बिहार का नव निर्माण: नई उम्मीद, नया संकल्प

बिहार का नव निर्माण: नई उम्मीद, नया संकल्प

(प्रशांत सिन्हा)
करोना महामारी के कारण बिहार के श्रमिकों को बेहद परेशानी से गुज़रना पड़ा है। जिस तरह श्रमिकों को समस्या हुई है वह शायद ही इतिहास में हुआ होगा। वैसे महामारी और पलायन में रिश्ता है। जब भी महामारी फैली है पलायन हुआ है।

करोना महामारी ने हमें सीख दी है कि जो काम आप किसी छोटी जगह में रह कर कर सकते हैं उसके लिए महानगरों में भीड़ बढ़ाने की क्या ज़रूरत है। जो दिल्ली, मुंबई, पंजाब, गुजरात आदि कभी नरम फुलों की तरह भाती थी मगर अब वह बबूल की काँटों की तरह चुभ रही है। जब तक उनसे काम लेना था ख़ूब लिया गया ।यथाशक्ति शोषित भी किया गया और महासंकट की उस बेला में उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। ये श्रमिक या तो वापस नहीं जाएँगे या अगर उन्हें अपनी जगह पर फिर अवसर नहीं मिलता है कुछ महीने रुक कर जाएँगे। उनके कटु अनुभव उनके पाँव को जकड़ लेगा। वे अपने रोज़ी रोटी का विकल्प अपने गाँव और आस पास के जिलों के शहरों में ढूँढने की कोशिश करेंगे।

बिहार सरकार की भी चाहिए कि उनके लिए वहीं रोज़गार की व्यवस्था करे। ताकि दूसरे राज्य में जा कर अपनी तौहीन नहीं कराना पड़े। कोविंद-19 ने हमें बहुत कुछ सीखाया ही नहीं बल्कि हमारी जीवन शैली को बदल दिया है। यह सदी का सबसे कठोर शिक्षक साबित हुआ है। बिहार सरकार एवं स्वयंसेवी संगठन इस बात को समझे और वहीं पर उद्योग धंधे खोलकर उन्हें बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करे। अगर फिर से रोज़ी रोटी के लिए अन्य प्रदेशों का रूख करना पड़े तो राज्य का साधुवाद छीन जाएगा।

मिसाल के तौर पर तमिलनाडु राज्य है। जब बाल ठाकरे ने तमिलीयन को मुंबई में तंग करना शुरू किया था तो तमिलनाडु सरकार ने अपने राज्य में ही उनके रोज़गार की व्यवस्था की जिससे तमिलनाडु राज्य आज आत्मनिर्भर और सम्पन्न राज्य की सूची में आता है।

बिहार में लौट रहे श्रमिकों की हूनर से बदला जा सकता है बिहार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन। सरकार को संवेदनशील बनना पड़ेगा।बिहार सरकार को इस बीमारी से सबक़ लेकर श्रमिकों के लिए बेहतर रोज़गार एवं व्यवस्था बनाने की पहल करना पड़ेगा।यह समय बिहार सरकार के लिए असाधारण कार्य करने का है। क्या बिहार के नवनिर्माण का मार्ग 89 लाख श्रमिकों के श्रम व कौशल के लगाए बिना सम्भव है ? कहीं यह समय नए बिहार के निर्माण तथा बिहारियों की सम्मान की रक्षा का आमंत्रण तो नहीं दे रहा है ? करोना महामारी और लॉकडाउन ने इतिहास के सामने सच्चाई उजागर कर दिया कि कभी बहारों का क्षेत्र कहे जाने वाला बिहार कितना बेबस और मजबूर है। जहाँ के पचास लाख से भी ज़्यादा लोग पेट पालने के लिए बिहार से दूसरे  में अपमान झेलते हुए अपने श्रम बेचने पर मजबूर हैं। जबकि बिहार में ही विकास किया जा सकता था।

