Adra Nakshatra: आद्रा नक्षत्र: लोक और शास्त्रीय परंपराएं

Adra Nakshatra: आद्रा नक्षत्र: लोक और शास्त्रीय परंपराएं

Adra Nakshatra: 22 जून से आद्रा नक्षत्र की शुरुआत हो चुकी है। यह न केवल भारतीय धर्म, संस्कृति और ज्योतिष में विशेष महत्व रखता है, बल्कि इससे जुड़ी कई लोक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। विशेष रूप से बिहार में, आद्रा को पारंपरिक और प्राकृतिक रूप से मनाने की प्रथा चली आ रही है। इस अवसर पर सात्विक भोजन का विशेष महत्व होता है, जो शुद्धता और आंतरिक शांति का प्रतीक माना जाता है।

शास्त्रों में आद्रा का महत्व

शास्त्रों के अनुसार आर्द्रा नक्षत्र का सीधा संबंध भगवान शिव के रुद्र रूप से है। रुद्र, शिव जी का वह रूप है जो तेज, उग्र और संहारक माना जाता है। जब आर्द्रा नक्षत्र आता है, तो इसे रुद्र की विशेष उपस्थिति का समय माना जाता है। ऐसे समय में अगर कोई व्यक्ति भगवान रुद्र की पूजा करता है, व्रत रखता है और हल्का, सात्विक भोजन करता है, तो उसे मन की शांति, बीमारियों से सुरक्षा और आध्यात्मिक लाभ मिलता है। इसी वजह से इस दिन ज्यादा तैलीय, मसालेदार या भारी भोजन से बचने की सलाह दी जाती है, ताकि शरीर और मन दोनों साफ-सुथरे और शांत बने रहें। यही अवस्था पूजा और ध्यान के लिए सबसे सही मानी जाती है।

आद्रा को लेकर लोक मान्यताएं

बिहार में यह लोक मान्यता प्रचलित रही है कि आर्द्रा नक्षत्र से वर्षा ऋतु की शुरुआत होती है। इसी समय खेतों में धान का बीज डाला जाता है, जिससे खेती का मौसम विधिवत आरंभ होता है। इस अवसर पर महिलाएं घर पर दाल-पूरी, खीर और आम का सात्विक भोजन बनाकर अपने कुल देवी-देवताओं को भोग अर्पित करती थीं। चूंकि इस मौसम में आम प्रमुख फल होता है, इसलिए इसका विशेष महत्व माना जाता था।

आद्रा नक्षत्र को लेकर एक प्रसिद्ध लोक कहावत भी है:

“आदरा के बदरा बरिस गइलें आजु, इनर बरिसिहें कहिया”

इस कहावत के माध्यम से लोग इंद्र देव से वर्षा की प्रार्थना करते थे और कहते थे कि—आर्द्रा नक्षत्र का जो बादल था, उसकी बारिश तो हो गई, लेकिन हे इंद्र देव! आपकी कृपा की वह भरपूर वर्षा कब होगी, जिससे धान के खेतों को पूरी तरह जल मिल सके और फसल लग सके? हालांकि समय के साथ-साथ ये परंपराएं और मान्यताएं अब विलुप्त होती जा रही हैं। न तो यह कहावत अब सामान्य जन-जीवन में सुनाई देती है, और न ही वह पारंपरिक सात्विक भोजन संस्कृति पहले जैसी रह गई है।

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