आधुनिक दौर में खो गया बहुरूपिया

आधुनिक दौर में खो गया बहुरूपिया

Chhapra (Surabhit Dutt): गली मुहल्ले में घूमते वक्त अचानक आपकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ती है जो अजीब तरह के कपड़े पहने घूम रहा है. कभी काली माँ तो कभी शंकर भगवान, कभी पुलिस के भेष में. ये बहुरूपिये होते है जो अलग अलग भेष बदल कर घूमते है और इसी से अपनी रोजी रोजगार चलाते है. हालांकि वर्तमान समय में शहर ही नहीं गांवों में भी ये बहुरूपिये दीखते नहीं.  

आधुनिक दौर  में बहुरूपिये कही देखने को नहीं मिलते. बहुरूपिया एक ऐसी कला है जिसे अब लोग भूलते जा रहे है. आधुनिकता के दौर में इस कला को अपनी पहचान बचाये रखना चुनौती साबित हो रही है. पीढ़ियों से इस कला से जुड़े कलाकार अब आगे इसे जारी रखने में असमर्थ दिख रहे है.

जोकर की भेष में नौशाद बहुरूपिया

शहर में आयोजित भिखारी ठाकुर रंगमंच शताब्दी समारोह में राजस्थान के दौसा जिले से पहुंचे बहुरूपिया दल से बातचीत में उनके द्वारा जिन चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है विस्तार से बताया.

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जिन्न के भेष में फिरोज बहुरूपिया

अपनी सात पीढ़ियों से बहुरूपिया का भेष धर राजा महाराजा के दरबार से अब के आधुनिक युग तक लोगों का मनोरंजन कर रहे इस परिवार में छह भाई है और सभी अपने पूर्वजों के इस कला को आगे बढ़ रहे है. हालांकि परिवार की वर्तमान और भावी पीढ़ी इस कला को अपनाने में असमर्थता जता रही है.

भोले की भेष में फरीद बहुरूपिया

बातचीत के दौरान बहुरूपिया बने फिरोज, फरीद, शमशाद और नौशाद बहुरूपिया ने बताया कि आज इस कला को जीवित रखना कठिनाइयों और चुनौतियों से भरा है. संस्कृति मंत्रालय और संगीत नाटक अकादमी के प्रयास से देश में कार्यक्रम के माध्यम से कुछ मौका मिल रहा है जो परिवार के भरण पोषण की व्यवस्था कर रहा है. जबकि आज इस कला को लोग भूलते जा रहे है.

बहुरूपियों के इस दल के सदस्य और भोला शंकर का रूप धारण किये बने फरीद बहुरूपिया ने बताया कि राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई में उनका परिवार कई पीढ़ियों से इस कला को करता आ रहा है. पहले की पीढ़ियों ने राजा महाराजाओं के दरबार में प्रस्तुति दी. समय बदला और अब मंत्रालय के माध्यम से प्रस्तुती दे रहे है. वे राजस्थान में वेस्ट जोन कल्चर सेंटर से जुड़े है जहाँ से देश के कई शहरों में जाना होता है.

जिन्न का भेष धारण किये फरीद बहुरुपिया ने बताया कि मेकअप और तमाम अन्य खर्च को उठाना अब मुश्किल है. जब लोगों को इसके प्रति कोई रूचि नहीं रही. यहाँ तक की परिवार के बच्चे भी इससे जुड़ना नहीं चाहते और अलग रोजगार तलाश रहे है.

जोकर के भेष में नौशाद बहुरुपिया ने कहा कि आज की पीढ़ी इस परंपरा कला से दूर जा रही है. अनेकों रूप को धरने वाले इस कला को अब लोग भूल रहे है. हमारे परिवार वाले भी इससे दूर जा रहे है. आज के दौर में यह छूट रहा है सरकार कोई ठोस कदम नही उठा रही है.
कलाकार की कला को सब देखते है उसके अन्दर छिपे संघर्ष और चुनौतियों से शायद की कोई वाकिफ हो पाता है.

कुल मिलकर लगभग लुप्त होती इस कला को संजो कर रहने में राजस्थान का यह परिवार तो सफल है पर आने वाली पीढ़ी शायद ही इस कला से अवगत हो पाए.

 

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