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आज भी गांवों में कायम है ”हाट” का जादू, दिखती है सामाजिक समरसता भी

समाज में आधुनिकता हावी हो रहा है, शहर से लेकर गांव तक आधुनिक हो रहे हैं। मॉल संस्कृति आ गई है, जहां एक ही दुकान में खाने-पीने से लेकर कपड़ा और सब कुछ मिल रहा है। लेकिन इन सारी कवायद के बावजूद आज भी लगने वाले हाट-बाजार का जो आकर्षण है, वह बड़े-बड़े मॉलों में नहीं दिख सकता है।

मॉल में खरीदने वाले लोग आते हैं और अपने आप में मशगूल रहकर खरीदारी कर जाते हैं लेकिन सामाजिक समरसता क्या होती है यह दिखता है गांव में लगने वाले हाट में। भले ही आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य चांद पर रहने और मंगल ग्रह पर जमीन खरीदने की बात कर रहे हों। शहरों में चकाचौंध वाले बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खुल गए हों।

ऐसे में अति प्राचीन परंपरा साप्ताहिक हाट का अवलोकन निश्चित तौर पर अपने आप में सुखद अनुभूति है। हाट, हटिया या पेठिया आमतौर पर भारत के गांवों में लगने वाले स्थानीय बाजार को कहा जाता है। सब्जी, फल, ताजा मांस, खाद्यान्न या परचून सामग्री आदि हाट में खरीद-बिक्री की जानेवाली प्रमुख सामग्री है। गांव के लोगों की दैनिक जरुरतों को पूरा करने में हाट की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण है। सदियों से भारत के गांवों की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने में हाट की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

स्थानीय कृषि-विपणन के अलावे हाट स्थल महत्वपूर्ण मिलन बिंदु एवं सांस्कृतिक केंद्र भी है। सामान्यतया गांवों में लगनेवाले हाट दो-चार घंटों का होता है, लेकिन उस क्षेत्र में बाजार का विस्तार एवं दूरी भी लगने वाले हाट की अवधि को तय करती है। जनसंख्या घनत्व के आधार पर हाट सप्ताह में दो या तीन दिन के लिए लगता है। कई कस्बों या छोटे शहरों में यह कुछ घंटों के लिए दैनिक भी लगाया जाता है। महानगरों में स्थाई तौर पर बनी सब्जी मंडी हाट का विकसित रूप है।

शहर एवं बाजार स्थाई होता है, जहां शहरी लोग अपनी रोजमर्रा की वस्तुएं खरीदते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कोई स्थाई बाजार नहीं होता, रोजमर्रा की वस्तुओं के लिए ग्रामीणों के लिए शहर आना मुश्किल कार्य होता है। गांव के लोगों की इन्हीं कठिनाइयों को देखते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में सप्ताह में एक या दो दिन बाजार लगाया जाता है, जिसे ‘ग्रामीण हाट’ कहते हैं। ग्रामीण हाटों में गांव के लोग अपनी जरूरत की सारी चीजें खरीद लेते हैं। यह बाजार अकसर दोपहर बाद लगाए जाते हैं और शाम होते-होते उठा लिए जाते हैं।

ग्रामीण हाटों में ग्रामीणों की जरूरत की अधिकांश चीजें बिकती हैं। सभी दुकानें एक क्रम में सजी होती हैं, एक ओर अन्न की दुकानें रहती हैं, तो दूसरी ओर वस्त्रों की। एक ओर साग-सब्जियां बिकती रहती हैं और दूसरी ओर जलेबी, मिष्ठान, पकवान आदि नाश्ते की वस्तुएं। महिलाओं के लिए यहां चूड़ी, सिंदूर एवं सौंदर्य प्रसाधन की अन्य वस्तुएं भी बिकती हैं। कृषि के छोटे-छोटे औजार कुदाल, हल, खुरपी आदि भी उपलब्ध रहते हैं।

बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने बिकते रहते हैं। किसी-किसी ग्रामीण हाट में गाय, भैंस, बकरी आदि छोटे-बड़े पशु भी खरीदे-बेचे जाते हैं। ग्रामीण हाटों में ग्रामीणों के मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के खेल होते रहते हैं। हाट में बच्चे कहीं सपेरों की बीन की आवाज पर झूमते सांपों को देख आनंदित होते हैं, तो कहीं मदारी के बंदर के साथ मस्ती में नाचते नजर आते हैं। ग्रामीण बुजुर्ग भी इन हाटों में घूमते दिखते हैं, वे दूसरे गांवों से आए सगे-संबंधियों से मिलकर बातें करके अपना मन बहलाने जाते हैं। इससे नीरस जीवन सरस हो जाता है।

प्राचीन परंपरा साप्ताहिक हाट का अवलोकन निश्चित तौर पर अपने आप में सुखद अनुभूति है। जरूरत है इसकी प्रासंगिकता को बरकरार रखने के साथ-साथ इसे संजोने की। साइबर क्रांति ने पूरी दुनिया को एक गांव में समेट दिया है। लेकिन सप्ताह में एक दिन लगनेवाले वे हाट आज भी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं। ग्रामीण इन्हीं हाटों से अपनी रोजमर्रा की वस्तुओं की खरीद-बिक्री करते हैं।

आजादी के बाद से सप्ताह में एक दिन ग्रामीण क्षेत्र में हाट लगना शुरू हुआ। हाट की शुरूआत पहले लोग अपने निजी जमीन पर किया, बाद में किसी बड़े मैदान में किया जाने लगा। जिसके बाद पीढ़ी दर पीढ़ी हाट की व्यवस्था का संचालन किया जाता है। यह हाट सगे संबंधियों के मिलन स्थल के तौर पर भी जाना जाता है। इस दिन किसी भी व्यक्ति व रिश्तेदार से मुलाकात हाट में हो जाना तय है, आसपास के गांवों में इस दिन विशेष चहल-पहल रहती है। कुल मिलाकर कहें तो गांव के लिए बड़े-बड़े मॉलों से भी अधिक प्रसांगिक ग्रामीण हाट सबके लिए समान रूप से उपयोगी है।

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