-प्रभात झा
आजादी के पहले सर्वमान्य आंदोलनकारी नेता श्रद्धेय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (बापू) थे। कांग्रेस को उन्होंने राजनीतिक दल नहीं बल्कि आंदोलन माना था। वे अक्सर अपने भाषणों में कहा करते थे ‘कांग्रेस आजादी के लिए आंदोलन है’। आजाद भारत में किसी भी व्यक्ति से अगर पूछेंगे कि सर्वमान्य नेता कौन, तो बेहिचक दस में से नौ लोग कहेंगे-अटल बिहारी वाजपेयी। सर्वमान्य होना आसान काम नहीं है। सर्वमान्य की मान्यता देश के जन-जन से मिलती है। अब तक की भारतीय राजनीति में जीवन का नब्बे फीसदी हिस्सा विपक्ष में रहने के बाद सर्वमान्य होना आठवें चमत्कार से कम नहीं है। अटल जी हमारी पार्टी के नेता रहे, इसलिए नहीं लिख रहा। वे नेता सच में जनसंघ और भाजपा के रहे पर किसी भी दल ने, यहां तक कि सीपीएम के ज्योति बासु, हरेन मुखर्जी या सोमनाथ चटर्जी जो हमारी विचारधारा के घोर विरोधी रहे, वे भी अटल जी को स्नेहित निगाहों से देखते थे। उनसे कोई नफरत नहीं करता था।
किस राजनीतिक नेता में यह दम है, प्रधानमंत्री रहते हुए चंद्रशेखर ने कहा था कि ‘अटल जी मेरे गुरु हैं’, आज कोई कह सकता है। अटल जी को अपनी पार्टी, अपने समकक्ष नेताओं और कार्यकर्त्ताओं पर अटूट विश्वास था। यही कारण था कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल के दौरान सभी दलों के प्रमुख नेताओं को देश के विभिन्न जेलों में डाल दिया था तब जेलों में रहे नेताओं ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के कहने पर आजादी की दूसरी लड़ाई के तहत लोकतंत्र को बचाने के लिए जनता पार्टी का गठन किया, अटल जी और आडवाणी जी ने लोकतंत्र बचाने के लिए छद्म नाटक नहीं किया। अटल जी ने कहा-‘देश पहले दल बाद में’ और जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन कर दिया। अपना चुनाव चिन्ह दिया तक बुझा दिया।
नेतृत्व के प्रति विश्वास क्या होता है यह इसी बात से पता लगता है कि तत्कालीन जनसंघ के किसी नेता ने या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अटल जी, आडवाणी जी से यह नहीं पूछा कि ‘आपने जनसंघ का क्यों विलय किया’। नेतृत्व में सामूहिकता के विश्वास का सेतु सदैव मजबूत रहना चाहिए और अटल जी ने कभी भी दल के भीतर सामूहिकता के सद्भाव और विश्वास को टूटने नहीं दिया। वहीं दूसरी ओर जब जनता पार्टी में दो साल बाद ही दोहरी सदस्य्ता के नाम पर जनता पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर जी, मोहन धारिया और मधु लिमये ने जनसंघ के लोगों को कहना शुरू किया कि ‘आपको यह स्पष्ट करना होगा कि आप जनता पार्टी के सदस्य हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नहीं’। अटल जी उस समय चूके नहीं। उन्होंने चंद्रशेखर जी को स्पष्ट कहा ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कोई सदस्य्ता नहीं होती। संघ हमारी संस्कार की मातृ संस्था है। हमलोगों ने बचपन बिताया। इससे राजनीति का कोई संबंध नहीं है। पर तत्कालीन जनता पार्टी के अन्य नेता नहीं माने। अटल जी, आडवाणी जी ने अपने सभी समक्ष नेताओं से चर्चा की और फिर अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और सहयोगियों के विश्वास पर जनता पार्टी से अपने को 4 अप्रैल 1980 को अलग कर लिया। अटल जी, आडवाणी जी को यह पूरा विश्वास था कि ‘हमने भले ही जनसंघ का विलय कर दिया और अपना चुनाव चिन्ह बुझा दिया लेकिन देश में शून्य से शिखर पर ले जाने का सामर्थ्य हमारे ही कार्यकर्ताओं में है’।