बिहार में बृहत् कृषि क्षेत्र है। गंगा तथा सैकड़ों नदियों के कारण जल संसाधन की कमी नहीं है। दक्ष श्रमिकों की भी कमी नहीं है। सब कुछ के उपलब्धता के बावजूद बिहार में औद्योगिकरण क्यों नहीं हुआ ? रोज़गार का सृजन क्यों नहीं हुआ ? आज़ादी के बाद बिहार दो भागों में बँटा था उत्तरी बिहार एवं दक्षिणी बिहार। चुकि दक्षिणी बिहार खनिज सम्पदा से भरा हुआ था इसलिए सारे उद्योग वहीं लगे जो बाद में झारखण्ड के नाम से अलग राज्य बना।लेकिन उत्तरी बिहार (आज का बिहार ) में पतन का दौर आज़ादी के बाद से ही रहा ।लेकिन सबसे बुरा दौर 1990-2005 का रहा। यह दौर वैश्वीकरण का दौर था। सारे राज्यों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ का प्रसार हो रहा था। राज्यों में उन्हें बुलाने के लिए प्रतिस्पर्धा थी। छोटे, मँझले, बड़े उद्योग लग रहे थे। उन राज्यों में ख़ूब निवेश किए गए। उसी दौर में सॉफ़्टवेयर की क्षेत्र में क्रांति आयी हुई थी। लेकिन इन सबसे अलग लालू-राबरी राज ने बिहार में जंगल राज बनाया हुआ था। चोरी, डकैती, लूट-पाट अपनी चरम सीमा पर थी। जातिवाद के नाम पर अगड़े-पिछड़े जाति कहते हुए लोगों को एक दूसरे से लड़ाया जा रहा था। भला ऐसी परिस्थिति में कैसे औद्योगिकरण या निवेश होता। एक भी उद्योग नहीं लगा। जो फ़ैक्टरी लगी भी थीं बंद हो गए। व्यापारी अपना व्यापार बंद कर दूसरे राज्य चले गए। जूट उद्योग, चीनी उद्योग, पेपर उद्योग, साइकल फ़ैक्टरी आदि बंद होते चले गए। यहाँ तक कि छात्र अपनी पढ़ाई पूरी करने दूसरे राज्य चले गए।

दूसरा पंद्रह साल नीतीश सरकार का रहा जिन्होंने पंद्रह साल में क़ानून का राज तो स्थापित कर दिया लेकिन रोज़गार का अवसर पैदा करने में विफल रहे। अगर इन दोनो ने बिहार में औद्योगिकरण, तरक़्क़ी एवं रोज़गार की सृजन के बारे में सोचा होता तो आज जो स्थिति श्रमिकों की हुई ऐसी स्थिति कभी नहीं होती। करोना एक वरदान के रूप में आया जिसने बिहार के नेताओं की पोल खोल दिया। सभी सरकार केवल बिहार के गौरवशाली इतिहास पर इठलाती रही।

पिछले कुछ वर्षों से राजस्व सम्बंधी समझदारी आधारिक संरचना ( Infrasrtucure ) पर लक्ष्य आधारित ख़र्च और विकास की मिसाल बन कर बिहार ज़रूर उभरा है लेकिन ग़रीबी कम करने और पलायन रोकने के लिए सरकार को औद्योगिकरण और कृषि उत्पादकता में सुधार की ज़रूरत है। कुछ अरसे तक राज्य में उद्योग के नाम पर एकमात्र क्षेत्र निर्माण क्षेत्र ही रहा है। उद्योग धंधों को विकसित करने के लिए राज्य को लम्बा सफ़र तय करना होगा। राज्य में कृषि उपकरणों में और छोटे मशीन निर्माण, पर्यटन, सूचना, प्रौद्योगिकी ( IT ) खाद्य प्रसंस्करण और रेडीमेड वस्त्र निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। तत्काल इस क्षेत्र में निवेश की ज़रूरत है। जूट पूर्वोत्तर बिहार का एक प्रमुख कृषि उत्पाद होता था। जूट उत्पादन से सीमांचल में विकास व स्वरोज़गार के उद्देश्य से पूर्णिया में जूट पार्क लगाया गया था। कुछ दिनों से वह भी श्रम शोषण के कारण ठप्प पड़ा है उसे फिर से विकसित करने की ज़रूरत है। बिहार सरकार जूट एवं चीनी उद्योग को उबारने पर ध्यान दे जो बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन को प्रभावित करता है। तकनीक के दौर में आवश्यक है कि राज्य की आईटी आई विश्वस्तरीय बने। हमारे श्रमिक हूनर के साथ गाँव लौटे हैं। अनेक तरह से शहरी हूनर से लैस ये श्रमिक गाँव, जिले की तस्वीर बदल सकते हैं। ये युवा पीढ़ी दूसरे राज्य से लौट कर जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर सामाजिक तानाबाना भी बनेंगे। घरेलू महिलायें भी दक्ष हो गयी होंगी। स्वरोज़गार के हूनर भी सामने आएँगे। ज़रूरत है कि सरकारी ख़ज़ाने से या बैंक से उन्हें सहायता दी जाए।बिहार सरकार को दूरदर्शितापूर्ण योजना बनाकर अमल करना चाहिए।

