(प्रशांत सिन्हा)
बिहार की चुनावी नतीजे ने कांग्रेस में आंतरिक संघर्षों का खुलासा किया। बिहार के नतीजों का कांग्रेस से आह्वान आत्मचिंतन करने का है इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।
कांग्रेस पार्टी में आंतरिक कलह रुक रुक कर सामने आ रही है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का बगावती रूप भी देखा जा चुका है। कपिल सिब्बल के बाद अब वरिष्ठ नेता गुलाब नबी आज़ाद भी पार्टी के आलाकमान पर निशाना साध चुके हैं। बिहार चुनाव मे मिली हार के बाद गुलाम नबी ने कहा है कि दल का पूरा ढांचा ध्वस्त हो चुका है, कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क भी टूट चुका है। उन्होंने यह भी कहा है कि कांग्रेस सबसे नीचे स्तर पर खड़ी है। कुछ दिन पहले ही दल के 23 नेताओं द्वारा शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर परिवर्तन को लेकर चर्चा हुई थी।
अब समय आ गया है कि कांग्रेस आत्मचिंतन करे। ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू-गांधी परिवार की खातिर पार्टी स्वयं अपने अस्तित्व को मिटाने पर तुली हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस के विकास मे नेहरु – गांधी परिवार का योगदान अतुलनीय है लेकिन यह अतीत की बात है और अतीत को वर्तमान में ढोना लाभकारी नहीं होता। उन्हे परिवार के बाहर से कुशल व्यक्ति को लाना होगा। पार्टी को समझना चाहिए कि कांग्रेस क्षेत्रीय दल नहीं है। उनकी आज भी अखिल भारतीय स्तर पर उसकी मौजूदगी है। ऐसे मे वह खोई हुई सियासी जमीन हासिल करनी चाहिए। बस इसके लिए उसे कुछ फैसले करने होंगे।
कांग्रेस पार्टी को गांधी-नेहरु परिवार से इत्तर अपनी पहचान बनानी होगी। देश की सबसे पुरानी पार्टी का गौरव कांग्रेस को प्राप्त है। केंद्र और राज्यों में लंबे समय तक कांग्रेस का शासन भी रहा है लेकिन हमेशा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एक ही परिवार से बनते आ रहे हैं। यही वजह है कि कांग्रेस नेतृत्व को लेकर तरह तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। दल में नेताओं का असंतोष बढ़ता जा रहा है।लोग परिवार के अलावा अध्यक्ष की मांग करने लगे हैं। ऐसे में पार्टी की आलाकमान को इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। दल मजबूत हो इसके लिए परिवार और पुत्र मोह का त्याग करना ही होगा। दल को अपने उन नेताओं का सम्मान करना होगा जिन्होंने अपना पूरा जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया।
कांग्रेस को चाहिए कि वह प्रधान मंत्री पर व्यक्तिगत हमले करना छोड़ उन्ही मसलों पर ध्यान केन्द्रित करे जहां प्रधान मंत्री और उनकी पार्टी असहज महसूस करती है या उनमें सरकार का प्रदर्शन अपेक्षाकृत कमजोर है। इससे न केवल कांग्रेस सही निशाना लगा पाने मे सक्षम हो सकेगी बल्कि सरकार को भी सुधार के लिए प्रोत्साहित करने का काम करेगी जो कि लोकतंत्र मे एक रचनात्मक विपक्ष की भुमिका के लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। इससे कांग्रेस की विश्वसनीयता भी बढ़ेगी। कांग्रेस को अपने कार्यकर्ता के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए अपने आप को बदलने की जरूरत है।
भारत जैसे विशाल एवं विविधता भरे लोकतंत्र में विपक्ष में ऐसा दल आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है जो स्वयं सशक्त हो और अपने आचरण एवं व्यवहार से सत्ता पक्ष को हमेशा याद कराता रहे कि किसी भी सूरत में निरंकुश नहीं हो सकता। लोकतंत्र की सफलता के लिए यही आदर्श व्यवस्था मानी भी जाती है। भारत ने जिस ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली अपनाई है वहां तो विपक्ष “शैडो कैबिनेट” जैसी व्यवस्था को अपनाता है जहां विपक्षी नेता सत्ता पक्ष के मंत्रियों के कामकाज पर औपचारिक एवं व्यवस्थित ढंग से निगरानी रखते है। इससे लोकतांत्रिक प्रणाली के सुचारू रूप से संचालन में मदद मिलती है। हालांकि यह सब तभी संभव जब विपक्षी दल स्वयं मजबूत हो, सकारात्मक और स्वस्थ बहस हो और संसदीय भाषा का प्रयोग हो। लोक हित के मुद्दों पर सत्ता पक्ष का साथ देने में किसी प्रकार की राजनैतिक द्वेष आगे नहीं आना चाहिए और सत्ता पक्ष को किसी भी अमान्य और अलोकतांत्रिक कार्य करने से रोकना चाहिए। लेकिन चिंता का विषय तब बन जाता है जब विपक्षी दल ही संगठनात्मक कमजोरी और कमजोर शीर्ष नेतृत्व से गुजर रहा हो। बेहतर तो यह होगा कि कांग्रेस पार्टी जो कि इस समय विपक्ष की भूमिका में है अपने संगठनात्मक ढांचे में बदलाव लाए।
यह लेखक के निजी विचार है।
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