अटल जी ने अपने समक्ष सहयोगियों के साथ 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली में आयोजित एक बैठक में भाजपा का गठन किया और कमल को चुनाव चिन्ह घोषित किया। विश्व के राजनीतिक इतिहास में दल को मिटाकर एक नए राजनीतिक दल बनाने की यह अनूठी घटना थी। यह ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकले लोगों में ही हो सकता है जिसे अटल जी ने कर दिखाया। सभी सहयोगियों ने मिलकर मुंबई के अधिवेशन में उन्हें पहला राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। अटल जी कोई त्रिकालदर्शी नहीं थे। लेकिन वे भारत की जन-गण-मन की भावना को समझते थे। वे अपनी आंखों के सामने भारतीय राजनीति का कल देख रहे थे। वे दूरदर्शी थे इसलिए अपने पहले भाषण में कहा था-‘अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा’। आज भारत में उनके सपनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सभी सहयोगी नेता साकार कर रहे हैं। जनसंघ के पहले घोषणा पत्र को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, भाई महावीर और बलराज मधोक ने तैयार किया था। उस समय अटल जी पत्रकार के नाते उस घोषणा पत्र निर्माण में भी शामिल थे।
आज अटल जी का जन्मदिन है और वे इस दुनिया से चले भी गए हैं, लेकिन वर्तमान भाजपा का नेतृत्व कर रहे नरेंद्र मोदी जी जनसंघ के घोषणा पत्र के एक-एक घोषणा को जमीन पर साकार कर रहे हैं। अटल जी अक्सर अपने भाषण में कहा करते थे-‘रामजन्मभूमि पर राम मंदिर नहीं बनेगा तो कहां बनेगा’।
वे कहा करते थे कि ‘धारा 370 भारत के लिए अभिशाप है उसे समाप्त होना ही चाहिए’, ‘सामान नागरिक संहिता भारतीय संस्कृति का श्रृंगार है उसे लागू होना ही चाहिए’। अटल जी जानते थे कि जिस दिन सबल नेतृत्व आएगा, ये सभी चीजें पूरी होंगी। वे अक्सर कहा करते थे कि यह सिर्फ हमारी विचारधारा का प्रश्न नहीं है, यह देश की जनधारा का प्रश्न है और आज नहीं कल पूरा होगा ही। आज अटल जी भले ही नहीं हैं, वे जहां भी होंगे दोनों हाथों से भाजपा के वर्तमान नेतृत्व को आशीष दे रहे होंगे।
भारत में अटल जी के सिवा कोई ऐसा दूसरा नेता नहीं हुआ जो विपक्ष में रहकर देश में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ हो। उन्होंने अनीति की राजनीति को अपने राजनीतिक जीवन में स्थान नहीं दिया। उन्होंने सभी से मित्रता की राजनीति की। शत्रुता को कोई स्थान नहीं दिया। यह मेरा सौभाग्य रहा कि वे जिस स्वदेश अखबार के संपादक रहे, मैं भी वर्षों बाद उस स्वदेश अखबार से जुड़ा रहा। अटल जी जैसे व्यक्तित्व पर जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भारत रत्न सुशोभित किया ऐसे व्यक्तित्व पर अभी और काम होना चाहिए। मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर जी ने मुझे बताया कि इंदिरा जी जब प्रधानमंत्री थीं, अटल जी नेता प्रतिपक्ष थे। अक्सर इंदिरा जी उन्हें अटल जी से विचार-विमर्श के लिए भेजा करते थे और अटल जी राष्ट्रहित में जो बात करते थे रामेश्वर ठाकुर जी इंदिरा जी को बताते थे। उन्होंने यहां तक कहा कि इंदिरा जी अटल जी की बात मानती भी थीं। अटल जी ने देश में विपक्ष की सार्थकता को अपनी मेहनत और कर्मों से साकार किया था।
अटल जी ने भारत का अखंड प्रवास कर देश में अपनी वाणी से विचारधारा की ज्योति जगाई थी। वे तब भी निराश नहीं हुए जब चंद्रशेखर, इंद्र कुमार गुजराल और एच डी देवगौड़ा जैसे नेता प्रधानमंत्री बने और वे तब भी अति उत्साहित नहीं हुए जब स्वयं देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने लोकतंत्र में सदैव संतुलन का ध्यान दिया। वे राजनीति में किसी के लिए दर्द नहीं थे, बल्कि राजनीतिक मरहम थे आज भी कोई पूछे कि भारतीय राजनीति में उदारता के अप्रतिम उदाहरण कौन तो देश का सामूहिक स्वर निकलेगा-‘अटल बिहारी वाजपेयी’।
(पूर्व सांसद एवं पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भाजपा)