिकारों की मांग के लिए सड़कों पर उतरीं थी.

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस को औपचारिक मान्यता वर्ष 1975 में उस वक्त मिली, जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने उसे मनाना शुरू किया.

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस को पहली बार 1996 में एक थीम के तहत मनाया गया था. इस साल संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसकी थीम तय की थी “अतीत का जश्न, भविष्य की योजना “.

आज अंतराष्ट्रीय महिला दिवस एक ऐसा दिन बन गया है जिसमे हम समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण और तरक्की का जश्न मनाते है.
बहुत से देशों में अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर राष्ट्रीय अवकाश होता है जिसमें रूस भी शामिल है. चीन में बहुत महिलाओं को 8 मार्च को आधे दिन की छुट्टी दी जाती है. इटली में इस दिन को “ला फेस्टा डेला डोना” के नाम से मनाया जाता है.

भारत में भी अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. जश्न के साथ महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है. लेकिन भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने लिए बहुत काम करने की जरुरत है. भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे पहले समाज में उनके अधिकारों और मूल्यों को मारने वाले उन सभी गलत सोच को खत्म करना होगा. जैसे दहेज प्रथा, अशिक्षा, यौन हिंसा, असमानता, भ्रूण हत्या, महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा, बलात्कार इत्यादि.

वैसे महिला सशक्तिकरण के बारे में जानना ज़रूरी है. सशक्तीकरण से तात्पर्य किसी व्यक्ति की उस क्षमता से है जिससे उसमें ये योग्यता आ जाती है जिसमे वह अपने जीवन से जुड़े सभी निर्णय स्वयं ले सके.

इस दिन महिलाओं की संघर्ष और और छोटी बड़ी कामयाबी का जिक्र भी करना ज़रूरी है. अमूमन ऐसा होता है कि महिला सशक्तीकरण का जिक्र छिड़ते ही हमारे जेहन में उन सफल महिलाओं की तस्वीरें उभरने लगती है जो या तो बहुराष्ट्रीय कंपनी की सीईओ या कोई बड़ी सामाजिक कार्यकर्ता या कोई बडा सेलिब्रिटी.

हम क्यों मध्यमवर्गीय महिलाओं की सशक्तीकरण से जोड़कर देखने की आदि नहीं है. क्यों ऐसी महिलाओं के संघर्ष चकाचौंध भरी महिलाओं के नीचे दबकर रह जाते हैं.

आज ऐसी महिला का जिक्र करना चाहता हूँ जिन्होंने महिला सशक्तीकरण की परिभाषा गढ़ी. पटना की श्यामा सिन्हा जो एक राजकीय उच्च कन्या विद्यालय में अध्यापिका, प्राध्यापिका रहीं और शिक्षा के क्षैत्र में अपने 36 वर्ष दिए. वह भी वैसे समय में जब शहर में निजी एवम मिशनरी स्कूल गिने चुने होते थे. अमीर और गरीब सभी छात्र छात्राएं सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ा करते थे. उनके द्वारा न जाने कितनी छात्राएं आज डाक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका या सरकारी ऑफिसर बनी होंगी. इस कारण वह इतनी लोकप्रिय थीं कि विद्यालय मे पढ़ने वाली छात्राएं जिस मुहल्ले में रहती थीं वहां सभी उन्हें बेशुमार प्यार और इज्जत देते थे. उनकी लोकप्रियता को देखते हुए वहां के सासंद और विधायक प्रत्याशी उनसे उन मुहल्लों में प्रचार करने के लिए आग्रह किया करते थे. किन्तु सरकारी नौकरी की वजह से मना कर दिया करती थीं. इसमें भारत सरकार में रहे पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा जी की पत्नी भी शामिल थीं.

वे अध्यापन के अलावा सामाजिक कार्य भी किया करती थीं. उन्होंने बहुत से गरीब लड़कियों की शादी कराई. लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर आते थे और समाधान लेकर जाते थे

एक घटना का जिक्र करना भी ज़रूरी है. एक व्यक्ति, जो रेस्टोरेंट चलाता था लेकिन लम्बी बीमारी की वजह से उसे रेस्टारेंट बंद करना पड़ा था. वह व्यक्ति अपनी पत्नी और छः छोटे छोटे बच्चों के साथ आया. श्यामा जी के घर के सामने की जमीन पर ढाबा खोलने की अनुमति मांगी. वहीं पास में असामाजिक तत्वों द्वारा खोली गईं चाय की दुकान वाला नही चाहता था कि वहां ढाबा खुले. उसने इसका विरोध किया. श्यामा जी ने प्रशासन की मदद से उस व्यक्ति की ढाबा खुलवा दी. जिसका एहसान उसकी संतानें आज भी मानती है. आज उसके सारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं. इस प्रकार श्यामा जी ने उनकी जिंदगी संवार दी.

उन्होंने शिक्षण, सामाजिक कार्यों के साथ साथ अपनी पारिवारिक भूमिका भी निभाई. पति जिनकी सुनने की क्षमता समय के साथ कम हो गईं थी उनकी आवाज़ बनी. अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया. इसके साथ साथ अपने ससुराल और मायके का भी पुरा ख्याल रखा.

श्यामा जी को शिक्षा से बहुत लगाव था. उन्होनें उस समय बीए बीएड किया था जिस समय बहुत कम महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त करती थीं. लोगों को भी शिक्षा के लिए प्रोत्शाहित किया करती थीं. इन सबके साथ धार्मिक भी थीं. उन्होनें लगभग 25 से भी ज्यादा वर्षों तक लगातार तन मन धन से छठ व्रत किया

“अंतराष्ट्रीय महिला दिवस” के अवसर पर क्यों मध्य वर्गीय महिलाओं की उपलब्धियां गरीब और मजदूरी करने वाली या चकाचौंध भरी या उच्च वर्गीय महिलाओं की उपलब्धियों के नीचे दब कर रह जाते हैं. सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक और धार्मिक दायित्व निभाना सभी के लिए आसान नहीं होता.

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