इससे गाँव और जिलों कि अर्थ व्यवस्था वापस लौटेगी। चुना, ईंट, सिमेंट, लोहा, वेल्डिंग, लकड़ी आदि तरह तरह के रोज़गार एवं छोटे, बड़े व्यापार फलेंगे फूलेंगे। बिहार की जनता के प्रति केंद्र सरकार का भी दायित्व बनता है। क्योंकि दूसरे राज्य अमीर होते गए और बिहार ग़रीब होते गया। बदलाव का यह समय हस्तकौशल परम्पराओं का पुनरुद्वार कर ख़ाली होने जा रहे हाँथों का कूदतरत और माटी से दोबारा जोड़ने का है ताकि ख़ाली दिमाग़ कुछ सुंदर नया रचे। समय की माँग है कि बिहार में उद्दमशीलता की प्रक्रिया वास्तविक रूप से आसान बनाया जाए। नेता और जनता जातिवाद से ऊपर उठकर बिहार में औद्योगिक क्रांति में अपना योगदान दें।इन्स्पेक्टर राज से पूरी तरह मुक्ति पानी होगी। ज़मीन ख़रीदने और बेचने की प्रक्रिया को आसान बनाने की ज़रूरत है। कलेयर लैंड टाइटल से उद्दमशीलता को बढ़ावा मिलेगा।

रोज़गार सृजन को बढ़ावा देने के लिए निवेश लाने के लिए प्रयास करना होगा। सरकार को बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में निवेश के लिए अपने ख़ज़ाने का मुँह खोलना होगा। केंद्र सरकार द्वारा अच्छी फ़ंडिंग के कारण बिहार सरकार के पास पैसे की कमी नहीं होनी चाहिए। अगर नहीं भी है निवेश करने के लिए अपने ख़ज़ाने का मुँह खोलना होगा। यह इसलिए ज़रूरी है ताकि इस निवेश असर तुरंत महसूस हो और तात्कालिक संकट पर क़ाबू पाया जा सके। अगर सरकार श्रमिकों को अपने गाँव एवं जिले में रोज़गार देने में सफल होती है तो जनता का  आधुनिक बिहाार  का सपना पूरा होगा और श्रमिक अपने दर्द को भूल पाएँगे। बिहार की जनता को आज सोचने की ज़रूरत है कि बिहार से लोग दूसरे राज्य में जाते हैं लेकिन दूसरे राज्य से लोग बिहार नहीं आते। क्यों ? कौन थे और कौन हैं इसके ज़िम्मेवार ? इसके ज़िम्मेवार नेता के साथ जनता भी रही। जनता जातिवाद में बँटी रही और नेता इसका फ़ायदा उठाते रहे। सोशल इंजनीरिंग के नाम पर लड़ाते रहे। अब परिवर्तन की ज़रूरत है। अब शासक से सवाल पूछने का समय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की ज़रूरत है। बिहार की जनता को इस बार उम्मीद है कि बिहार में उद्योग लगेंगे । इसके लिए लेना होगा दृढ़ संकल्प । हम एक नया बिहार ज़रूर बनाएँगे।

लेखक प्रशांत सिन्हा के अन्य Blog को http://prashantpiusha.blogspot.com पर पढ़ें.

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